युग के साथ साथ चले ,विष्णु के अवतार भी,
कभी जल समाधि से पधारे,विष्णु लोक धाम को,
तो कभी स्व सृजना को जल निमग्न करके ,लौट गए स्व धाम को।
कभी दास्य भाव भक्ति को स्वीकार किया,
तो कभी सखा भाव भक्ति स्व नाम धन्य किया।
लीला देखो ,विधि के विधान की,
कभी रघुवर तो कभी नटवर नाम किया,
कभी सीता के राम तो कभी राधा के शाम।
कभी अनुशासन की डोरी,तो कहीं ग्वालन की छोरी,
कहीं मर्यादा पुरुषोत्तम तो कभी नटवर नागर,
विष्णु ने रचे सारे कौतुक,करने को मनुष्य को चौकस।
चौसर के दांव से द्रौपदी को उबारा,
उसके स्त्रीत्व को सदा ही संवारा,
सखा भाव से उसके दुखों को निवारा।
कभी अहिल्या,कभी शबरी तो कभी कुब्जाऔर रुकमणि।
नारी की अस्मिता को सदा ही बचाया
कभी नील वर्ण तो कभी श्याम वर्ण,
हर हाल हर समय भक्त की पुकार पर,
तो कभी गज की गुहार पर दौड़ कर चले आए कभी राम तो कभी घनश्याम।
विष्णु ने हर हाल में ,किया धरा का उद्धार चाहे त्रेता या फिर द्वापर।
लौट आओ ,मेरे तारनहार, करो फिर से इस बदरंग धरा का श्रृंगार
लौट आओ मेरे तारनहार।
सूर्य कांत शर्मा
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