बुधवार, 7 अप्रैल 2021

हिंदी की पहली कहानी इंदुमती -3

 हिन्दी की प्रथम* कहानी ‘इंदुमती’ का मूल्यपरक अध्ययन

प्रस्तुति -अनामी शरण बबल

देवेन्द्र कुमार

देवेन्द्र कुमार

*सम्पादकीय निवेदन: हिंदी की प्रथम कहानी के विषय में हिंदी के विद्वानों में मतभेद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किशोरीलाल गोस्वामी लिखित 'इंदुमती' (1900 ईस्वी) को हिन्दी की पहली कहानी माना है। किशोरी लाल गोस्वामी कृत 'इन्दुमती' के अतिरिक्त हिंदी की प्रथम कहानी के कुछ अन्य मुख्य दावेदार निम्न हैं:
सैयद इंशाअल्लाह खाँ की 'रानी केतकी की कहानी',
राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 'राजा भोज का सपना',
किशोरी लाल गोस्वामी की 'इन्दुमती' (सन् 1900),
माधवराव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' (सन् 1901)
लेखक परिचय: पण्डित किशोरी लाल गोस्वामी
आपका जन्म सन् 1865 ईसवी में वृंदावन के एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। आपका परिवार निम्बार्क सम्प्रदाय का अनुयायी था। आपके पितामह वृंदावन के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् एवं आचार्य थे। आपके नाना वाराणसी के संस्कृतज्ञ थे। इन्हीं से भारतेन्दु जी ने छन्दशास्त्र सीखा था। किशोरी लाल जी का लालन-पालन और शिक्षण इनके नाना के घर वाराणसी में हुआ। इसी कारण आप भारतेन्दु जी के सम्पर्क में आए। 1898 ईसवी में आपने ‘उपन्यास’ पत्रिका निकाली जिसमें आपके उपन्यास प्रकाशित हुआ करते थे। आप ‘सरस्वती’ के पंचायती सम्पादक मण्डल के सदस्य थे। आपने लगभग 65 उपन्यासों के अतिरिक्त कई कविताएँ और विविध विषयों पर अपनी सिद्धहस्त लेखनी चलाई। ‘इंदुमती’ और ‘गुलबहार’ कहानियों के लेखक गोस्वामी जी को प्रथम कहानीकार होने का श्रेय प्राप्त है। आप अपनी सांसारिक यात्रा पूर्ण कर 66 वर्ष की उम्र (1932 ईसवी) में स्वर्गगामी हुए।

प्रकाशन वर्ष: जून 1900 ईसवी (सरस्वती में)

पात्र-परिचय:
इंदुमती (नायिका), चन्द्रशेखर (नायक), बूढ़ा (इंदुमती का पिता), इब्राहिम लोदी (दिल्ली का शासक)

कथासार:
इंदुमती देवगढ़ के राजा की एकमात्र कन्या है। जब चार वर्ष की थी तब इब्राहिम लोदी ने देवगढ़ पर आक्रमण कर दिया और इसके पिता से इसकी अनिंद्य सुन्दरी माता को मांगा। युद्ध हुआ और इंदुमती की माता ने आत्महत्या कर ली। यवनों ने मारकाट की तथा ये बाप-बेटी किसी प्रकार बचकर वन की शरण में आ गए। तब इंदुमती के पिता ने शपथ ली कि जो कोई भी इब्राहिम का वध करेगा, उसी के साथ इंदुमती का विवाह कर देगा अन्यथा उसे उम्रभर कुमारी रख छोड़ेगा। संयोग से इंदुमती की मुलाकात उसी वन में अजयगढ़ के राजकुमार चन्दशेखर से होती है। चन्द्रशेखर के पिता राजशेखर को इब्राहिम ने विश्वासघात से मार डाला था। इसीलिए चन्द्रशेखर ने उसकी सेना में घुस कर उसका वध कर डाला और जान बचाकर वन में आ छुपा। प्रथम परिचय में ही इनका प्रेम हो जाता है और इंदुमती चन्द्रशेखर को अपनी कुटी में स्थान देने के उद्देश्य से उसे अपने घर लाती है। वहाँ इंदुमती का पिता इसे देखकर क्रोधित होता है (उनकी परीक्षा लेने हेतु) पर बाद में इनके प्रेम को देखकर तथा चन्द्रशेखर की वास्तविकता जानकर इनका विवाह करवा देता है। यह सारा घटनाक्रम बहुत नाटकीय ढ़ंग से वर्णित किया गया है।

