प्रखर पत्रकार, तेजस्वी टिप्पणीकार, बेहतरीन कवि और विरल कथाकार
प्रियदर्शन ने कहानी कला के अनेक आयामों की रौशनी में
मेरी कथा यात्रा का बारीक विश्लेषण किया है जिसे पाठकों और मित्रों के साथ साझा करने का मन हो आया है---
ज़िंदगी को कहानी की तरह लिखते धीरेंद्र अस्थाना
प्रियदर्शन
धीरेंद्र अस्थाना ने 70 के दशक में लिखना शुरू किया। यह वह समय है जब नई कहानी का आंदोलन अपने शिखर पर पहुंच चुका था और उसके कई नायक आधुनिक हिंदी साहित्य में इतिहास पुरुष जैसे हो चुके थे। कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव की लगभग कुख्यात हो चुकी त्रयी के अलावा निर्मल वर्मा, धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती की कहानियां अलग-अलग ढंग से इसी आंदोलन की कड़ियों की तरह हमारे सामने थीं। ज्ञानरंजन, अमरकांत, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, मार्कंडेय, रवींद्र कालिया और धीरेंद्र अस्थाना इसी परंपरा का हिस्सा रहे। इनके लगभग समानांतर या तत्काल बाद उदय प्रकाश, संजीव और शिवमूर्ति जैसे विलक्षण कथाकार हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर उभरे।
धीरेंद्र अस्थाना की कहानियों को इस परंपरा के हिस्से के तौर पर पढ़ने का एक मकसद और है। नई कहानी का आंदोलन किसी शून्य से पैदा नहीं हुआ था, वह अपने देशकाल, अपनी परिस्थितियों की निहायत उपज था। आज़ादी के बाद का मोहभंग, गांव से कटकर पहली बार शहरों में बस रहे मध्यवर्ग का मुश्किल होता जीवन, युवाओं के भीतर बढ़ती बेरोज़गारी और हताशा, प्रेम और दांपत्य के नए बनते तनाव- यह सब एक नया यथार्थ बना रहे थे जिसे शायद पुराने शिल्प में देखना और रचना संभव नहीं था। यह एक शुष्क यथार्थ था जिसके हिस्से के पुराने स्वप्न धीरे-धीरे तिरोहित हो रहे थे, जिसके भीतर देश को नए सिरे से गढ़ने और एक बराबरी वाला समाज बनाने की कल्पना लगभग रोज चोट खाती हुई मर रही थी और जिसके भीतर इन सबसे पैदा हुई एक गहरी बेचैनी थी।
अभाव, अनिश्चय, हताशा और बेचैनी के लगभग इसी चौराहे पर हमें धीरेंद्र अस्थाना की कई कहानियां मिलती हैं। लेकिन वे जीवन की छायाप्रति की तरह नहीं मिलतीं। धीरेंद्र अस्थाना इस मायने में अपने समय के कई कथाकारों से भिन्न हैं कि वह किन्ही दी हुई जीवन स्थितियों को, किसी अर्जित अनुभव को जस का तस नहीं रखते, बल्कि उनका लेखकीय हस्तक्षेप उनमें से अपनी कहानी चुनता है। ऐसा लगता है, पूरा जीवन उनके सामने चल रही एक कहानी जैसा है। वे उसमें शामिल भी हैं और उससे विलग भी हैं। ऐसी कहानी लिखना आसान काम नहीं होता। इसमें दो तरह के खतरे बहुत प्रत्यक्ष होते हैं। या तो कहानी बिखर जाती है या फिर वह जीवन की नकली, स्पंदनविहीन प्रति होकर रह जाती है।
