बुधवार, 23 नवंबर 2022

किताबों का भविष्य? /

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🟣कुछ रोज पहले की बात है, एक पुस्तक मेले अथवा पुस्तक-प्रदर्शनी से लौट कर आया। तब पुस्तकों के भविष्य पर देर तक सोचता रहा। मेला भीड़़ के लिहाज से बहुत फीका था। उसे संभालने में जितने लोग लगे थे, उतने लोग भी दर्शक-खरीदार नहीं थे। यदि सरकारी सहायता नहीं होती, तो आयोजकों का बड़ा आर्थिक नुकसान होना तय था। पुस्तकों के कारोबार के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन कुल मिला कर मेरा आकलन है कि पहले के मुकाबले इसके उपभोक्ता अधिक हुए हैं। किताबें पहले यानि मेरे युवा काल के मुकाबले अधिक पढ़ी जा रही हैं। इसका कारण और कुछ नहीं, शिक्षा का प्रसार है। हालांकि हमारे ज़माने में किताबों के प्रति जो उत्साह था उसमें गिरावट आई है। हमारे युवाकाल में मध्यवर्गीय परिवारों के बैठकखानों में धर्मयुग, सारिक, हिंदुस्तान, दिनमान जैसी पत्रिकाएं प्रायः मिल जाती थीं। अब वहां कोई पत्रिका नहीं होतीं, अखबार भी तेजी से अनुपस्थित होने लगे हैं। इसके अनेक कारण हैं। बावजूद इसके मेरा मानना है कि ज्ञान के बारे में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। हां पचास साल पहले की मानसिकता का होना स्वाभाविक तौर पर असंभव है। आज लोग न उस दौर के साहित्य को पसंद करना चाहेंगे, न राजनीतिक विचारधारा को। 

  इस बीच आई डिजिटल क्रांति ने पत्रिकाओं और अख़बारों को अप्रासंगिक कर दिया है। कोई अब अख़बार, पत्रिकाओं पर क्यों निर्भर रहना चाहेगा? अब तो टीवी भी नकार दिए गए हैं। आज मोबाइल फोन में ही सब कुछ है। व्हाट्सप, ट्वीटर ने चिट्ठियों को अप्रासंगिक बना दिया है। इंटरनेट ने विभिन्न मंचों से जो संचार- क्रांति की है उसने दुनिया के मानसिक ढांचे को भी बदल दिया है।पिछले वर्षों की कोरोना महामारी ने ऑनलाइन संस्कृति को इतना आवश्यक बना दिया कि लोग इससे निकलना पसंद नहीं कर रहे हैं। इनके विस्तार को रोकना असंभव होगा। एक-एक कर अख़बार, पत्रिकाएं सब ऑनलाइन हो जाएंगी।


 *लेकिन ये किताबें !!* 


किताबें भी प्रभावित होंगी। किताबें हमेशा आज जैसी थीं भी नहीं। भारत की बात करें तो वेद बहुत दिनों तक लिपि, लेखन और प्रकाशन से दूर रहे। उनका प्रकाशन 19वीं सदी में हुआ। पूरी दुनिया के पैमाने पर भी किताबों का यह स्वरुप कुछ सौ साल पहले की घटना है। मेरी जानकारी के अनुसार 1540 ईस्वी में एक जर्मन जोहन्स गुटेनबर्ग ने पहली दफा प्रिंटिंग मशीन बनाई थी और उसी ने पहली दफा बाइबिल का प्रकाशन किया था, जिसे गुटेनबर्ग बाइबिल कहा जाता है। इसी प्रकाशन के कारण यूरोप में रेनेसां आया। बाइबिल अब पादरियों के घेरे से निकल कर आमजन के लिए सुलभ हो गई और लोग उस पर स्वतंत्र रूप से विचार करने लगे। प्रबोधन के दौर में उसे नकारने की हिम्मत इसी कारण आई कि उन्होंने उसे पहले व्यापक तौर पर पढ़ा था। प्रिंटिंग मशीन ने ज्ञान की दुनिया में एक बड़ी क्रांति लाई थी। अन्यथा इसके पहले किताबें गिनी-चुनी संख्या में प्रकाशित होती थी। मुग़ल बादशाह बाबर की आत्मकथा केवल पांच प्रतियों में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशन के लिए उसे अकबर का इंतजार करना पड़ा था। अब तो किताब रात में लिखी गई और सुबह छप गई वाला समय है। लेकिन यह स्वरुप भी अधिक समय तक नहीं चलेगा। किताबें अब बहुत जल्द ऑनलाइन होंगीं और उसका कागज से रिश्ता टूट जाएगा। किताबों के मेले, दुकानें सब बंद। आमेजन वगैरह माध्यमों से मंगाने के झंझट भी ख़त्म। मैं समझाता हूं यह सब दस वर्षों के भीतर होने जा रहा है।

  1990 के दशक में एक रूसी लेखक की अंग्रेजी में अनुदित कहानी पढ़ी थी। शीर्षक भूल नहीं रहा हूँ तो ' *द फन दे हेड'* था। 20वीं सदी के किसी साल में तेरह पंद्रह साल के दो दोस्त बात कर रहे हैं। एक को किताब मिल गई है। उसका दोस्त बताता है, उसके दादा भी किताबों की बात किया करते थे और कहते थे उनके दादा किताबें पढ़ा करते थे। किताबें बिना बिजली के भी सूरज की रौशनी में पढ़ी जा सकती हैं। कमाल की चीज है। लेकिन जिसे किताब मिली है, वह तो किताब पढ़ कर अभिभूत है। किताब स्कूल के बारे में है। पुराने ज़माने में स्कूल हुआ करते थे। बच्चे बस से वहां जाया  करते थे।  क्लासरूम, टीचर, किताबें, खेल के मैदान और अहा हा ! बारिश होने पर छुट्टी। रैनि-डे ! वाह ! क्या मजे थे ! 

  तो हम उसी ज़माने की ओर समृद्ध वेग से बढ़ रहे हैं। ये स्कूल, यूनिवर्सीटियां, किताबें इस रूप में नहीं होंगी। सब ऑनलाइन। मोबाइल और स्क्रीन का भी यह रूप शायद नहीं होगा। जैसे ऑनलाइन बैंकिंग से जाली नोट अप्रासंगिक हो रहे हैं, वैसे ही ऑनलाइन किताबों से जाली लेखक अप्रासंगिक हो जाएंगे। लेकिन कविता, कला, संगीत और विचार अवश्य होंगे। वे अधिक प्रांजल रूप में होंगे। इस दुनिया के स्वागत के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।


📎 *प्रेम कुमार मणि* 

की वॉल से साभार

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