देवताओं की दुनिया और भूतों के डेरे
/ अरविंद चतुर्वेद
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गांव में देवता तो गिनती के थे जो आज भी हैं, लेकिन हमारे बचपन में भूतों की भरमार थी। ऐसे में सहज ही जान सकते हैं कि देवताओं पर कितना भारी लोड रहा होगा। जहां तक देवस्थान की बात है तो पोखरा किनारे, उसका पानी छूने या पीने की हद तक झुके हुए पीपल के पेड़ के नीचे पुरातात्विक ढंग की कुछ भग्न पाषाण प्रतिमाओं के बीच बैठे थे शंकर भगवान, जिनमें एक पाषाण खंड बिल्कुल हारमोनियम के की-पैड नुमा था।
दूसरी, गांव के बीच में ब्राह्मणों की कुलदेवी चौरी माई, तीसरी जोखू चौकीदार के घर के सामने नीम के पेड़ के नीचे शीतला माता और चौथे, गांव के पूरब बस्ती से हटकर आम के बगीचे के छोर पर निराला की पोखरी के किनारे एक पेड़ के नीचे चेरउआ या चेरो बाबा। एक देवता राजा लाखन भी, जो छौरा वाले रास्ते के दाहिने किनारे पर एक दुबले-पतले अष्टावक्र बेल के पेड़ के नीचे नागफनियों की झाड़ में सालभर लगभग छिपे हुए रहते थे। शंकर भगवान और चौरी माई को रोजाना नहाकर जल और फूल चढ़ाने वालों की कमी नहीं, लेकिन राजा लाखन और चेरउआ बाबा का नसीब ऐसा नहीं है, साल में बस एक बार दीवाली पर पूरा गांव उनके यहां दीया जलाकर थोड़ा जगर-मगर कर आता है। पचास बरस पहले शंकर भगवान एक हादसे की चपेट में भी आए। जिस पीपल के पेड़ के नीचे उनका आसन था, उसपर कुछ कौवे इस ताक में बैठते थे कि कोई शंकर भगवान के पास कुछ होम-हवन करके अक्षत आदि छिड़क कर हटे तो वे अपनी क्षुधा शांत करें। एक बार इसी चक्कर में एक कौवा घी में सने अक्षत से ढके एक जलते कंडे को गफलत में उठाकर उड़ा और जैसे ही उसका चोंच जला तो कंडे को बगल में जदुनंदन बाबा की भूसे से भरी ओसरिया के खपरैल पर उसने टपका दिया। गरमी की दोपहरी में तपते खपरैल पर गिरे कंडे से तेजी से आग लहक उठी और देखते ही देखते एक बड़ा अग्निकांड हो गया। नतीजा यह कि शंकर भगवान से क्षमा मांगते हुए जदुनंदन बाबा ने रमचेल भाई के सहयोग से उन्हें नहर के पुल वाले पीपल के पेड़ के नीचे ले जाकर रखवा दिया। कुछ लोग आज भी वहां उन्हें जल चढ़ा आते हैं और गरमी में पीपल के तने से बंधी जलहरी से एक-एक बूंद टपकता पानी शंकर भगवान पीते हैं। अलबत्ता कुछ साल पहले जब रमचेल भाई के छोटे बेटे रामू चौबे ग्रामप्रधानी के चुनाव में प्रधानपति बने तो उन्होंने शंकर भगवान की पुरानी जगह पर एक चबूतरेदार बढ़िया मंदिर बनवाकर उसमें शिवलिंग की स्थापना कराई। वहां पहले से ही लगाया गया पीपल का पौधा अब एक बड़ा छायादार वृक्ष बन चुका है। इस तरह गांव में शंकर भगवान के स्थान भी नई दिल्ली-पुरानी दिल्ली या मुंबई-नवी मुंबई सरीखे हो गए हैं। अड्डेबाजी दोनों ही जगह होती है। रामू के ही चलते राजा लाखन को भी एक छोटा-सा पक्का चबूतरा मिल गया है।
मगर भूतों का तो कहना ही क्या। दिन देवताओं का था और रात भूतों की। भय की सिहरन भरे रोमांच के वाहक भूतों के अनेक डेरे थे। सुबह होते ही भूत सो जाया करते थे और बिना बिजली-बत्ती वाले, जंगल की गोद में बसे गांव में शाम के झुटपुटे के बाद जैसे ही रात का अंधेरा उतरता था, नींद से उठकर अंगड़ाई लेते हुए वे सक्रिय हो जाते थे। गांव में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जिनका दावा था कि उन्होंने कब, कहां और कैसे भूत के दर्शन किए और किस तरह उनसे बच-बचाकर दबे पांव निकल आए। ऐसे लोगों को हम बच्चे बहुत साहसी, होशियार और सौभाग्यशाली भी मानते थे। आखिर सबकी किस्मत