शनिवार, 10 अप्रैल 2021

कवि राजेश जोशी से मुकेश प्रत्यूष की बातचीत

 प्रिय कवि राजेश जोशी  से बात करना  हमेशा रूचिकर होता है।  बात से बात निकलती चली जाती है।  लगभग दो दशक पूर्व ऐसे  ही एकबार हमने लंबी बातचीत की थीी। टेप रिकार्डर आन था। बाद में यह कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई । पुराने कागजों में आज वह मिला। काफी लंबा है। कुछ अंश,  जो आज भी प्रासंगिक हैं, दे रहा हूं। 

 

हिन्दी का  क्या भविष्य दिखता है आपको?

जब नई अवधारणाएं आती हैं, नए तकनीक आते हैं, समाज में नए परिवर्तन होते हैं तो नए शब्द आते ही हैं। यह भाषा का विस्तार है। हिन्दी के बारे में पवित्रतावादी ढंग से सोचने की आदत को बदलना चाहिए और थेाडा लचीला रुख अपनाना चाहिए। रही बात हिन्दी के भविष्य की तो बाजार के पास हिन्दी केा अपनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। 


आज बाजार की नियामक शक्तियां आम आदमी की चेतना को कुंठित कर रहीं हैं। उसे उसकी वर्गीय चेतना और संघर्ष से दूर ले जा रहीं हैं। ऐसी स्थिति में  एक  रचनाकार होने के नाते आप किस भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं? 

बाजार शब्द बहुत व्यापक है।  हम इसके इस्तेमाल से यह नहीं बता पाते कि हमारा विरोध बाजार से नहीं, नए बाजार से है,  जो हमारा बाजार नहीं है। हमारा बाजार वह जगह थी, जो लेखक के लिए सबसे जरुरी है। कबीर जब विद्रोह करते हैं तो बाजार में करते हैं कबिरा खड़ा बाजार में । विभिन्न जनपदों से आए हुए लोगों के संवादों कर स्थान था, नहीं तो आगरा की मंडी को लेकर नजीर अकबरावादी  तीन-तीन गीत नहीं लिखते। आगरा के बाजार में जब मंदी आई तो उसकी पीड़ा का भाव उनकी नज्मों में भी आया। भारतेन्दु का अंधेर नगरी शुरु ही होता है तो एक बाजार  से फिर वह धीरे-धीरे राजनैतिक रुप लेता है और पूरे अंग्रेजी तंत्र का मजाक उडाता है।  बाजार वह जगत थी जहां प्रतिरोध होता था,  नया विचार शुरु होता था। लोक संगीत में सबसे ज्यादा गीत बाजार को लेकर हैं।बाजार में प्रेम विकसित होता था।आज का बाजार हमारा देशज बाजार नहीं है। इसने हमारे बाजार के स्पेस को खत्म कर दिया है। हम एक तरह के उत्पाद में बदल गए हैं, यह चिन्ता की बात है। 

 

लेकिन इस बाजार ने हमें बहुत सारी सुविधाएं दी हैं। आज का बाजार बिक्रेता नहीं क्रेता का हो गया है?

पर आज के बाजार में बहुत सारी चीजें हमारे काम की नहीं हैं। आज झुग्गियों में टी०वी०, स्कूटर या और भी बहुत सारी चीजें मिल जाएंगी लेकिन शौचालय नहीं मिलेगा। हम जीवन की बुनियादी सुविधाएं - घर, पीने का स्वच्छ पानी नहीं दे पा रहे हैं पर और दूसरी तरह की चीजें दे रहें है। तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा समाज बना रहे हैं या बनाना चाह रहे हैं?


ऐसे में राजेश जोशी की इच्छा कबीर की तरह हाथ में लुकाठी लेकर बाजार में खडा होने की होती है या बाजार में खडा हूं खरीददार नहीं हूं कि तरह तटस्थ रहने की?

तटस्थ मुद्रा में तो कतई नहीं रहना चाहूंगा क्योंकि तटस्थ होकर आप समाज को कुछ नहीं दे पाएंगे। बाजार का विरोध करुंगा लेकिन अंधा विरोध नहीं। 


आपकी काव्य पंक्तियां जनांदोलनों में नारे का काम करती हैं। इन पंक्तियों की तलाश कहां से करते हैं?

