शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

संवाद : अपने आप से / रश्मि




लॉकडाउन में संवाद
,
संवाद -अपने आप से.
 वैशाख शुरू हो गया है.धूप में ताप बढ़ गया है.हवा कुछ गर्म और धूल भरी हो गई है .
क्यारी में गुलाब जल्द कुम्हला जाते हैं,पॉपी की पौध भी सूख गई है.लिली शर्माती सी खिल रही है.   छोटी सूरजमुखी के फूल शान से गर्दन उठा कर खिलखिला रहे हैं.
सदाबहार के सफ़ेद,गुलाबी फूलों के गुच्छे मुस्करा रहे हैं.
मौसम होली के बाद से ही बदलना प्रारंभ होगया था .कोरोना की आहट भी आने लगीथी.
मेरे पीछे के आगंन में लगे अमरूद के वृक्ष से पत्तियाँ झड़ झड़ कर यहाँ वहाँ दौड़ने लगी थीं.
इस वृक्ष को लेकर जगवीरी बीस दिन पहले बड़बड़ा रही थी -इसबार खूब अमरूद लगा है ,आप देखभाल करो तब ना खाने को मिलें.     कच्चे पक्के अमरूद रोज़ धरती पर पड़े मिलते और सफ़ाई करते उसका दिल जलता .  अब मै क्या कहूँ ? पेड़ पर बंदर होते तो लाठी लेकर भगाए जा सकते हैं .इस बार तोते थे.हरे हरे पत्तों के बीच बैठे तोतों का फ़ोटो लेने केलिए मैं सुबह से रेलिंग पर झुकी रहती ,कहाँ ले पायी ?कभी शैतान सी गोल आँख दिखाई देती तो कभी लम्बी पूछँ.मेरा प्रयास अधिक उतावला होते ही झट सारे उड़ जाते.
पत्तियाँ अब भी झड़ रही हैं.हवा  उन के साथ खेल रही है.आगे आगे पत्तियाँ,पीछे पीछे हवा.
मैं खिड़की से बाहर आकाश में झलकता नीलापन देख रही हूँ .कहीं कहीं बादलों की हल्की सी छटा है.उन्हें देखकर आसमानी रंग की ‘स्कूल ड्रेस ‘याद आती है,उसके ऊपर लहराती सफ़ेद शिफ़ॉन की चुनरियाँ.   ग़ज़ब है मेरे यादों की छवि !
आसमानी रंग ! हमें बचपन में माँ ऐसे ही बताती थीं - आसमानी , स्लेटी,जामुनी बैंगनी,तोतई,फाख्तई,कत्थई,मेंहदी,केलई,सिंदूरी,केसरी,नारंगी,संतरी,गेहुँआ..... यह नाम अब जिव्हा पर नहीं आते पर स्मृति में कौंध जाते हैं.
गेहुँआ से याद आया,पास के गाँवों में फसल कटनी शुरू हो गई है.श्रमिकों के एक वर्ग को कुछ काम मिल गया है .   मेरी तो अपने शहर और आसपास के गाँवों तक ही पहुँच है .सुनने में आरहा है सब ठीक है .कठनाई है ,कड़ाई है  लेकिन भूखा कोई नहीं है .
हम भी ठीक हैं.घर बैठे सब्ज़ी,दूध,राशन मिल जाता है. सफ़ाई कर्मचारी सड़क की सफ़ाई करता है और घरों का कूढ़ा लेजाता है . हमें सुविधा देने वाले कर्मवीरों को नमन !
टी .वी,इंटरनेट पर खूब हलचल है .एक अफ़वाह फैलते ही लोग व्याकुल हो उठते हैं.समाज में बौखलाहट पैदा करके निराशा फैलाना कुछ लोगों का कर्तव्य बन गया है.
कोरोना की विश्वव्यापी आपदा से डरे लोग शान्त नहीं हो पा रहे .हम शान्त हो जाएँ तो कितना अच्छा रहे ! ऐसा होगा -लगता नहीं.
अंदर बाहर चर्चा है कि लॉकडाउन और कोरोना संकट के बाद दुनियाँ बदल जाएगी .राजनीति ,बाज़ार,कार्यशैली में अंतर आएगा.इस समय जो रुका दबा है जाने किस रूप में फूटेगा.एक लावा पता नहीं क्या बहा ले जाएगा.
बदल तो अब भी बहुत कुछ रहा है. नदियों का पानी ,हवा की गुणवत्ता , आकाश का नीलापन ,पक्षियों की गुंजार,पशुओं की चहलक़दमी.
मैं एक साधारण महिला  हूँ राजनीति,अर्थव्यवस्था,समाजशास्त्र की बड़ी बातें नहीं समझ पाती.
बस इतना सोचती हूँ -सब बदल जाए,मेरे देश की ऋतु न बदले.   एकादशी ,द्वादशी,प्रदोष,चतुर्दशी,अमावस्या और फिर पूर्णिमा तक की प्रतीक्षा न बदले .
प्रवृत्ति बदल जाए-प्रकृति का सौंदर्य न बदले !

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