लेकिन धीरेंद्र अस्थाना की कहानियां दोनों खतरों के पार जाती हैं- शायद इसलिए कि उन्हें मालूम है कि अंततः उन्हें कहना या बताना क्या है। कई तरह की जटिल स्थितियां रचते हुए वे अंततः कहानी अर्जित कर लेते हैं जो उन्हें कहनी होती है। उनकी पहली ही कहानी 'लोग हाशिए पर' एक जटिल कहानी है। कहानी कम से कम तीन स्तरों पर चलती है। पहले स्तर पर एक प्रेस है जिसमें काम कर रहे कई लेखक बहुत कम पैसे पर- लगभग- शोषण की स्थिति में नौकरी करने को मजबूर हैं। दूसरा स्तर आर्थिक तौर पर कमज़ोर इन लेखकों के परिवारों का है जिनकी ज़िम्मेदारियां पूरी करते या उनके दबाव से भागते-बचते ये लोग शराब के ठेकों की शरण लेते हैं और एक-दूसरे को किसी फुरसत में अपनी परेशानियां, कुंठाएं, कहानियां-कविताएं सब सुनाते हैं। एक अन्य स्तर पर यह कहानी उन मज़दूरों की है जो एक दिन हड़ताल करते हैं और अपना हक़ हासिल करने की कोशिश करते हैं। लगभग कामयाब दिखती इस हड़ताल के खात्मे के बाद मालिक साज़िश करते हैं और हड़ताल का नायक एक क़त्ल के जुर्म में सलाखों के पीछे भेज दिया जाता है।
पहली नज़र में यह कुछ अतिरिक्त नाटकीय कहानी लग सकती है- जिसे लेखक ने अपनी कल्पना से बुना ही नहीं है, बल्कि अपने स्व को अलग-अलग चरित्रों में बिखेर दिया है। लेकिन कहानी की सफलता इस बात में है कि कथाकार इन तमाम प्रतिकूलताओं के बीच बनने वाले हालात को बिल्कुल ठीक-ठीक पकड़ता है, किसी नक़ली आशावाद की गिरफ़्त में आने की जगह कहानी को उसके यथार्थ तक जाने देता है और उसमें नाटकीयता मिलाते हुए भी उसके पाठ की प्रामाणिकता बनाए रखता है। दरअसल इस काम में धीरेंद्र अस्थाना की मददगार उनकी बहुत जीवंत भाषा भी है- ऐसी भाषा जो बहुत कम शब्दों में स्थितियों और चरित्रों को रच सकने में सक्षम है। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ऐसी भाषा किसी कौशल या अभ्यास का नतीजा नहीं होती, उस जीवन से जुड़ाव से पैदा होती है जिसको लेखक अपनी कथा में रचने की कोशिश कर रहा होता है। यह जुड़ाव इस कहानी में बना रहता है और इसलिए कहानी अपने पाठकों से जुड़ पाती है।
धीरेंद्र अस्थाना दरअसल जीवन के समानांतर अपनी कहानियों में एक और जीवन रच रहे होते हैं। क़ायदे से लगभग हर लेखक यही काम करता है, लेकिन सबकी अपनी प्रविधि होती है। कुछ लोग बस जो घटित होता है, उसमें कुछ कल्पना का रसायन मिलाकर, अपने-आप को अदृश्य रखते हुए ऐसी यथार्थवादी कहानियां लिखते हैं जिन्हें पढ़ते हुए लेखक का- या कहानी पढ़ने का- ध्यान नहीं आता।
मगर धीरेंद्र अस्थाना की प्रविधि दूसरी है। वे एक साथ अपनी कहानियों में इतनी सारी चीज़ें ले आते हैं कि उन्हें जोड़ने के लिए कोई लेखक चाहिए। वे पाठक को यह भूलने नहीं देते कि वह कहानी ही पढ़ रहा है, लेकिन कहानी के तमाम सूत्र अंततः उस जीवन की ओर ले जाते हैं जिसमें उल्लास हो या उदासी, वह अपने पूरे गाढ़े रंग में प्रगट होती है।
ऐसी ही एक कहानी है ‘भूत।‘ लेखक का एक वर्तमान है जिसमें एक स्त्री भी है जिससे वह प्रेम करता है। लेकिन उसे लगता रहता है कि उसका भूत उसके वर्तमान को खा रहा है। वह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका से यह सब साझा कर सके, लेकिन कर नहीं पाता। दूसरी तरफ़ प्रेमिका लगातार महसूस करती है कि वह एक अजनबी शख़्स के साथ है। वह बार-बार उसे कुरेदने की कोशिश करती है, लेकिन वह अपने खोल से बाहर नहीं आता। यह स्थिति उसे दफ़्तर में भी अजनबी और अकेला करती जाती है। जब वह पीछे मुड़कर और पलट कर देखता है तो पाठक के सामने एक सिहरा देने वाला यथार्थ सामने आता है। बरसों पहले वह पिता की मौत के बाद अपनी मां की उम्मीद की तरह घर से निकला था- लेकिन कहां और क्यों रास्ते में छूट गया और इस अधूरी रह गई वापसी ने कैसे उसे वर्तमान का प्रेत बना डाला है, इसकी लगभग स्तब्ध कर देने वाली कहानी हमारे सामने आती है।