कहानी का मूल्यपरक अध्ययन:
इंदुमती कहानी में विविध प्रकार के मूल्यों (जिनमें प्राथमिक अथवा जैविक मूल्य तथा उच्चतर मानवीय मूल्य प्रमुख हैं) का वर्णन मिलता है। स्वरक्षापरक मूल्यों में सबसे पहले जिजीविषा का मूल्य आता है। जीवित रहने की इच्छा तथा प्राणरक्षा का संबंध जिजीविषा से होता है। प्रस्तुत कहानी में वैसे तो सीधे-सीधे इस मूल्य का वर्णन नहीं है परन्तु जहाँ इंदुमती का पिता इन दोनों को एक साथ देख कर क्रोधित होकर इन्हें मारने के लिए तलवार उठाता है तथा ये दोनों (प्रेमवश) एक दूसरे को बचाने का प्रयत्न करते हैं, वहाँ जिजीविषा के मूल्य की प्रतिष्ठा होती है। उदाहरणार्थ- "वह अपने पिता का ऐसा अनूठा क्रोध देख पहले तो बहुत डरी, फिर अपने ही लिए एक युवा बटोही बिचारे का प्राण जाते देख जी कड़ा कर बूढ़े के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रो, गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर युवक के प्राण की भिक्षा मांगने लगी।"1 इसी प्रकार जब इंदुमती का पिता इंदुमती को मारने के लिए तैयार होता है तो चन्द्रशेखर कहता है, "महाशय, इस विचारी का कोई अपराध नहीं है, इसे छोड़ दीजिए, जो कुछ दंड देना हो, वह मुझे दीजिए।"2 इंदुमती भी कहती है, "नहीं! नहीं! इनका कोई दोष नहीं, मैंने बरजोरी इनसे कुठार ले ली थी, इसलिए हे पिता! अपराधिनी मैं हूँ, मुझे दंड दीजिए, इन्हें छोड़ दीजिए।"3 यहाँ एक दूसरे को बचाने के लिए दोनों जिजीविषा का त्याग कर रहे हैं परन्तु इसके मूल में उनका प्रेम है, जो प्रिय के लिए दोनों अपनी जान देने को उद्यत हैं।

स्वरक्षापरक मूल्यों में जिजीविषा के बाद भूख-प्यास के शमन से उत्पन्न मूल्य आते हैं। यह भी प्रकारांतर से जिजीविषा ही है। इंदुमती में भूख-प्यास के मूल्य की ओर संकेत किया गया है। इन्दुमती के पिता दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने हेतु दोनों को पास नहीं आने देता और चन्द्रशेखर को भूखा-प्यासा रखकर परिश्रमपूर्ण कार्य में लगा देता है। इन्दुमती अपने प्रेमी की भूख-प्यास से अवगत है और भूख की तृप्ति के बिना उसकी शिथिलता और प्राणों को संकट में देखकर उसके लिए जल लाती है और आंखों में आँसू भर कर कहती है- "सुनो जी, ठहर जाओ, देखो यह फल और जल लाई हूँ। इसे खा लो...।"4 तथा कहीनी के उत्तराद्र्ध में उसके लिए स्वच्छ जल और फल लाती है "वहाँ जा कर उसने पिता की आज्ञा को मेट कर सड़े-गले फल और गंदले पानी के बदले अच्छे-मीठे फल और सुन्दर साफ पानी युवक को दिया।"5