ढूंढते क्या हैं, समाज में जिस तरह का आंदोलन होगा, प्रतिरोध की शक्तियां जितनी विकसित होंगी, अन्याय के विरुद्ध एक समाज जितना ज्यादा खडा होगा उतनी ज्यादा आंदोलन की पंक्तियां भी मिलेंगी। मैंने कई  बार ऐसी पंक्तियां भी लिखी जो अन्याय या साम्प्रदायिक दंगों से आहत होने की स्थिति में जनउभार से प्रेरित है। इसलिए वो ऐसी बनी जो ज्यादा से ज्यादा लोंगो से संवाद स्थापित कर सकें।


क्या पढ रहें हैं इनदिनों ?

''सुभाषित रत्नकोश''। इसमें संस्कृत के उन कवियों  की कविताएं संकलित हैं जो मुख्य धारा के नहीं थे। जैसे कालिदास, भास आदि। बहुत सारे अज्ञात कवि  जो नहीं जाने गए या फिर जिनकी कम कविताएं मिलीं, जिनके ग्रंथ नहीं छपे उनको इनमें संकलित किया गया है। ज्यादा बेहतर कवि है।


मुख्य धारा के कवियों से भी बेहतर?

निश्चित इनमें लाईफ (जीवन) ज्यादा है।


फिर वे गौण क्यों हुए ?

जैसी धारा चली होगी उस समय वे उसके साथ नहीं होंगे या फिर उन्होंने उस तरह  से काफी लिखा नहीं होगा। बाद में उनपर  ध्यान गया। संस्कृत में दूसरी परम्परा के जो कवि और  कथाकार हुए है। उनमें से एक का अनुवाद राधावल्लम त्रिपाठी ने किया है वो मिलती है। सागर विश्‍वविद्यालय से छपा है। पढ़ने पर बिल्कुल आधुनिक कविता लगती है।


ऐसा तो इस काल में भी हो रहा है, बहुत सारे कवियों पर ध्यान दिया ही नहीं  जा रहा है। 

होता ही है। ऐसा हर काल में होता है। छायावाद में सिर्फ चार कवि थोडे  ही थे या भक्तिकाल में सिर्फ सूर और तुलसी ही नहीं थे। और भी थे। हमें रामचंद्र शुक्ल का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने औरों का पता दिया।


कवियों के गौण होने में क्या उनके समकालीन आलोचकों  का योगदान नहीं होता?

देखिए, आलोचक कुछ नहीं करता। जो दृश्य  में है आलोचक उसी को देखता है। कुछ कवि तो विड्रा कर जाते हैं या  फिर  वे कुछ अजीब से मोह  में पड़ जाते हैं। क्लासिक होने के लिए उन्हें कुछ अजीब से रास्ते दिखते हैं। क्लासिक कोई इस वजह से नहीं होगा। क्लासिक वही होगा जो समकालीन हो।  कभी-कभी क्या होता है कि कवि कहीं ऐसी जगह  चला जाता हैं  जहां कनवर्सेशन खत्म हो जाते हैं  और वे  फिर जान की नहीं पाते कि क्या धारा चल रही है। वो कुछ अपने ढंग से लिखने लगते हैं या चुप हो जाते हैं।


मुक्तिबोध, शमशेर, केदानाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन को आपने  हिन्दी कविता के पांच तत्व माने  हैं और प्राण तत्व निराला को।  क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आपने अज्ञेय के साथ कुछ अन्याय कर दिया। क्योंकि अज्ञेय के बिना तो  समकालीन हिन्दी कविता की चर्चा पूरी ही नहीं होती। 

नहीं अन्याय नहीं है। कायनात में और भी बहुत सारी चीजे हैं लेकिन मुख्य ये  पांच तत्व ही हैं। मैं ऐसा थेाडे ही कह रहा हूं कि अज्ञेय महत्वपूर्ण नहीं है।  समकालीन काव्य की जो धारा है उसमें वात्सयायन (अज्ञेय) जोड़ते तो है लेकिन एक कवि के रुप में वे मुझे कभी बडे नहीं लगे। वे गद्यकार बहुत अच्छे हैं। 