में कहां भूत देखना होता है? बहरहाल, भूतों से तेज भूतों के किस्से चलते थे। एक बात तो यही प्रचलित थी कि भूतों के पांव उल्टे होते हैं। अब जैसे एक बार सोबई चेरो कहीं से आ रहे थे, रात ज्यादा हो गई, दक्खिन वाले ताल के भीटे पर अचानक एक आदमी झाड़ी से निकलकर उनके सामने आ खड़ा हुआ। उनसे उसने बीड़ी मांगी। जैसे ही सोबई ने माचिस से दो बीड़ियां जलाईं तो क्या देखा कि उसके पांव तो उल्टे हैं। उसने दूसरी ओर मुंह फेरकर सोबई की ओर हाथ बढ़ाया, बिना चमड़ी वाली कंकाली उंगलियों में बीड़ी थामी और तेजी से झाड़ियों में गायब हो गया। सोबई पसीने से नहा गए। समझ गए कि उनके साथ धोखा हो गया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बिना पीछे देखे तेज कदमों से चलते हुए घर आ गए। सोबई का कहना था कि अगर उनके बाएं हाथ की उंगली में लोहे की अंगूठी न होती तो उस दिन भूत उन्हें पटककर जान भी ले सकता था। तब कोई-कोई भूत खैनी भी मांगते थे। गनीमत थी कि तबतक गांव में सिगरेट और शराब की आमद नहीं हुई थी, वर्ना क्या पता कि भूत इन चीजों की भी फरमाइश करते। वैसे कभी यह भी नहीं सुना गया कि किसी भूत ने गुड़, बताशे या मिठाइयों की मांग किसी से की हो।
हां, हमारे गांव में संगीतप्रेमी भूतों की भी एक मंडली थी। गांव से दूर पूरब में भाठ के उत्तर कर्मनाशा के जंगल में पेड़ों और झाड़ियों से घिरे एक नाले के मुहाने से पहले एक बहुत विशाल बरगद का पेड़ था। दिन में, खासकर गर्मियों में चरवाहे नदी से पानी पिलाने के बाद अपने मवेशियों को बरगद की छांव में कर लेते थे। उसी बरगद के नीचे देर रात भूतों की महफिल लगती थी। इसका पता तब चला, जब एक बार एक चरवाहे की दुधारू गाय जंगल में भटक गई। शाम तक वह नहीं लौटी तो उसे खोजते चरवाहे का बाप पूरा भाठ छान मारने के बाद नाले के किनारे-किनारे से चलते हुए जब बरगद के करीब पहुंचने वाला था तो उसे पेड़ के नीचे कुछ हलचल-सी मालूम हुई। वह तनिक दूर ही ठिठक कर यह जानने में लग गया कि आखिर माजरा क्या है? उसने देखा कि बरगद के नीचे आग जल रही है और उसके चारो ओर घेरा बनाकर सफेद दाढ़ी वाले कुछ लोग जोगिया भेष में अपनी-अपनी सारंगी बजा रहे हैं। चरवाहे के बाप ने आंखें मलकर ध्यान से देखा, कान लगाकर सुना, लेकिन तभी उसे अचानक खांसी आ गई। इतने में उसने देखा कि एक झटके में बरगद के नीचे जलती आग बुझ गई, सारंगियों का बजना बंद हो गया और अंधेरे में बरगद के पत्ते इस तरह जोर से सरसराने लगे जैसे वहां तेज आंधी आई हो। यह सब देखकर चरवाहे का बाप दबे पांव गांव वापस लौट आया। अगले दिन उसकी गाय वहीं बरगद के पास ही नाले में गिरकर मरी हालत में मिली थी। कहते हैं कि किसी समय जोगियों का एक दल गांव-गांव का फेरा लगाने के बाद कर्मनाशा पार करके जसौली जाने की तैयारी में था, तभी तेज आंधी के साथ पानी बरसने लगा, वे बचने के लिए बरगद की छांव में चले गए लेकिन इसी बीच गड़गड़ाहट के साथ बिजली गिरी और सबके सब उसकी चपेट में मारे गए। उसके बाद से ही बरगद के नीचे रात में सारंगियां बजने लगीं।
