"जीवन को अपनी शर्तों पर जीनेवाले विनय श्रीकर"
आज पहली बार वरिष्ठ कवि और पत्रकार विनय श्रीकर से मुलाक़ात हुई | वे इनदिनों मेरे सबसे क़रीबी पड़ोसी हैं जो चिनहट तिराहे के पास क्रिस्टल अपार्टमेंट की 6 ठी मंज़िल पर डी-616 में रहते हैं | 06 जनवरी,1949 को गोरखपुर जनपद के एक गाँव में पैदा हुए विनय श्रीकर का अबतक का पूरा जीवन संघर्षों का पर्याय रहा है | वे एक प्रतिभाशाली कवि एवं पत्रकार हैं | वे एक अच्छे अनुवादक भी हैं | इनदिनों वे जॉन डुई की पुस्तक 'डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन'(Democracy and Education ) का अँग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद कर रहे हैं | उन्होंने कहा कि जॉन डुई बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के गुरु थे | आज पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने साहित्य और राजनीति पर गंभीर बातचीत की एवं अपने जीवन के अनछुए प्रसंगों की चर्चा की | इस अवसर पर मैंने उनको अपनी तीन पुस्तकें (#सामने #से #मेरे,#अब #भी एवं #हमार #गाँव ) भेंट की | सत्तर पार कर चुके,कई रोगों से पीड़ित एवं शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद वे एक युवा की तरह उत्साहित होकर मुझसे बात करते रहे | हमारी उनकी मित्रता सोशल मीडिया के माध्यम से पिछले वर्ष हुई थी | इधर कुछ महीनों से उनसे मोबाइल पर भी बातें होती रही हैं | वे मुझसे बराबर कवि धूमिल की चर्चा करते रहे हैं | वे बताते हैं कि सन् 1975 में जब लखनऊ में ही ब्रेनट्यूमर से पीड़ित कवि धूमिल की चिकित्सा हो रही थी तो वे उनसे प्रतिदिन मिलते थे | उनके पास हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े कई विशिष्ट लोगों के संग-साथ की स्मृतियाँ हैं | उनसे मिलना अपने को कई तरह से अनुभवसंपन्न बनाना भी है | मेरी नज़र में वे अब भी चुके नहीं हैं और सृजनशील बने रहने की कोशिश करते हैं | उनके जीवन का मूलमंत्र या अनुभव का सार है कि 'जीवन को अपनी शर्तों पर जीना चाहिए |' यहाँ प्रस्तुत है उनकी आज की एक ताज़ा कविता ---
#मन #का #गीत
खेल है, तमाशा है
ऊब है, हताशा है
जिह्वा है, होंठ सिये बैठा हूँ
चुल्लू भर क्रोध पिये बैठा हूँ
ढोल है, नगारा है
बमबम का नारा है
धर्म का इशारा है
स्वर्ग का नजारा है
गर्जन है, तर्जन है
कीर्तन है, प्रवचन है
पूजा का प्रहसन है
सोच का विसर्जन है
भजन-भक्ति भारी है
पुण्यकर्म जारी है
राजा जुआरी है
जनता अनारी है
देशभक्ति चौचक है
मेरा मन भौंचक है
थोथे संकल्प किये बैठा हूँ
अर्थहीन जोश लिये बैठा हूँ
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