कहीं आपका वाम तो आपको यह कहने के लिए बाध्य  नहीं कर रहा।

नहीं। बाबा (नागार्जुन) को छोड  दें तो चारों कवि ऐसे हैं जो किसी वाद से उतने ही मुक्त हैं।


कविता हाशिए की चीज हो गई है। कवि जैसे जैसे आम आदमी के करीब होने की कोशिश कर रहा है आम आदमी कविता से उतना ही ज्यादा दूर होता जा रहा है। क्या कारण लगता है इसका? 

कविता से समाज की दूरी अकविता के दौर में बनी थी। अकविता ने मूल्यगत स्तर के साथ-साथ  भाषा और शिल्प  के स्तर पर भी काफी परिवर्तन किए। एक जो  टे्रडिशन बना हुआ था पढने का उसको बहुत देर  तक भटका दिया। लोगों को आज  भी लगता है कि नई कविता लिखी जा रही है। वो प्राब्लम दे रहा है । पर आज की  कविता संप्रेषणीयता के स्तर  काफी सफल है। इससे ज्यादा संप्रेषणीèय कविता कभी नहीं थी। 


लेकिन जिसके लिए किया वही सुनना-पढना नहीं चाहता।

इसके बहुत सारे कारण हैं। मीडिया और हमारे  इजुकेशन सिस्टम जब तक कविता को स्वीकार नहीं कर लेते तब तक अकेला कवि कुछ नहीं कर सकता। हमारे पास जितनी व्यवसायिक पत्रिकाएं थीं, जो बडे दायरे में सर्कुलेट होती थीं  वो सब बंद हो गई। अब इक्का दुक्का अखबार और लघु पत्रिकाएं जिनकी प्रसार संख्या सीमित है, बची हैं। लोकप्रिय माध्यमों का  समाप्त हो जाना एक बडा संकट है।


आप जिस लोकप्रिय माध्यम की बात करते हैं तो जब हमारे कवि कविता में समाज की बात नहीं करते थे। जैसे विद्यापति वो तो शुद्ध दरबारी कवि थे लेकिन उनकी कविताएं आम जानता में तब भी लोकप्रिय थी। आज  भी है। उन्हें तो माध्यम का संकट न तब था न अब  है।

तब एक तो वाचिक परम्परा थी। दूसरे तब समाज बहुत छोटे-छोटे थे, उतनी जटिलताएं नहीं थी, आपधापी नहीं थी। जनपद थे तो  वाचन  से चीजें चली जाती थीं, आज वैसा वाचिक माध्यम नहीं हो सकता। अब यह हो सकता है कि जो संचार माध्यम है वे अपना योगदान दें।   उस परम्परा को लौटाएं ।शुरु के  दिनों में दूरदर्शन  ने यह कार्य किया। हिन्दी के जितने अच्छे कवि थे सबने  उसपर काव्य पाठ  किया सबसे अच्छे का उपन्यासों पर सीरियल बने लेकिन जैसे ही बहुत सारे चैनल आए तो कविता या साहित्य  बाहर हो गया। इस तरह संचार माध्यम कविता, साहित्य और संस्कृति के विकास में कोइ रुचि नहीं दिखा रहे। वे उच्चवर्गीय विलासिता का माध्यम बन गए हैं।


ऐसे में एक कवि या रचनाकार का दायित्व क्या है? 

रचनाकार तो लड़  ही  रहा है। लेकिन उसकी आवाज को प्रसारित करने के लिए कोई माध्यम नहीं है। समाज में एक माध्यम ऐसा जरुर होना चाहिए जो एक सही बात को प्रसारित का सके। पर सब चीजों पर बाजार हावी हो, सब  चीजों को बाजार ने अपने कब्जे में ले  लिया हो तब आप क्या करेंगे?


क्या इसके लिए रचनाकार दोषी नहीं है?