यों सबसे दिलचस्प किस्सा जोगिया बरगद से हटकर, पूरब तरफ कर्मनाशा के ऐन किनारे पर खड़े लंबे-ऊंचे गूलर के पेड़ को लेकर है। किसी समय कर्मनाशा के वनों में लंबी पूंछ, काले मुंहवाले लंगूरों की भरमार थी। वे हूप-हूप की आवाज करते, जंगली फल खाते एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक उछलकूद करते, प्यास लगने पर कर्मनाशा का पानी पीते थे। उसी माहौल में एक बार किसी लंगूर के मन में पता नहीं क्या आया कि उसने बकरी के मिमियाते एक मेमने को अपनी बांह में उठाया और एक हाथ से लपककर गूलर के ऊंचे पेड़ पर जा बैठा। लेकिन मेमने को वह देर तक संभाल नहीं पाया। डरा हुआ मेमना मिमियाते हुए लंगूर की पकड़ से छिटककर सीधे कर्मनाशा में गिरा और जरा देर कांपकर मर गया। इस अजीबोगरीब हादसे में मरे मेमने की मे-मे-मे-मे की मिमियाहट गूलर के पेड़ से रह-रहकर सुनाई देने का दावा करने वालों की गांव में कमी नहीं थी। कुछ लोग तो यह भी कहते थे कि गूलर के पेड़ से मिमियाहट की आवाज आने के कारण लंगूरों ने उस पर जाना ही छोड़ दिया। जो भी हो, यह गांव का इकलौता भूत-प्रसंग है जो मनुष्य की दुनिया से बाहर चौपायों की दुनिया में ले जाता है।
वैसे मझले बाबा के अनुसार भूतों की कम से कम तीन श्रेणियां हुआ करती थीं- एक तो वे भूत थे जो निश्चित जगह पर रहते थे। दूसरे वे भूत, जो तबतक चुप रहते थे जबतक कोई उनसे बोलता न हो। तीसरे वे भूत, जो आपके पीछे-पीछे या फिर आपके आगे-आगे एक निश्चित दूरी तक चलते थे। बाबा के मुताबिक सबसे विकट भूत वे होते थे, जो किसी पेड़ पर रहते थे और रात में उस पेड़ को लेकर एक जगह से दूसरी जगह चले जाते थे और रात के तीसरे पहर तक पेड़ के साथ अपनी पुरानी जगह पर लौट जाते थे। बाबा का कहना था कि दक्खिन वाले ताल के पूरबी छोर के नीचे पुजारी के खेत में ठिगने कद का जो बहुत बड़े घेरे में बरगद का पेड़ है, उस पर रहने वाले भूत उसे लेकर किसी दूसरी जगह से आए थे लेकिन उन्हें इतनी गहरी नींद आ गई कि लौटने का समय निकल गया और भोर हो गई। वही बरगद का पेड़ एक बार रातभर हुई घनघोर बारिश में बिना आंधी-अंधड़ के चुपचाप सुबह-सुबह जड़ों से उखड़कर एक तरफ लुढ़का और धराशाई हो गया। उसके गिरने की खबर मिलते ही हम सब बच्चे दौड़ते हुए उसे देखने गए थे। वहां पहले से ही गांववालों की अच्छी-खासी भीड़ जुट गई थी। एक बात और कि भूत चांदनी रात में भी दिख जाते थे। मसलन, एक बार बहुत उजली चांदनी रात में डीह पर लगी अपनी फसल की रखवाली करते हुए पुक्कू उर्फ इस्सर चच्चा ने देखा कि उत्तर तरफ चिरकुट की परती में सफेद कपड़े में झूमते हुए कोई भूत दोनों हाथ हिलाकर उन्हें बुला रहा है। मौसम बड़ा सुहावना था, हल्की-हल्की हवा बह रही थी, फिर भी इस्सर चच्चा पसीना-पसीना हो गए। दिन में देखा गया कि चांदनी रात में जो भूत था, वह दरअसल जंगली बेर की एक झाड़ी थी जिसके पत्तों और टहनियों पर कुछ कीड़ों ने सफेद थूक या रालनुमा कुछ लपेट रखा था और झाड़ी पर मकड़ियों ने बुरी तरह जाले बुन रखे थे।
असल में खेत-जंगल के कामकाज में दिनभर खटने के बाद बिजली विहीन शाम को ढिबरी की धुंधली-कांपती रोशनी में फुरसत की चार घड़ी पाकर जब चार लोग जुटते थे तो जिंदगी की खुरदुरी जमीन से गरम भाप की तरह उठने वाले कल्पना लोक के भूतों के रोमांचक किस्से बड़ी राहत पहुंचाते थे। दूसरे, उस जमाने के हमारे जैसे प्रकृति-उत्पाती बच्चों को नियंत्रित करने में भी भूतों के किस्से अभिभावकों के बड़ा काम आते थे। जो लोग समझते हैं कि कविता-कहानी में फैंटेसी की कला पश्चिम की देन है, उन्हें दिवंगत कवि श्रीकांत वर्मा की यह बात याद रखनी चाहिए कि पतलून ही नहीं, बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें हमसे पहले हमारे पुरखे पलटकर पहन चुके हैं। भूतों के उस्ताद किस्सागो पुरखों के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए, आखिर उड़ान भरने के लिए कुछ पंख उन्होंने भी दिए हैं!
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