पेट की भूख-प्यास के अतिरिक्त बुभुक्षापरक मूल्यों में कामतुष्टिपरक मूल्य भी प्राथमिक मूल्यों में स्थान पाते हैं। इंदुमती में यद्यपि कामतुष्टिमूलक मूल्यों के स्पष्ट उदाहरण तो उपलब्ध नहीं होते तथापि इंदुमति और चन्द्रशेखर के प्रथम मिलन को काम के विहित रूप में लिया जा सकता है क्योंकि एक-दूसरे को देख दोनों के मन में काम की प्रथमास्था का उदे्रक होता है जो बाद में प्रेममें परिणत हो जाता है। अजयगढ़ का राजकुमार चन्द्रशेखर जंगल में जब अपूर्व सुन्दरी इन्दुमति को देखता है तो दंग रह जाता है। क्योंकि "ऐसा रंग रूप तो बड़े-बड़े राजाओं के रानिवास में भी दुर्लभ है, सो इस वन में कहाँ से आया। ... दोनों की आँखे रह रह कर चार हो जातीं, जिनसे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था। यों ही परस्पर देखाभाली होते-होते एकाएक इन्दुमति के मन में किसी अपूर्वभाव का उदय हो आया, जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आँखे नीची और मुख लाल हो गया। वह भागना चाहती थी...।"6 निश्चय ही यह कामोद्रेक है और काम का विहित और नैसर्गिक रूप है। इन दोनों प्रेमियों में स्वाभाविक प्रेम और कामोत्पत्ति होती है। दोनों एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते। अपने बूढ़े पिता के लाख समझाने पर पिता को देवता-तुल्य मानने वाली इन्दुमती अपने प्रेमी चन्द्रशेखर से मिलती है। लेखक के अनुसार "वृद्ध ने लौट कर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े में चाँदनी में बैठे बातें कर रहे हैं।"7 निश्चय ही उपयुक्त उदाहरण काम-प्रवृत्ति अथवा काम की भूख का विहित रूप कहा जा सकता है।

‘इंदुमती’ में वैयक्तिक प्रेमके मूल्य को भी अभिव्यक्ति मिली है। जंगल में दोनों की हुई भेंट और इस भेंट से पनपे आकर्षण में प्रेमके बीज विद्यमान हैं। ‘वह भी पड़ा-पड़ा इन्दुमती की ओर निहारने लगा। दोनों की रह-रह कर आंखें चार हो जातीं, जिनसे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था। यों ही परस्पर देखाभाली होते-होते एकाएक इन्दुमती के मन में किसी अपूर्वभाव का उदय हो आया, जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आंखें नीची और मुख लाल हो गया।"8 यह भाव बाद में प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। जब वह चन्द्रशेखर को देख लज्जा के मारे भागने लगी तो उसने उसका रास्ता रोक कर विनय की कि वह उसे इस जंगल से निकलने का मार्ग बताए। इन्दुमती उसे एक रात के लिये आश्रय देने के लिये अपने साथ ले जाती है। कुटी के पास जाकर उसका बूढ़ा बाप आगबबूला होकर चन्द्रशेखर को प्राणदण्ड देने लगा तो वह गिड़गिड़ाकर उसकी प्राण भिक्षा मांगने लगती है- "इसमें युवक का कोई दोष नहीं है, उसे मैं ही कुटी पर ले आई हूँ। यदि इसमें कोई अपराध हुआ हो तो उसका दण्ड मुझे मिलना चाहिये।"9 बूढ़े ने उसे मुआफ तो कर दिया पर बंदी बनाकर बहुत सा काम उसे सौंप दिया और इन्दुमती ने जब युवक को काम करते और पसीने से तर-ब-तर देखा तो आंखों में आँसू भरकर उससे काम छोडऩे की विनय करने लगी। युवक ने भी प्रेम में भरे शब्द कहे, "सुन्दरी मैं सच कहता हूँ कि तुम्हारा मुँह देखने से मुझे इस परिश्रम का कष्ट जरा भी नहीं व्यापता, यदि तुम यों ही मेरे सामने खड़ी रहो तो मैं बिना अन्न-जल पिये सारे संसार के पेड़ काट दूं।"10 इन्दुमती उसके हाथ से कुठार लेकर जब स्वयं पेड़ काटने लगी तो वह बूढ़ा आ गया। दोनों ने किसी तरह उस से प्राण रक्षा की। प्रेम के बन्धन में बंधी इन्दुमती को न तो अपने पिता का डर रह गया था और न ही प्राणों का मोह। तभी तो वह प्रेम के फन्दे में फंस कर अपने पिता की बातों का उलटा व्यवहार करती है। लेखक के अनुसार, "अहा! प्रेम! तू धन्य है!!! जिस इंदुमती ने आज तक देवता की भांति अपने पिता की सेवा की और भूलकर भी कभी उसकी आज्ञा न टाली, आज वह प्रेमके फन्द में फंस कर उसका उलटा बर्ताव करती है। वृद्ध ने लौट कर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े चाँदनी में बैठे बातें कर रहे हैं। ... दोनों नये प्रेमियों ने बातों ही में रात बिता दी।"11 इसी प्रकार वहाँ रहते हुए चन्द्रशेखर ने इन्दुमती को अपनी पत्नी बनाने का संकल्प लिया और आश्वासन भी दिया कि वह सदा उसी से प्रेम करता रहेगा और दूसरी शादी करके उसकी सौत नहीं लाएगा। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। अन्तत: दोनों प्रेमी युगल की शादी हो जाती है।