मुझे लगता है कि रचनाकार उतना दोषी नहीं है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से प्रतिरोध की शक्तियों का क्षरण हुआ है जब तक प्रतिरोध की शक्तियां थीं  और दो धुब्रीय समाज था संसार में  तो एक दूसरी आवाज आपको सामानान्तर रुप से सुनाई देती थी, सोवियत संघ के पराभव के तत्काल बाद संसार एक ध्रुवीय हो गया । और दूसरी आवाज के लिए कोई स्पेस नहीं रहा। ये संकट केवल साहित्यिक नहीं है। वह प्रतिरोध की सारी शक्तियों का संकट है। इसमें प्रतिरोध की तमाम शक्तियों का क्षरण हो रहा है।  विचारों  का क्षरण हो गया है। राजनीति में विरोध का कोई मतलब नहीं रह गया है। ऐसा नहीं है कि कवि या साहित्यकार चुप बैठा है। वह लगातार प्रतिरोध कर रहा है। लिख रहा है, बोल रहा है। पर उस आवाज को हम  महसूस नहीं कर  पा रहे हैं।


यही तो मैं कह रहा हूं कि हम जिनकी बात कर रहे हैं वही हमें सुनने को तैयार नहीं। जहां तक पाठकीयता का सवाल है तो अंग्रेजी किताबों की प्रतियों प्रसार संख्या दिनों दिन बढती जा रही है और हिन्दी किताबों की प्रसार संख्या घटती जा रही है।

इसमें बहुत सारी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हैं और काम्पलिकेटेड हैं। पूरा प्रकाशन जगत एक तरह से दिल्ली केन्द्रीत है। दिल्ली में भी वह लगभग व्यापारियों के हाथों में चला गया है।  पहले प्रकाशन जगत से जुड़े हुए लोगों में खास तरह की प्रतिबद्धता थी । कवि-लेखक रहे या लेखन से जुडे लोग इसके कर्ताधर्ता होते थे अब सभी व्यापारी किस्म के लोग  आ गए। आज ऐसा कोई प्रकाशन नहीं ढूंढ सकते जिसकी कोई दृष्टि हो प्रकाशन या साहित्य के बारे में।


आप कहते हैं कि  हिन्दी प्रकाशन व्यवसायिकों के हाथों में है तो व्यवसायी जितना ज्यादा व्यवसाय  करेगा उतना ज्यादा लाभ कमाएगा। फिर प्रतियां कम क्यों होती जा रही है?

वो कम काम करके  ज्यादा लाभ कमाना चाह  रहे हैं।


यह कैसे कह सकते हैं ?

इसलिए कि उनका कोई नेटवर्क नहीं है ब्रिकी का। वो करते क्या है कि तीन सौ प्रतियां छापी उसे तत्काल लाइब्रेरी में भेजा। पहले उत्पादन खर्च का पांच गुणा मूल्य पुस्तकों का रखा जाता था आज पुस्तकों के मूल्य निर्धारण का कोई तर्क नहीं रह गया है। वो बेहद  मंहगी कर दी गई हैं। पाठक का नेटवर्क खड़ा करके कोई बेचना नहीं चाहता क्योंकि उसमें रिटर्न देर से आएगा।


ऐसा क्यों नहीं होता कि लेखक  प्रकाशन इकाई बना कर,जैसा कुछ पूर्ववर्तियों ने किया था, इस समस्या का समाधान  निकल लेते। 

यह सच है कि हिन्दी में वैसे सहकारी प्रकाशन नहीं बने जैसे बंगला में बने, मराठी में बने। यह काम पीपीएच (पीपुल्स पब्लिसिंग हाउस) कर रहा था लेकिन सोवियत संघ के बिखरने के बाद वह भी बिखर गया। 


क्या आपके मन में कभी ऐसा आया कि पुस्तक प्रकाशन और बिक्री, जिसकी चर्चा आप कर रहे हैं, उसका एक नेटवर्क बनाया जाया ?

