शनिवार, 3 अप्रैल 2021

राजस्थान की हिंदी कहानी परंपरा- १ / ● सतीश छिम्पा

 राजस्थान की हिंदी कहानी परंपरा- १ ● सतीश छिम्पा


राजस्थान का कथा साहित्य बहुत समृद्ध है। यहां 'बात साहित्य' की एक उज्ज्वल परंपरा रही है। 'लोक कथाओं' का संसार इतना विस्तृत है कि अगर इन्हें संकलित किया जाए तो विजयदान देथा की 'बातां री फुलवारी' के सभी खंडों से अलग और भी कई खंड प्रकाशित किए जा सकते हैं। इसका प्राचीन, मध्य कालीन, आधुनिक, स्वातन्त्र्योत्तर काल, समकाल- कहने का मतलब है कि हर एक कालखंड में यहां कथाओं का एक अनुपम और समृद्ध भंडार रहा है। वात या बात साहित्य हो या लोक कथाएं। अनगिनत प्रेम कहानियां भी यहां मौजूद रही जिनमे ढोला-मारू, मूमल-महेंद्र, बाघा- भारमली, जलाल-बुबना, केहर-कँवल, उजली-जेठवा, रामू- चनणा, बणी- ठणी (यह चित्रकला के किशनगढ़ स्कूल का विख्यात चित्र भी है।), प्रदेश की सबसे ज्यादा प्रचलित प्रेम कहानी मूमल- महेंद्र अमरकोट (अब पाकिस्तान में) के राजकुमार महेंद्र व लोद्रवा (जैसलमेर) की राजकुमारी मूमल के बीच की है। इस कहानी में महेंद्र नित्य रात्री अमरकोट से लोद्रवा तक एक तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मूमल से मिलने आता था। इसके अलावा 'जलाल-बूबना' प्रेम का दुखांत है।


      हम इसके आरंभिक युग मे ना जाकर अगर उसके बाद के समय की बात करें तो राजस्थान के हिंदी कथा जगत में कुछ जरूरी कथाकारों के नाम सामने आए यथा- ओंकारनाथ दिनकर, शंभुदयाल सेन, यादवेंद्र शर्मा चंद्र, मोहन सिंह सेंगर, रांगेय राघव, सुंदर लाल गर्ग आदि। राजस्थान में हिंदी कहानी कई आंदोलनों से होकर समकाल तक आती है। आदर्शों के सबसे अजीब रूपों को लेकर चलने वाली यह विद्या जब प्रेमचंद तक पहुंचती है तो इसका स्वर धरातलीय होना शुरू होता है। मानव जीवन का यथार्थ कहानी में आना शुरू होता है। इसमे गुलेरी जी की कहानी 'उसने कहा था' भी शामिल है। उस कहानी के लेखन काल से लेकर प्रेमचंद के स्थापित हो जाने के समय तक किसी भी कहानी ने लोक की चेतना और उसके सरोकारों का इतना विराट धरातल प्रस्तुत नही किया था। यही वो काल था जिसमे यथार्थ की इक्का दुक्का किरचें कथाओं में आने लगी थी। आगे जाकर कुछ आंदोलन हुए जिन्होंने कहानी के सभी पक्षों को समृद्ध किया था। 

      नई कहानी, अकहानी, समांतर, सक्रिय कहानी, सहज कहानी, जनवादी कहानी, समकालीन कहानी  आदि कथा आंदोलनों का विशिष्ट, सुदृढ़ और गुणवत्तापूर्ण रूप सन 1985 से 1995 तक के दशक में देखने  मिला जब राष्ट्र स्तर की हिंदी कहानी में औचक ही सृंजय, संजीव, शिवमूर्ति, संजय खाती, रघुनंदन त्रिवेदी, उदयप्रकाश, श्याम जांगिड़, मालचंद तिवाड़ी, सत्यनारायण, प्रियंवद आदि बहुत से युवा कहानीकारों की अद्भुत कहानियों का प्रकाशन शुरू हुआ। ख़ास बात यह है कि अलग अलग गांव, कस्बे, शहरों से आए इन ज्यादातर उस समय के युवा लेखकों को राजेंद्र यादव ने बहुत ही मजबूत मंच 'हंस' के रूप में दिया था। इनमें राजस्थान से रघुनंदन त्रिवेदी, सत्यनारायण, मालचंद तिवाड़ी, श्याम जांगिड़, आनंद संगीत, लवलीन, क्षमा चतुर्वेदी, ईशमधु तलवार, रतन कुमार सांभरिया, यश भाटिया प्रमुख रूप से शामिल थे।

