यूक्रेन में मेरे एक मित्र रहते हैं--- श्री राकेश शंकर भारती जी । आप एक युवा और प्रतिभाशाली लेखक-अनुवादक हैं । उनका, किन्नर विमर्श पर पहला कहानी संग्रह आया था ,' इस ज़िन्दगी के उस पार ' । उसके बाद हाल ही में राकेश शंकर भारती जी का एक और उपन्यास आया ' कोठा नं.64 ' ।
उनकी बिटिया को--- बिल्ली का एक बच्चा बहुत पसंद आया और उससे, बिटिया की दोस्ती हो गयी । राकेश भाई चाहते भी थे कि बिल्ली का वह बच्चा ....इस बच्ची को मिल जाए ! मगर माँ तो माँ होती है --- यूक्रेनी हो या भारतीय! सो, उस बच्ची को भी, बिल्ली का वह बच्चा घर लाने की इजाजत नहीं मिली ।
इस पर, मुझे भी अपने बचपन का एक प्रसंग स्मरण हो आया, जब मुझे भी ' एक गधे की औलाद से ' इश्क हो गया था !
वह किस्सा भी कुछ इसी तरह था :-
मैं भी जब छोटा था, तब एक गधे के बच्चे पर दिल आ गया था । वह रोज हमारे परिचित कुंभार के साथ घर के सामने से गुजरता था। मुझे भी, उसके साथ खेलने की अनुमति तो मिल गयी थी... मगर घर में , अपने पास रखने पर सभी का ऐतराज था । उनका तर्क हुआ करता था कि ' यदि मैंने--- इस बच्चे को रख लिया, तो उसकी माँ बहुत रोएगी! .... क्या मैं अपनी माँ को रोते हुए देख सकता हूं .... यदि कोई मुझे रख ले तो ! '
उस समय यही समझाया जाता था कि यदि तुम्हें किसी ने पकड़ लिया, तो तुम अपनी माँ से कैसे मिल पाओगे ? '
यानी, इमोशनल अत्याचार तो सदियों से होता चला आया है । आज भी ' सुनने को मिल जाता है--- कि ' दिल आया गधी पे, तो परी क्या चीज है! ' अरे भाई, यह तो ' दिल दा मामला है ! ' बगैर दिल वाले भला क्या समझेंगे?.... सो, हमारी भावनाओं को भी, तब किसी ने नहीं समझा था ।.... मगर यह और बात है कि उसके बाद--- जिदंगी में बहुत गधों से दोस्ती हुई ... और हमने निभाई भी बहुत शिद्द्त से!... मगर उस ' पहले गधे मित्र को खोने की तक़लीफ ' आज भी बहुत है !
बहरहाल, मैं उस नन्ही परी को बहुत-बहुत हार्दिक शुभाशीष देता हूं और अपने मित्र भाई राकेश शंकर भारती जी से अनुरोध करता हूं कि आप उसे बिल्ली का वह बच्चा दिलवा दें--- इसी से हमारे बच्चे ' दूसरे जीवों से ' प्यार करना सीखते हैं । '
बाकी, जैसी पंचों की राय ! ... हम तो प्रजातांत्रिक ढंग से, बहुमत के साथ हैं!
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