खूब आया। एक बार हमलोगों ने, जब मैं  प्रगतिशील लेखक संघ में था, शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह छापा।  बहुत ही सस्ता और प्रगतिशील लेखक संघ की इकाइयों द्वारा उसकी बिक्री होती थी। फिर  तीन किताबें हमने और छापीं  पर उसे कन्टीन्यू नहीं कर पाए जैसा कि करना चाहिए। अगर करता तो प्रकाशन का रुप ले लेता। प्रकाशन आज भी उतनी ही बड़ी समस्या बनी हुई जितनी पहले थी बल्कि पहले  कम से कम चार-पांच  बडे पाठक  वर्ग तक जानेवाली  पत्रिकाएं थी। पारिवारिक पत्रिका की जो अवधारणा है वह खत्म हो गई। आज ऐसी कोई परिवारिक पत्रिका नहीं है जो मध्यवर्ग के परिवार में नियमित  रुप से आए और पढी  जाए। अभी जो साहित्यिक पत्रिकाएं है उसे  या तो केवल आप पढेंगे या कोई  कहानी है तो परिवार में लोग उसे पढ़ेंगे लेकिन जो साहित्यिक बहसें हैं  उससे किसी सामान्य मध्यवर्गीय परिवार का कोई लेना देना नहीं होता।


पारिवारिक पत्रिकाओं का समाप्त हो जाना, सम्मेलनों का समाप्त हो जाना, किताबों की बिक्री का कम हो जाना यह सब आखिर हिन्दी में ही क्यों हो रहा है वह भी तब जब हर रचनाकार/पत्रकार आम आदमी के करीब होने उसकी समस्या को सार्वजनिक करने का दावा कर रहा  है।

हिन्दी में  ये काम बडे प्रकाशन गृहों के पास थे उन्हें इसमें लागत के अनुरुप कोई तत्काल लाभ नहीं दिखाई दिया। 


जब बडे प्रकाशन गृह इन कार्यों  मे लग थे तो उन्हें  सेठाश्री संस्थान कहा जाता था और रचनाकारों का एक वर्ग उनके विरुद्ध था। उससे जुडना नहीं चाहता था। और जब सेठों ने उनसे अपने हाथ खींच लिए तो रचनाकारों के उसी वर्ग द्वारा यह कहा जा रहा है कि उनके पोषण के अभाव में यह स्थिति उत्पन हो गई है।

यह सच है कि एक समय में उन  संस्थाओं  का विरोध हुआ था  क्योंकि उनका  चरित्र कुछ गड़बड़  था।  एक खास तरह की चीजें वे  परोस रहे थे। उन्हें जिस तरह के साहित्य को जगह देनी चाहिए थी उसे नहीं दे रहे थे । पर हमारी पूर्ववर्ती  पीढ़ी जो उनका विरोध कर रही थी उसे शायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि वे इसे इस तरह से अपने हाथ खींच लेंगे। 


जो कल तक किसी सत्ता या प्रतिष्ठान से जुडना अपनी नीतियों के विरुद्ध मानते थे लेकिन आज उससे जुडने में ही अपनी भलाई समझते हैं। उनका यह यू टर्न कहीं बेधा क्या आपको?

हम एक अंतर्विरोधी  समाज में रह रहें हैं उसमें विराधोभास तो होंगे। नौकरी करते हैं तो संभव है कि वह कलाकर्म के विपरीत हो, जो जीवन जी रहे हों उसमें संभव है कि कई बार अपनी आत्मा तंग करे तो इस तरह की बात तो हर मनुष्य के साथ है । विरोधाभास को आप जितना ज्यादा डिजाल्व करेंगे, उसको जितना काबू में कर पाएंगे उतना ज्यादा काम कर पाएंगें। 

मैं इसे उनकी मजबूरी के रुप में देखता हूं। यह हम सब की मजबूरी है। एक लेखक के रुप में हम उन पत्रिकाओं को अपनी रचनाएं दे देते हैं जिन्हें प्रकाशन के रुप में हम अच्छा नहीं मानते पर हमारा उद्देश्य होता है पाठकों तक अपनी रचनाएं पहुंचाना। इसलिए रचना और रचना से जुडे समाज को बचाने की जिम्मेदारी हमारी है।  


अर्थात् जब दूसरे करें तो गलत और हम करें तो सही।

नहीं, इसको ऐसे देखें कि विरोध विकल्प की स्थिति में कर रहे थे। 


यानी विकल्पहीनता की स्थिति में उन रास्तों पर जा सकते हैं जिन पर पहले दूसरों को चलने से रोकते थे?