      इन कथाकारों की कहानियों में जो रंग है वे बहुत नए थे (आज भी है।) पुरानी स्थापनाओं से अलग और कुछ बेहतर। यह शाश्वत है कि नया पुराने को खारिज नही करता। कर भी नहीं सकता बल्कि वो उस पुराने की कमियों, गलतियों और भूलों को हटाकर वहां तत्कालीन स्थितियों और उनके प्रभावों को जोड़ता है और उनकी जड़ें मजबूत करते हुए उसके भविष्य की छवि को स्थाई बनाने के काम करता है ताकि लगे कि यह मिलन बिन्दु है जहां पुराने ने नए को जिम्मेदारी पकड़ा दी हो। भीतरी- बाहरी लोक के मूल्यांकन और विपरीत तत्वों की आपसी संवाद की स्थितियों को पैदा करके- स्थापित करने के अद्भुत प्रयास बहुत कारगर साबित हुए। 


        सत्तर और उसके बाद के दशक या समय मे जो हिंदी के रचनाकार राजस्थान से उठे और स्थापित हुए थे उनमें पानू खोलिया, शरद देवड़ा, स्वयं प्रकाश, यादवेंद्र शर्मा चन्द्र, कमर मेवाड़ी, मणि मधुकर, आलमशाह खान, हबीब कैफ़ी आदि बहुत से नाम हैं। राजस्थान के ही रचनाकारों ने एक लंबे समय तक मुख्यधारा के हिंदी साहित्य को गति दी थी जबकि यहां के रचनाकारों को उस तरह से नहीं जाना जाता है जिस तरह से अन्य जगहों के, अपवादों को छोड़कर। क्या आपने कभी गौर किया है कि कंटेंट की शानदार और उच्च स्तरीय उपस्थिति के बाद भी हिंदी आलोचकों ने न केवल राजस्थान के रचनाकरों बल्कि रचनाओ को भी दूसरे दर्जे की समीक्षात्मक टीप में समेट दिया था। मणि मधुकर, शरद देवड़ा, माधव नागदा आदि नाम देखे जा सकते हैं। स्वयं प्रकाश तो बहुत चर्चित हुए थे। आलमशाह खान का नाम फिर भी  आ ही जाता है मगर बेहतरीन होने के बावजूद यथा कदा, भूलवश, जबकि हिंदी के चर्चित और बेहतरीन लेखक - उपन्यासकार हबीब कैफी के रचाव की स्तरीयता अद्भुत है। हबीब कैफ़ी  के अब तक छः उपन्यास, पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके है।

     सन 1970- 71 के बाद से राजस्थान की कहानियां राष्ट्र स्तर की हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार छपने लगीं और उन्होंने पाठकों को आकर्षित भी किया। 'सारिका 'हंस', 'मध्यमा', 'आवेश', 'वातायन'',  'कहानी', 'ज्ञानोदय', 'लहर'', 'अणिमा',  'बिंदु',  'मधमती, सरस्वती, 'उत्कर्ष' आदि अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं में राजस्थान के कथाकार लगातार प्रकाशित होते रहे और इनकी नई शैली और अप्रचलित कथावस्तु की अनेक आधुनिक कथाओं ने लेखक जमात, पाठक, आलोचकों संपादकों और समीक्षकों का ध्यान आकर्षित किया ।  हिन्दी में यह समय कमलेश्वर के नेतृत्व में सारिका के और समांतर पत्रिका के मार्फ़त समांतर कहानी आन्दोलन का था। आलमशाह खान, अशोक आत्रेय और मणि मधुकर विशेषतः उभर कर आए।