वैयक्तिक प्रेमके मूल्य के पश्चात् वैयक्तिक गौण मूल्य आते हैं। आगत का सत्कार अर्थात् अतिथि का सत्कार तथा सेवा करना एक वैयक्तिक मूल्य है। भारतीय धर्म साधना में कहा जाता है कि अतिथि देवतुल्य होता है। अत: उसका यथोचित सत्कार होना चाहिए। अजयगढ़ का राजकुमार और अब राजा चन्द्रशेखर इब्राहिम को मार कर जंगल में भटक जाता है। वहाँ उसकी मुलाकात इन्दुमती से होती है। वह उसका परिचय जान कर उससे जंगल से बाहर निकलने का रास्ता पूछता है तथा केवल आज भर के लिए टिकने की जगह मांगता है- "मैं विपत्ति का मारा तीन दिन से इन वन में भटक रहा हूँ, निकलने का मार्ग नहीं पाता। और जो तुम मेरी ही भांति मनुष्य जाति की हो तो में तुम्हारा अतिथि हूँ मुझे केवल आज भर के लिए टिकने की जगह दो।"12

‘इन्दुमती’ अतिथि की सेवा करने के लिए खुद को प्रस्तुत करती हुई कहती है "मैं अपने बूढ़े पिता के साथ इसी घने जंगल के भीतर एक छोटी सी कुटी में, जो एक सुहावनी पहाड़ी की चोटी पर बनी हुई है, रहती हूँ। यदि तुम मेरे अतिथि हुआ चाहते हो तो मेरी कुटी पर चलो, जो कुछ मुझसे बनेगा, कन्दमूल, फल-फूल और जल से तुम्हारी सेवा करूंगी।"13 और वह यथायोग्य सेवा करती भी है।