हां। जब खराब और कम खराब स्थितियों में से चुनना हो तो कम खराब को ही बचाना होगा। जैसा भारतीय लोकतंत्र मे हुआ या हो रहा है। जब हमें लगा कि ऐसी पार्टी के शासन में रहने से लोकतांत्रिक प्रणाली ही ध्वस्त हो जाएगी  तो हमने उनका साथ दिया जिनका वर्षों से विरोध कर रहे थे। आपको कहीं-न-कहीं जनतंत्र और  कोई- न- कोई प्लेटफार्म तो बचाए रखना है। 


आप ऐसा मानते है कि इन यू टर्न लिए लोगों की वजह से बाजार में खोटा सिक्का चल रहा है?

हां,  क्योंकि हमारी चाहत उस अर्थव्यवस्था को बचाना है जिसमें सिक्के चलते  हैं। हिन्दी प्रकाशन जगत में आज सचमुच खोटे सिक्के ही बच गए हैं और जो वास्तविक मुद्रा थी चलन से बाहर हो गई।


आपका काव्य लोक क्या लोक  काव्य के करीब है?

लोक आपसे मांग  करे ऐसी स्थिति हिन्दी में बहुत कम है। आपसे यह कहे कि आपको मेरे लिए यह लिखना है, यह करना है ऐसा सघन संवाद हिन्दी में अभी तक नहीं बना है। हां होता यह है कि जब आप अपनी रचना लेकर जाते हैं तो लोक उसे या तो स्वीकृत करता है या अस्वीकृत  करता  है। साहित्यिक समाज से परे के लोग यदि रचना को पसंद करते हैं, चुनते हैं तो खुशी होती है कि जो इनके मन में है उसे लिखा। 


एक तरफ तो आप कहते हैं कि भूलना बहुत जरुरी चीज है और दूसरी ओर स्मृतियों को लेकर कविताएं लिखते हैं। आपकी कविताओं के संदर्भ में अगर हम देखें तो फंतासी आपकी कविता का अनिवार्य अंगसा बनी हुई है। उससे मुक्त क्यों नहीं हो पा रहे हैं आप?

मेरी भी एक सीमा है। आप जब विचार कर रहे होते हैं तो एक रचनाकार से परे होकर विचार करते हैं। मैंने कई तरह की कविताएं लिखी हैं पहले संग्रह में भी अलग-अलग शिल्प और मुहावरों का प्रयोग किया है। एक जैसे नहीं हैं वे। एक कवि के रुप में मैं कितना सफल हूं यह मैं तो नहीं कह सकता।


कवि के  निजी मुहावरे पर आपको संदेह होता है  लेकिन आप भी मुहावरे गढने से बाज नहीं आते। क्या इसलिए कि जैसा कि आप स्वयं भी मानते  है कि मुहावरों सबसे पहले लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं?

एक लम्बे समय से हिन्दी आलोचना में इस बात को बार बार रेखांकित किया गया है कि यह कवि का निजी मुहावरा है। इसका अर्थ यह हुआ कि कवि का  निजी स्टाइल। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि मनुष्य के रुप में आपके बहुत सारे मिजाज होते है। फिर आपका सामना कई प्रकार की ध्वनियों से होता है। तो जाहिर है कि जीवन भर आप एक ही मुहावरे में कविता नहीं लिख सकते। किसी भी बडे कवि को देखिए - निराला  एक तरफ ''राम की शक्तिपूजा'' लिखते हैं तो दूसरी तरफ ''कुकुरमुत्ता''  जैसी कविता लिखते हैं। निराला इसलिए बडे कवि हैं कि उन्होंने अपने समय की असंख्य ध्वनियों को समेटा था। समाज की विविधता के अद्भूत कवि हैं वे। जो प्रसाद (जयशंकर प्रसाद) , पंत (सुमित्रानंदन पंत) या महादेवी वर्मा नहीं हो सके।  इसलिए कवि को मुहावरे तो गढने ही पडते हैं पर हर बार नए। उसे अपनी पहली मूर्ति ढाहनी होती है नई बनाने के पहले।


हिन्दी समाज राजेश जोशी कवि को शुरु से ही प्यार करता है और उसमें अब तक कोई कटौती नहीं हुई है लेकिन फिर भी वह नाराज रहता है और नाराज कवि के नोटस लिखता है। यह नाराजगी किससे है उसे?