      राजस्थान की कथा यात्रा में यहाँ के कथाकारों ने कहानी में घटनाओं के साथ साथ सामाजिक पारिवारिक द्वंद्व के साथ ही भीतरी दुनिया और मानसिक- जद्दोजहद और मन:ग्रंथियों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर भी बहुत सी कहानियां लिखी है। अपनी कला के माध्यम से ही वे सामाजिक बदलाव और उपभोक्तावादी अपसंस्कृतिक समय में मनुष्य जीवन की गरिमा को थापित करने के बेहतरीन प्रयासों से वे कथा के दार्शनिक पक्ष को पुष्ट करते हैं। ये कहानीकार पारिवारिक- सामाजिक, अलगाव, अकेलापन, संत्रास, अवसाद, अकेलेपन, घुटन, कुंठा, जैसे सामाजिक मनोविकारों और वैयक्तिक कमजोरियों आदि के बारे में विद्वता प्रदर्शन की जगह आम जन के लिए रचाव करते हैं। आलमशाह खान राजस्थान के इसी तरह के एक कहानीकार थे जो समाज मे रहकर उसके साथ हथाई करते हुए उसके निजी, राज और बातों का किसी पेशेवर सर्जन की तरह  ऑपरेशन करते थे और फिर उनका समाजशास्त्रीय निचोड़ निकालकर कहानियों के माध्यम से सरेआम करते थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे। विकाश, प्रतियोगिता और पूंजीवाद की चकाचोंध में खो गए एक ऐसे वर्ग के लोगों के जीवन के चित्रकार थे जिनका अस्तित्व, जिनका श्रम और जिनके जीवन के हर हिस्से का धनपति खून चूस लेते हैं। प्रताड़ित जीवन को शब्द देना आम बात नहीं है। आलमशाह सत्तर के दशक के -'समांतर कहानी आंदोलन' के सबसे महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक थे। सन 1974 ई. में कमलेश्वर द्वारा संपादित 'सारिका' पत्रिका में आलमशाह खान की   कहानी 'किराए की कोख' छपी थी। यह इतनी चर्चित हुई कि खान रातों रात चर्चित और विख्यात हो गए। कारण का उस कहानी का व्यापक विरोध। इस कहानी के खिलाफ असंख्य पत्र छपे थे। उनको शारीरिक नुकसान पहुंचाने तक कि कोशिश भी हुई। यहां तक कि उनके खिलाफ लेखकों- पाठकों ने मोर्चा तक खोल लिया था। जाहिर सी बात है कि साहित्य में जिसका ज्यादा विरोध होता है वह ज्यादा चर्चित होता है। 

       सत्तर के दशक के बाद इस मौजूदा अपसांस्कृतिक अवमूल्यों और तथाकथित नैतिकता वाले इस प्रदूषित समय मे मुझे ठोस, व्यापक आधार स्तंभ वाला सांस्कृतिक बल्कि राजनीतिक रूप से भी कोई  प्रतिबद्ध लोकपक्षधर रचनाकार नही मिला- लेकिन वहीं जब  हम दोनों कालों का समांतर रूप में मूल्यांकन के बाद परिवर्तित हुई चीजें और विचार,  तथ्यों आदि पर ध्यान दें तो दो कालखंड और दो स्वर - शरद देवड़ा, स्वयं प्रकाश, आनंद संगीत, रघुनंदन त्रिवेदी, सत्यनारायण और आलमशाह खान के पास जो अकूत संपदा है उसमें 'पत्थर का लैंप पोस्ट', 'नीलकांत का सफ़र', 'लिफ़ाफ़े', 'वह लड़की अभी ज़िंदा है', 'फटी जेब से एक दिन', 'किराए की कोख' और 'पराई प्यास का सफर', आज तक भी स्थापित है। सांस्कृतिक बदलाव के नाम पर इन फासिस्ट्स मानवद्रोही तत्वों के सामने प्रतिरोधक बैरीकेड की मजबूती और सतर्कता से खड़े ये रचनाकार हमेशा नजर आते थे और वही वो बिंदू जो अंतर्द्वंद्व का बहुत महीन, तीखा मगर सघन स्तर, कालांतर में वैचारिक टकराहट के बाद  लोकरंजक्ताओं के माध्यम से स्त्री और पुरुष और उनके अंतरंग मिलन की सर्वोच्च गुण मूल्य के साथ उभर कर स्थापित होता है।