सामाजिक मूल्यों के अन्तर्गत सर्वप्रथम पारिवारिक अथवा दाम्पत्यगत मूल्य आते हैं। ‘इंदुमती’ में भी आदर्श दाम्पत्य जीवन के मूल्य का निर्वाह किया गया है। इस कहानी की विषय वस्तु चाहे आदर्श दाम्पत्य की भूमिका स्वरूप है, परन्तु दाम्पत्य जीवन के सारे मूल्य- सेवा, त्याग, सहानुभूति, समर्पण, उचित सम्पे्रषण सभी मूल्य इसमें देखने को मिलते हैं। देवगढ़ की राजकन्या इन्दुमती और अजयगढ़ के राजकुमार और अब राजा चन्द्रशेखर की जंगल में मुलाकात हो जाती है। दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते है। इन्दुमती अनिंद्य सुन्दरी है और चन्द्रशेखर पौरुषमय वीर योद्धा। दोनों हृदय से एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार करते हैं। इन्दुमती का बूढ़ा बाप इनकी कठोर परीक्षा लेता है, परन्तु दोनों सफल होते हैं। दोनों एक दूसरे के दुख में अत्यंत दुखी, एक दूसरे के कार्य करने को तत्पर और एक दूसरे के लिए प्राण तक देने को प्रस्तुत है। अत: इन्दुमती का बूढ़ा बाप परस्पर इनके स्नेह, त्याग को देख कर कहता है- "बेटी इन्दुमती धीरज धर और प्रिय वत्स चन्द्रशेखर खेद दूर करो। मैने केवल तुम दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए इस प्रकार का क्रोध का भाव दिखलाया था। यदि तुम दोनों का सच्चा प्रेम न होता तो क्यों एक दूसरे के लिए जान पर खेलकर क्षमा चाहते।"14

विवाह से पूर्व प्रमी युगल के प्रेम की परीक्षा करना भी एक पारिवारिक मूल्य है। प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसकी कन्या का हाथ उसी के हाथ में दिया जाए जो उस के सर्वथा योग्य हो, अत: वह प्रेम की परीक्षा करता है। चंद्रशेखर और इन्दुमती के वैवाहिक सूत्र में बंधने से पहले इन्दुमती के पिता दोनों की कठोर परीक्षा लेते हैं और वे दोनों सफल होते हैं। देवगढ़ के राजा और इन्दुमती के बूढ़े पिता अपने वफादार सैनिकों, सरदारों से इस सम्बन्ध में कहते हैं- "वे दोनों एक दूसरे को जीन जान से चाहने लगे हैं। ... मैंने जो चन्द्रशेखर को देख कर इतना क्रोध प्रकट किया था, उसका आशय यही था कि दोनों में सच्ची प्रीति का अंकुर जमेगा तो दोनों का ब्याह कर दूंगा, और अगर न हुआ तो युवक आप डर के मारे भाग जाएगा। परन्तु यहाँ तो परमेश्वर ने इन्दुमती का भाग्य खोलना था और ऐसा ही हुआ।"15

एक ओर जहाँ पति-पत्नी परस्पर विश्वास, सेवा, त्याग, समर्पण से दाम्पत्य जीवन सफल होता वहीं दाम्पत्य जीवन में, अथवा यूँ कहें कि एक स्त्री के दाम्पत्य जीवन में सौत रूपी विषकीट दाखिल होकर समस्त जीवन नष्ट कर देता है। इसीलिए सौत को दाम्पत्य जीवन के मूल्यों में विघटन का कारण माना गया है। इन्दुमती का पिता इस बात से अत्यंत प्रसन्न है कि अजयगढ़ के राजकुमार चन्द्रशेखर ने इन्दुमती से स्पष्ट कहा है कि वह कभी सौत नहीं लाएगा। इन्दुमती के पिता द्वारा अपने वफादार सैनिकों को कहे गये ये शब्द द्रष्टटव्य हैं- "उसने इन्दुमती से प्रतिज्ञा की है कि प्यारी, मैं तुम्हे प्राण से बढक़र चाहूँगा और दूसरा विवाह भी न करुंगा, जिससे तुम्हे सौत की आग में जलना न पड़े। भाइयों देखो स्त्री के लिए इससे बढ़ कर और कौन बात सुख देने वाली है।"16

जाति व्यवस्था की प्रथा और परम्परा भारतीय समाज की प्राचीनतम प्रथाओं में से है और यह आरंभ से ही भारतीय समज की आधारशिला रही है और आज भी यह किसी न किसी रूप में विद्यमान है। इसके भी शुक्ल और कृष्ण पक्ष हैं। इस व्यवस्था ने जहाँ भारतीय समाज को विपरीत परिस्थितियों और कठिन समय में स्थायित्व दिया वहाँ दूसरी ओर इसी जातीयाभिमान, जो कि अहंकार की सीमा तक चल गया, ने ऊँच-नीच की भावना, कर्मकाण्ड, शोषण और अत्याचार को प्रश्रय दिया।