मेरी अपनी नाराजगी किसी से नहीं है। बहुत कम लिख कर मैंने बहुत ज्यादा पाया है। इसलिए आलोचना या आलोचक मैं किसी से नाराज नहीं हूं। मेरी नाराजगी का कारण बहुत साफ है कि हिन्दी के अध्यापकों, आलोचकों को जो काम करना चाहिए था वह उन्होंने नहीं किया और हमें आज भी उन आलोचकों से अपेक्षा होती है जो छायावाद के हैं या नई कविता के हैं। हमारी पीढी ने अपने आलोचक पैदा नहीं किए।


क्यों आपकी पीढी के लगभग तमाम कवि स्वयं आलेाचक हैं?

लेकिन वे कवि हैं। 


आपकी कविता को तलाश किस चीज की है?

तलाश तो एक कवि अपनी कविता में बहुत सारी चीजों की करता है। मुझे अपने शहर भोपाल से बहुत प्यार है। सन् 1984 के बाद बाहर के लोगों के लिए भोपाल का अर्थ हो गया है गैस कांड की  जगह। इस तरह आपके शहर - जिसकी गलियां, सडकें, तालाब, संस्कृति जिन्हें आप जानते पहचानते थे उसकी पहचान खत्म हो गई और हीरोशिमा की तरह एक नई पहचान बन गई। पुराने शहर को अपनी कविता में फिर से पाने की कोशिश मैंने 1984 के बाद की कविताओं में लगातार की है। 

दूसरे एक बेहतर मानवीय समाज की तलाश मेरी कविताओं की प्राथमिकता है। 


आपकी पसंद की दस किताबें कौन सी हैं?

दस नहीं ग्यारह - महाभारत, हम्जातोव का मेरा दागिस्तान, एलिस का आश्चर्यलोक (शमशेर बहादुर सिंह द्वारा अनुदित), दास्ताने खोजा नसीरुद्दीन, निराला की कविताएं, दीवाने गालिब, तुलसीदास की विनय पत्रिका, शूद्रक का मृच्कटिकम, हजारीप्रसाद द्विवेदी का अनामदास का पोथा, आजिमो देजाई का द सेटिंग सन और पास्कलदुआर्तो का परिवार अन्तिम वाला इधर जुड गया है। 


आप किस कवि से प्रभावित हैं?

बहुत सारे कवियों से प्रभावित हूं लेकिन मेरे आदर्श निराला हैं । मुझे उनसे बडा कोई कवि नहीं लगता। 


लेकिन निराला के आदर्श तो तुलसीदास हैं फिर तुलसीदास क्यों नहीं?

निराला यह बार-बार कहते तो हैं कि तुलसीदास उनके आदर्श हैं लेकिन सिद्ध नहीं करते । निराला का मिजाज कबीर के ज्यादा करीब का है लेकिन वे उनाक मजाक उडाते हैं। मुझे लगता है कि कवि जो कहता है उसे प्रमाणित करना उसके लिए मुश्किल होता है। 


सोवियत संघ के विघटन के बाद अचानक ऐसा क्या हुआ कि तुलसी के कट्टर आलोचक कवि उनके प्रशंसक हो गए ?

दूसरों के बारे में तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन पुनर्विचार करते समय कई बार हमें ऐसा लगता है कि हमारा विरोध गलत था और दूसरे के प्रभाव में था। तुलसीदास  के साथ यही हुआ। 


आपकी रचनात्मक समस्या क्या है?