ध्यान से देखें तो धीरेंद्र अस्थाना की कहानियां जीवन के कई आयामों के बीच आवाजाही करती हैं। एक तरफ़ वह समाज और व्यवस्था है जिससे उनके मध्यवर्गीय चरित्र टकराते रहते हैं- कभी हारते और कभी जीतते भी हैं, लेकिन अंततः उनकी कहानी इस अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवस्था और इसे बदलने की ज़रूरत को कुछ रेखांकित करती हुई किसी अंत तक पहुंचती है। एक आयाम उस परिवार का है जिसमें बेबस पिता हैं, कातर मां हैं, भाई और बहनें हैं। कहीं पिता से टकराता, कहीं उनसे पिटता और कहीं उनको याद करता नायक है, कहीं मां की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने की कचोट का मारा कथावाचक हैं, कहीं भाई को तलाश रहा एक स्तब्ध शख़्स है जिसे पता है कि बहुत सारी मजबूरियों को मिलाकर बने यथार्थ ने उसे लगभग पीस डाला है। एक आयाम प्रेम और घर से जुड़ा है जहां रिश्ते दरकते हैं, एक-दूसरे को सहारा देते हैं और फिर एक-दूसरे को नए सिरे से पहचानने की कोशिश करते हैं।
इन्हीं कहानियों के बीच एक स्तब्ध कर देने वाली कहानी ‘चीख’ है। कथावाचक का मानसिक तौर पर दुर्बल भाई घर से चला गया है, घर उसकी तलाश में जुटा है, पच्चीस दिन बाद अचानक वह लौट आता है। लेकिन वह यह बता पाने में असमर्थ है कि इन पच्चीस दिनों में वह कहां रहा, किनके आसरे रहा। बस एक दिन बता पाता है कि उसे मां की चीख सुनाई पड़ी थी और वह लौट आया था।
ऐसी ही एक बहुत जटिल कहानी ‘जन्मभूमि’ है। लेखक कहानी के शुरू में ही यह ‘डिस्क्लेमर’ डाल देता है कि यह सुसंगत घटनाक्रमों के बीच बनी कहानी नहीं है- इसे वह ‘ऐंटी स्टोरी’- प्रति कहानी- कहता है। यह कहानी भी बहुत नाटकीय ढंग से शुरू होती है- लेखक का इसरार है कि पाठक किसी मंच की कल्पना करें जिसमें एक दृश्य घटित हो रहा है। इस दृश्य में अरसे बाद बेटे के सामने आया पिता उसे गद्दार कहता है। आने वाले दिनों में पार्टी के कॉमरेड उसे डरपोक कहते हैं क्योंकि वह कहता है कि वह राजनीतिक मोर्चे से ज़्यादा साहित्यिक मोर्चे पर उपयुक्त है। वह शराब के ठेके पर अपने दोस्त के साथ बैठता है, वहां से पिट कर दोस्त के साथ ही किसी अनजान लड़की के घर पहुंचता है। उसे अपनी पत्नी याद आती है और उसका दुख याद आता है कि वह उसे समझने की कोशिश नहीं करता।
दरअसल यह कई दृश्यों को मिलाकर बुनी गई कहानी है। किसी फिल्म की तरह ये सारे दृश्य साथ चल रहे होते हैं। एक दृश्य पत्नी का है, एक दृश्य कथावाचक की रंगकर्मी दोस्त अनुराधा कुलकर्णी का है और एक दृश्य उसके अकेलेपन का भी है। ये सारे दृश्य मिलकर एक बड़ा दृश्य बनाते हैं- अभाव और संकट की मारी दुनिया में एक संवेदनशील-चरित्र के लगातार पिटने, रोने और पलायनोन्मुख होने का। लेकिन यह इस निरे अर्थ में पलायन नहीं है कि इसमें सोचने का तत्व बाक़ी है, प्रतिरोध और गुस्सा बाक़ी है और यह खयाल और सवाल बाक़ी है कि ‘एक अकेला आदमी बावजूद सकारात्मक सोच और तमन्नाओं के अंततः ग़लत क्यों साबित होता है, होता चला जाता है?’
