क्या प्रेम ही परमात्मा नहीं है? क्या प्रेम में डूबा हुआ हृदय ही उसका मंदिर नहीं है? और, क्या जो प्रेम को छोड़ उसे कहीं और खोजता है, वह व्यर्थ ही नहीं खो
एक दिन यह मैं अपने से पूछता था। आज यही आपसे भी पूछता हूं।
परमात्मा को जो खोजता है, वह घोषणा करता है कि प्रेम उसे उपलब्ध नहीं हुआ है। क्योंकि जो प्रेम को उपलब्ध होता है, वह परमात्मा को भी उपलब्ध हो जाता है।
परमात्मा की खोज प्रेम के अभाव से पैदा होती है, जब कि प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव ही है।
परमात्मा को जो खोजता है, वह परमात्मा को तो पा ही नहीं सकता, प्रेम की खोज से अवश्य ही वंचित हो जाता है। किंतु जो प्रेम को खोजता है, वह प्रेम को पाकर ही परमात्मा को भी पा लेता है।
प्रेम मार्ग है। प्रेम द्वार है। प्रेम पैरों की शक्ति है। प्रेम प्राणों की प्यास है। अंततः प्रेम ही प्राप्ति है। वास्तव में प्रेम ही परमात्मा है।
मैं कहता हूंः परमात्मा को छोडो। प्रेम को पाओ। मंदिरों को भूलो। हृदय को खोजो। क्योंकि, वह है तो वहीं है।
परमात्मा की यदि कोई मूर्ति है तो वह प्रेम है। लेकिन पाषाण-मूर्तियों में वह मूर्ति खो ही गई है। परमात्मा का कोई मंदिर है, तो वह हृदय है, लेकिन मिट्टी के मंदिरों ने उसे भलीभांति ढंक लिया है।
परमात्मा उसकी ही मूर्तियों और मंदिरों के कारण खो गया है और उसके पुजारियों के कारण ही उससे मिलन कठिन है। उसके लिए गाई गई स्तुतियों और प्रार्थनाओं के कारण ही स्वयं उसकी ध्वनि को सुन पाना असंभव हो गया है।
प्रेम आवे तो उसमें ही परमात्मा भी मनुष्य के जीवन में लौट कर आ सकता है। एक पंडित एक फकीर से मिलने गया था। उसके सिर पर शास्त्रों की इतनी बडी गठरी थी कि फकीर के झोपड़े तक पहुंचते-पहुंचते वह अधमरा हो गया था। उसने जाकर फकीर से पूछाः ‘‘परमात्मा को पाने के लिए मैं क्या करूं? ’’ लेकिन जिस गठरी को वह सिर पर लिए हुए था, उसे सिर पर ही लिए रहा। फकीर ने कहाः ‘‘मित्र! सबसे पहले तो इस गठरी को नीचे रख दो।’’ पंडित ने बडी कठिनाई अनुभव की। फिर भी उसने साहस किया और गठरी को नीचे रख दिया। आत्मा के बोझों को नीचे रखने के लिए निश्चय ही अदम्य साहस की जरूरत होती है। लेकिन फिर भी एक हाथ वह गठरी पर ही रखे हुए था। फकीर ने पुनः कहाः ‘‘मित्र! उस हाथ को भी दूर खींच लो!’’ वह बडा बलशाली व्यक्ति रहा होगा, क्योंकि उसने शक्ति जुटा कर अपना हाथ भी गठरी से दूर कर लिया था। तब फकीर ने उससे कहाः ‘‘क्या तुम प्रेम से परिचित हो? क्या तुम्हारे चरण प्रेम के पथ पर चले हैं? यदि नहीं तो जाओ और प्रेम के मंदिर में प्रवेश करो। प्रेम को जीयो और जानो और तब आना। फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक ले चलने का आश्वासन देता हूं।’’
वह पंडित लौट गया। वह आया था तब पंडित था, लेकिन अब पंडित नहीं था। वह अपनी ज्ञान-गठरी वहीं छोड़ गया था।
वह व्यक्ति निश्चित ही असाधारण था और अदभुत था। क्योंकि साम्राज्य छोड़ना आसान है किंतु ज्ञान छोड़ना कठिन है। ज्ञान अहंकार का अंतिम आधार जो है।
लेकिन, प्रेम के लिए अहंकार का जाना आवश्यक है।
प्रेम का विरोधी घृणा नहीं है। प्रेम का मूल शत्रु अहंकार है। घृणा तो उसकी ही अनेक संततियों में से एक है। राग, विराग, आसक्ति, विरक्ति, मोह, घृणा, ईष्र्या, क्रोध, द्वेष, लोभ, सभी उसकी ही संतानें हैं। अहंकार का परिवार बड़ा है।
फकीर ने उस व्यक्ति को गांव के बाहर तक जाकर विदा दी। वह इस योग्य था भी। फकीर उसके साहस से आनंदित था। जहां साहस है, वहां धर्म के जन्म की संभावना है। साहस से स्वतंत्रता आती है और स्वतंत्रता से सत्य का साक्षात होता है।
लेकिन फिर वर्ष पर वर्ष बीत गए। फकीर उस व्यक्ति के लौटने की प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ा हो गया। लेकिन वह न आया। अंततः फकीर ही उसे खोजने निकला और उसने एक दिन उसे खोज ही लिया। एक गांव में वह आत्मविभोर हो नाच रहा था। उसे पहचानना भी कठिन था। आनंद से उसका कायाकल्प ही हो गया था। फकीर ने उसे रोका और पूछाः ‘‘आए नहीं? मैं तो प्रतीक्षा करते-करते थक ही गया और तब स्वयं ही तुम्हें खोजता यहां आया हूं। क्या परमात्मा को नहीं खोजना है? ’’ वह व्यक्ति बोलाः ‘‘नहीं। बिल्कुल नहीं। प्रेम को पाया, उसी क्षण उसे भी पा लिया है।’’
ओशो
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