उस आदमी की आवाज को अपनी आवाज देना जो समाज के सबसे नीचले तबके का है। 


आपकी पीढी  को अपने  पाठकों का  रुचि परिवर्तन नहीं करना पडा। लोग नई कविता से जुड गए थे।  आपको क्या कभी ऐसा लगा कि कुछ उलट-फेर करना चाहिए?

माध्यम की तलाश तो एक कवि हमेशा करता है। मुझे कविता से संतोष नहीं होता है इसलिए मैंने कई-कई माध्यमों में काम किया। कविता, कहानी, नाटक। इस मामले में एक असंतुष्ट व्यक्ति हूं । कविता के जितने फार्म हैं दुर्भार्ग्य से वे मुझे कभी पूरे नहीं लगे। दुर्भाग्य यह भी है कि जब हमारे कान तैयार हो रहे थे तो छंद जा चुका था। हमारे कानों को छंद का अभयास नहीं मिला। हमने पढ के छंदों को जाना। और पढकर जो छंद जाना जाता है उससे छंद में लिखना मुश्किल है। 

 

लेखन एक सामाजिक कर्म है, जो कवि के निजी जीवन को भी प्रभावित करता है। क्या आपको इससे असुविधा नहीं होती है?

यदि आप साहित्य, नाटक, संगीत कला के किसी भी क्षेत्र में जाते हैं तो तय है कि आपका जीवन वैसा ही नहीं होगा जैसा सामान्य आदमी का। आपका जीवन थोडा भिन्न होगा। क्योंकि आपको अपने कलाकर्म के लिए अतिरिक्त समय देना होगा। तो थोडा परिवर्तन तो होगा ही । इसे मान लीजिए तो असुविधा नहीं होगी।


दुनिया रोज बदल रही है। कुछ प्रदेशों में मिट्टी के चेहरों को नष्ट कर नेपथ्य में हंसने वाले लेाग अब खुले में आ गए हैं। पछले कुछ वर्षो से समाज को बर्बर मध्यकालीन युग की ओर ले जाने की कोशिश की जा रही है। धर्मयुद्ध, जिहाद जैसे शब्द जो प्रायः नहीं सुने जाते थे अब आमफहम हो गए हैं। इन परिस्थितियों एक रचनाकार की क्या भूमिका हो सकती है?

आज हमें ऐसे समाज को बचाने  की जरुरत है, जो समता पर केन्द्रीत हो और जिसमें जाति, वर्ग, वर्ण के भेद, विसंगतियां, विद्रूपताएं कम हों। 

हिंसा कई स्तरों पर होती है। केवल हत्या ही हिंसा नहीं होती है। चायघर में काम करते हुए बच्चे, चकलाघरों में काम करती हुई औरतों को देखें यह भी एक प्रकार की हिंसा है। जिन बच्चों को खेलने-पढने का अधिकार मिलना चाहिए वे काम कर  रहे हैं तो यह ज्यादा बडी हिंसा है। 


क्या लेखक को लिखने तक सीमित रहना चाहिए ?

जब आप रचना में या कला के किसी भी क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों की बात करते हैं या सामाजिक परिवर्तन या समाज को बेहतर बनाने की बात करते हैं तो उन आंदोलनों में भी भाग लेना चाहिए जो इनके लिए हो रहे हैं। यह पारस्परिक रुप से दोनों के लिए लाभदायक है। आंदोलन को बल मिलता है और कलाकार की रचनात्मकता विकसित होती है। फिर रचनाकार को ही क्यों हर चेतस व्यक्ति को सामाजिक जिम्मेवारी के आंदोलनों में हिस्सेदारी करनी चाहिए।


आज का समाज एक झूठ में जीता है। क्या आप भी अपने जीवन में एक झूठ की हिस्सेदारी पाते हैं?

मुझे लगता है कि झूठ में जीना या दो तरह के व्यक्तित्व में रहना यह वर्चस्व की स्थिति में होता है क्योंकि उसी के साथ झूठ बना रह सकता है। जो सामान्य व्यक्ति है उसके पास जीवन की सबसे क्रूर सचाइयां होती हैं। उसकी स्थिति भिन्न होती है। अगर हम साहित्य की दृष्टि से देखें तो यह भेद साफ दिखाई देगा।

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