जातीय मूल्यों में सब से बड़ा मूल्य जातीयाभिमान अथवा अपनी गौरवमयी परम्परा के रक्षण का है। राजपूत राजाओं में यह अभिमान कई बार गलत दिशा भी ग्रहण कर लेता था और परस्पर कलेश, ईष्र्या और संघर्षों-युद्धों का भी कारण बन जाया करता था। ‘इन्दुमती’ में राजपूती शान की हर कीमत पर रक्षा और क्रूर शत्रु राजा से प्रतिशोध के मूल्य को अभिव्यक्ति मिली है। इन्दुमती का पिता देवगढ़ राजधानी वाले राजपुताना प्रदेश का शासक था। जब इन्दुमती चार वर्ष की थी तो पापी इब्राहिम ने देवगढ़ नरेश के सामने यह शर्त रखी कि या तो इन्दुमती की माँ को उसे सौंप दो अथवा युद्ध करो। यह सुनकर देवगढ़ नरेश ने इब्राहिम के दूत को निकलवा दिया और अपनी सीमित शक्ति में भी युद्ध लड़ा और पराजित हुआ। पत्नी रानी ने आत्महत्या की और राजा अपनी बेटी को लेकर जंगलों में चला आया और यवन-कुल-कलंक से बदला लेने की ताक ने रहने लगा। उसने प्रतिज्ञा की कि जो वीर राजपूत इब्राहिम का वध करेगा, वह अपनी लडक़ी इन्दुमती की शादी उससे कर देगा। इस बात को बारह वर्ष होने को आए और अब इन्दुमती सोलह वर्ष की है। इसी बीच पापी इब्राहिम ने अजयगढ़ के राजा राजशेखर को दिल्ली बुलाया और विश्वासघात् से मार डाला। तब से उसके पुत्र चन्द्रशेखर ने यह प्रतिज्ञा की कि वह अवश्य इब्राहिम का वध करेगा। इब्राहिम और बाबर की लड़ाई में चन्द्रशेखर इब्राहिम की सेना में घुस कर इब्राहिम को मार देता है और एक सेनापति द्वारा पहचान लिया जाता है। दोनों में द्वन्द्व युद्ध होता है। चन्द्रशेखर उस सेनानायक को मार कर जंगलों में भटक जाता है और वहाँ उसकी भेंट इन्दुमती से होती है और वह इन्दुमती तथा उसके बूढ़े पिता का अतिथि बनता है। इन्दुमती के पिता को यह समाचार उनके एक विश्वस्त सेनापति द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार शेष औपचारिकता पूरी करने के बाद इन्दुमती की शादी चन्द्रशेखर के साथ हो जाती है। इन्दुमती का बूढ़ा बाप चन्द्रशेखर को कहता है- "अन्त में मैने दु:खी होकर प्रतिज्ञा की कि जो कोई इब्राहिम को मारेगा, उसी से इन्दुमती ब्याही जायेगी। नहीं तो यह जन्म भर कुँवारी ही रहेगी। सो परमेश्वर ने तुम्हारे हृदय में बैठ कर मेरी प्रतिज्ञा पूरी की। अब इन्दुमती तुम्हारी हुई और आज मैं बड़े भारी बोझ को उतार कर आजन्म के लिए हलका हो गया।"17

शरणागत की रक्षा करना तथा स्त्रीजाति की रक्षा करना भी एक उच्चतर जातीय मूल्य है। राजपूत शरणागत तथा स्त्री की रक्षा के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देते हैं और शरणागत के विश्वास को बनाए रखते हैं। ‘इन्दुमती’ में अजयगढ़ के राजकुमार चन्द्रशेखर जंगल में भयभीत और दुविधाग्रस्त इन्दुमती को देख कर उसे अपने बारे में विश्वस्त करता हुआ कहता है- "ठहरो, मेरी बातें सुनो, घबराओ मत। ... क्षत्रिय लोग स्त्रियों की रक्षा करने के सिवाय बुराई नहीं करते।"18