यहीं यह खयाल आता है कि क्या धीरेंद्र अस्थाना की कहानियां विफल कथानायकों की कहानियां हैं? उनके हिस्से का प्रेम अधूरा रहता है, उनका परिवार उनसे असंतुष्ट रहता है, ज़िंदगी उनसे सधती नहीं, क्रांति उनसे होती नहीं। वे अकेले पड़ जाने को अभिशप्त चरित्र हैं। लेकिन क्या यह विफलता उनके भीतर मौजूद किसी ‘फेटल फ्लॉ’- किसी सांघातिक कमज़ोरी की है- शेक्सपियर के महान चरित्रों की तरह जो एक मोड़ पर जानलेवा साबित होती है? या इसका वास्ता उस दुर्निवार और दुर्विराट होती व्यवस्था से है जिसमें किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए या तो यांत्रिक बन कर जीना संभव है या फिर घुट-घुट कर मरना संभव है? दरअसल यह सवाल धीरेंद्र अस्थाना की कहानियों का मर्म समझने की एक कुंजी दे सकता है। धीरेंद्र अस्थाना की ये कहानियां अच्छी क्यों लगती हैं? क्योंकि वे अपनी अंतर्वेदना में सिर्फ़ निजी छटपटाहट की कहानियां नहीं हैं, वे एक सार्वजनिक विडंबना की भी कहानियां हैं जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने दिया है।
‘नींद के बाहर’ वह कहानी है जिसमें धीरेंद्र अस्थाना का कथा-वैभव अपने पूरे निखार के साथ दिखाई पड़ता है। एक बड़े कंपनी के बड़े अधिकारी की नौकरी छूटने के बाद उसकी दुनिया बदल जाती है। लेकिन यह नौकरी छूटने के साथ लोगों की नज़र बदल जाने की सपाट कहानी नहीं है। उल्टे उस अधिकारी को लगता है कि वह जब तक नौकरी में था तब तक एक गहरी नींद में था जिसमें दुनिया और उसका सच उसके सामने से ओझल थे। नौकरी छूटने के साथ वह नींद से बाहर आ गया है। बेशक, इसमें बदली हुई निगाहें भी हैं, दोस्तों द्वारा उसका फोन न उठाने की दास्तानें भी हैं, पास-पड़ोस से उसका नया बनता संबंध भी है, लेकिन इन सबके बावजूद यह निजी दुख या पीड़ा की कहानी नहीं है। यह इस नए बनते चमकदार भारत में लगातार असुरक्षित होते जाते लोगों और उनकी ज़िंदगियों में फैलते अंधेरे की भी कहानी है- जो बहुत बारीक़ी से लिखी गई है और जिसके बहुत सारे स्तर हमें बांधे रखते हैं।
इसी तरह एक और कहानी है- ‘पिता’। यहां पिता और पुत्र एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं और कटे हुए भी- उनमें एक आत्मीय पारस्परिकता है, लेकिन वैसी भावुक निर्भरता नहीं जो पुराने पिताओं-पुत्रों में उनकी संवादहीनता के बावजूद देखी जाती है- एक-दूसरे पर दबाव बनाने या एक दूसरे के दबाव से मुक्त होने की कोशिश तो कतई नहीं। कोई हठी आलोचक पढ़ना चाहे तो इसमें टूटती-बिखरती
पारिवारिकता के सूत्र भी पढ़ सकता है। बेशक, वे सूत्र यहां हैं, लेकिन इन चरित्रों या इस कहानी की वजह से नहीं, बल्कि उस सहज माहौल की वजह से जो वक़्त बदलने के साथ बदल गया है। हां, इस बदले हुए माहौल में, एक निष्ठुर अकेलापन है जो सिर्फ इस वजह से नहीं है कि मां-पिता कहीं दूर हैं और बेटा अकेले है, बल्कि इस वजह से भी है कि अपनी स्वतंत्रता की कामना की, जीवन को अपने ढंग से जीने की ज़िद की, एक क़ीमत यह अकेलापन भी है। इसी अकेलेपन ने राहुल को भी बनाया है और मनचाही शादी और परिवार के बावजूद अंततः अकेला छोड़ दिया और यही अकेलापन विकास को भी बना रहा है।
कहानी का अंत काफी महत्वपूर्ण है। धीरेंद्र अस्थाना चाहते तो इसे आसानी से पिता की मर्जी की कहानी
बना सकते थे। बेटे की छूटी हुई नौकरी दुबारा लग गई है, वह कलाकार के रूप में स्थापित है, अब एक
घर है जहां से वह जुड़ा रहे तो पिता और परिवार से बंधा रहेगा। लेकिन अपने बेटे की उपलब्धि पर खुश
