शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

यानी के / आलोक यात्री



📎📎 यानी के...

... मौजूदा दौर के आदमी की बेबसी का ग़ालिब साहब को डेढ़ सदी पहले ही अहसास हो गया था
मियां की बानगी देखिए... हर शेर बोलता हुआ...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूं जो चश्म ए तर से उम्र भर यूं दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

📎📎 यानी के....
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले...
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पर दम निकले...
... मौजूदा दौर के आदमी की बेबसी क ग़ालिब साहब को डेढ़ सदी पहले ही अहसास हो गया था
जनाब की बानगी देखिए... एक-एक शेर बोलता हुआ...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूं जो चश्म ए तर से उम्र भर यूं दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले



हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

//।। । आलोक यात्री।


।।।।।

1 टिप्पणी:

  1. वाह, गालिब के शेरों को क्या खूब प्रासंगिक वर्णन किया है, बहुत खूब

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