किसी आतताई अथवा कामलिप्सु, क्रूर व्यक्ति के हाथों अपनी इज्जत बचाना तथा इसके लिए जिजीविषा तक का त्याग कर देना भी एक जातीय मूल्य है। इंदुमती की माँ शत्रुओं के हाथों अपने जातीयाभिमान तथा आत्म-सम्मान की रक्षा हेतु प्राण त्याग देती है।

‘इंदुमती’ में राष्ट्रीय अथवा राजनैतिक मूल्यों को भी अभिव्यक्ति मिली है। प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है, अत: राजनीति और बुद्धि के बल पर क्रूर और विश्वासघाती शत्रु का घात करना राजनैतिक मूल्य माना जाता है। चन्द्रशेखर अपने बाप के कातिल इब्राहिम और बाबर के युद्ध में वेश बदल कर इब्राहिम की सेना में घुस गया और इब्राहिम को कत्ल करने में कामयाब हो गया। इन्दुमती के पिता के शब्दों में- "इसके पिता राजशेखर को उसी बेईमान काफिर इब्राहिम लोदी ने दिल्ली में बुला, विश्वासघात् कर मार डाला था। तब से यह लडक़ा इब्राहिम की घात में लगा था। अभी थोड़े दिन हुए जो बाबर और इब्राहिम की लड़ाई हुई है। इसमें चन्द्रशेखर ने भेस बदल और इब्राहिम की सेना में घुसकर उसे मार डाला।"19

‘इंदुमती’ कहानी में शिक्षा के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला गया है। इंदुमती का पिता शिक्षा के महत्त्व को समझता है, अत: वह वन में भी अपनी पुत्री को शिक्षा देता क्योंकि वह जानता है कि लडक़ी के लिए शिक्षा का बहुत महत्त्व है और इसी शिक्षा से ही उसमें सद्गुणों का विकास होगा तथा वह अपना जीवन सुखमय बना सकेगी। इंदुमती के पिता के शब्दानुसार- "बेटा चन्द्रशेखर बारह वर्ष हो गए पर ऐसी सावधानी से मैंने इस लडक़ी का लालन-पालन किया और इसे पढ़ाया लिखाया कि जिसका सुख तुम्हें आप आगे चलकर इसकी सुशीलता से जान पड़ेगा।"20

अत: सिद्ध होता है कि हिन्दी की प्रथम कहानी ‘इंदुमती’ में लगभग सभी प्रमुख मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। दूसरे शब्दों में ‘इंदुमती’ कहानी युगानुरूप मूल्यों और आदर्शों की कसौटी पर खरी उतरती है।

संदर्भ-सूची
1. इन्दुमती - किशोरीलाल गोस्वामी, सरस्वती (पत्रिका), इण्डियन प्रेस प्रा. लि. इलाहाबाद, जून 1900, पृ. 180 2. -वही- पृष्ठ 180
3. -वही- पृष्ठ 180
4. -वही- पृष्ठ 181
5. -वही- पृष्ठ 182
6. -वही- पृष्ठ 179
7. -वही- पृष्ठ 183
8. -वही- पृष्ठ 179
9. -वही- पृष्ठ 180
10. -वही- पृष्ठ 181
11. -वही- पृष्ठ 183
12. -वही- पृष्ठ 179
13. -वही- पृष्ठ 180
14. -वही- पृष्ठ 184
15. -वही- पृष्ठ 183
16. -वही- पृष्ठ 183
17. -वही- पृष्ठ 184-85
18. -वही- पृष्ठ 179
19. -वही- पृष्ठ 182
20. -वही- पृष्ठ 184

एसोसिएट प्रोफेसर, खालसा कॉलेज, गढ़दीवाला (होशियारपुर), पंजाब


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