पिता फिर भी उसे यह आश्रय नहीं देता। राहुल दिल्ली की फ्लाइट वापस पकड़ने के लिए निकलने से पहले विकास से पूछता है, वह रहेगा कहां। विकास के जवाब में एक बेफिक्री है और राहुल उसे अपने हिस्से का आसमान या अपने हिस्से की छत बनाने के लिए (बिना यह कहे) छोड़ जाता है। यह एक जटिल अंत है- एक हूक भी पैदा करता है जो देर तक बनी रहती है। लेकिन शायद यही तार्किक है।
विकास को बांधे रखना होता तो राहुल शुरू से बांधे रखता- इस आख़िरी मोड़ पर वह उसे क्यों बांधे।
इस कहानी की कई ख़ासियतें हैं। यह अपने समय से बंधी- उसकी ताल में निबद्ध- कहानी है। यहां
छूटते हुए घर हैं, छूटती हुई नौकरियां हैं, नौजवान बेफ़िक्री है, बहुत हल्के से दीखता, लेकिन बदलता हुआ हिंदुस्तान है- और खालिस इक्कीसवीं सदी का वह द्वंद्व है जो अपने रिश्तों को लेकर हमारे भीतर
मौजूद है।
धीरेंद्र अस्थाना का लेखन संसार बहुत बड़ा और विपुल है। लेकिन उसकी खासियत यह है कि वह अपने बहुत क़रीब लगता है। शायद इसलिए कि वह बहुत दूर तक निजी प्रसंगों और अनुभवों से बनता है। यही वजह है कि उसमें बहुत गहरी तपिश दिखाई पड़ती है, उससे बहुत ऊष्मा मिलती है। उनके उपन्यास ‘गुज़र क्यों नहीं जाता’ में भी ये आत्मकथात्मक प्रसंग मिलते हैं। यह एक निजी कहानी जैसा है, लेकिन इसमें निहित सार्वजनिकता अदृश्य नहीं रहती और न ही इसके दंश अलक्षित रह जाते हैं।
लेकिन इतना राग-विराग-खटराग-अनुराग धीरेंद्र अस्थाना लाते कहां से हैं? उनका निजी वितान इतना बड़ा कैसे होता जाता है कि उसमें सार्वजनिकता भी समाई मिलती है? इसका जवाब उनकी आत्मकथा ‘ज़िंदगी का क्या किया’ देती है। इस किताब से गुज़रते हुए अनायास यह खयाल आता है कि धीरेंद्र जीवन की ऊष्मा को, उसके ताप को, जिस तीव्रता के साथ महसूस करते हैं, उसे अपने लेखन में लगभग ज्यों का त्यों उतार लेते हैं। धीरेंद्र बहुत बेबाकी और धीरज से अपने बचपन का, उस बचपन के संघर्ष का, अपने रिश्तों का, अपनी मां-अपने पिता. अपने चाचा का उल्लेख करते हैं। इस उल्लेख में संवेदनशीलता भी है, ज़रूरी दूरी भी, तटस्थता भी और कभी-कभी बिल्कुल निष्कवच यथार्थ को दिखा देने वाला साहस और स्वीकार भी। धीरेंद्र के कोख में रहते आत्महत्या की कोशिश में अपाहिज हो गई मां, फक्कड़पने के अलग-अलग ध्रुवांतों को जीते और परिवार के लिए किसी मुसीबत की तरह मिलते पिता, परिवार के आर्थिक अभावों को अनदेखा कर अपनी संपन्न जीवनशैली में खोए रिश्तेदार, और छोटे-बड़े अभावों का जैसे अंतहीन सिलसिला- मेरठ, आगरा, मुज़फ़्फरनगर और देहरादून के बीच पले-बढ़े इस जीवन की झलक हमें य़ह भी बताती है कि लेखक कैसे बनते हैं या धीरेंद्र अस्थाना नाम का लेखक कैसे बना।
जिसे ज़िंदगी इस दुर्धर्ष अनुभव की तरह मिली हो, वह या तो बिल्कुल संवेदनहीन होकर उसे मशीन या पशु की तरह काट देता है, या फिर अतिरिक्त संवेदनशील होकर आत्महत्य़ा के रास्ते की ओर बढ़ चलती है और अगर यह भी नहीं तो लेखक बन जाता है। दरअसल यह लिखना है जिसने धीरेंद्र अस्थाना का जीना संभव किया। यही वजह है कि जीवन भी उनके लिए कहानी जैसा है। इस कहानी में अपनी राहतें भी हैं और इससे निकलती राहें भी। यह उनकी सीमा भी है और उनकी शक्ति भी। और इन सबसे निकलता अंतिम सच यह है कि धीरेंद्र अस्थाना हिंदी के एक मूल्यवान लेखक हैं जिनकी रचनाओं ने पाठकों को समृद्ध किया है और हिंदी कथा की परंपरा में अपने स्तर पर कुछ जोड़ा भी है।