          समांतर कहानी आंदोलन- नई कहानी के मद्धम पड़ने लगे असर को स्थापित करने के लिए और कमलेश्वर ने खुद के लिए भी इस आंदोलन को मजबूत बनाया मगर गहन विश्लेषण के बाद लगता है कि जैसे आलमशाह खान, मणि मधुकर और पानू खोलिया के अलावा तो बच ही नही रहा कुछ भी, जैसे सतही या औसत तो बिल्कुल ही नहीं, गंभीर भिन्नता होते हुए भी लोक चेतना का गहरा और गंभीर वैचारिक धरातल, प्रतिबद्धता और सरोकारों का जुड़ाव, कहानी को उसकी उसी मौलिकता में लेकर आने और साहित्यिक रूपों व धुनों का प्रयोग भी इनके उसी लोक रंजकीयता और सरोकारों के कंसेप्ट के जीवन की जरूरत के अनुसार होता है। यह बहुत ज्यादा सघन और ठहरे भाव अधीन उन्नत रूप में आता है। 

          राजस्थान की कहानियों में इसके बाद सबसे बड़ा और ठोस बदलाव आया। अब यहां की कहानी सोशल कंडक्ट टाइप के खोखले आदर्शवाद और नकली नैतिकतावाद से मिलकर खड़ी की गई झूठे मूल्यों की सामाजिक दीवार को यहां की कहानियां एक- एक करके तोड़ रही थी। यह एक रचनाकार का उत्तरदायित्व भी है कि वो सामाजिक प्रपंच को ध्वस्त करके एक सुंदर संसार और महामानव के निर्माण की कल्पना कर, व्यवहार में ढालने की कोशिश करे। सही बात तो यह है कि ऐसे लेखक ही सच्चे अर्थों में वे सामाजिक सरोकार के रचनाकार होते हैं- इनमे लवलीन, रत्न कुमार सांभरिया, चरण सिंह पथिक, भागचंद गुर्जर, किशोर चौधरी, फतेह सिंह भाटी, कृष्ण आशु, सुरेंद्र सुंदरम प्रमुख है तो समकाल में उमा, दिव्या विजय, रूपा सिंह, माधव राठौड़ आदि मुख्य नाम है। उनकी ज्यादातर कहानियां इसी सामाजिक ताने- बाने से मिलकर बनी होती है। पढ़ने पर सहज ही पता लगता है कि वे समाज की नसों के भीतर उतर कर आत्मालोचना की प्रक्रिया के दौरान कहानी को हासिल करते हैं। साहित्य में मार्क्सवादी सौंदर्यबोध प्रगतिशील लेखन की आत्मा का काम करती है। क्योंकि जब इन कहानियों में संवाद की स्थिति पैदा हो रही होती है तब लेखक का दार्शनिक पक्ष उभर कर आता है। 


राजस्थान के क्लासिकल कथाकार स्मृतिशेष करणीदान जी बारहठ की कहानियों और उपन्यासों ने युवा मन की थाह लेते हुए एक ऐसे संसार का रचाव किया है जो अंधकार और उजास के बीच लटका है। यह यथार्थ का कठोर पक्ष है जिसे वे 'खुरदुरा आदमीं' जैसी रचनाओं में लेकर आते हैं। राजस्थान की कहानी परम्परा में यह नाम महत्वपूर्ण जोड़ है। कोई भी रचना कालजई तभी होती है जब वह अपनी समय सीमा को लांघकर आगे के समय में दखल दे, और उनकी कहानियां यही कुछ करती है। हैरान हूं कि अस्सी के दशक में छपी उनकी कहानियां समकाल की सच्चाई लिए हुए होती है। 


            जनवादी कहानी आंदोलन और बाद में अस्सी के दशक के अंतिम दिनों में कहानियो में जो परिवर्तन आया था उसको समझना और बदलाव को कहानी के सभी पक्षों पर एक साथ लागू करना बहुत टेड़ा काम है। पूंजीवादी अपसांस्कृतिक कलाओं के समानांतर मानवीय जीवन की गरिमा और उज्ज्वलता को स्थापित करना और सामाजिक और राजनीतिक आर्थिक  दवाब से घिरे समाज की विध्वंसात्मक होते हुए भी सकारात्मक परिणीति है। इसी कड़ी में सत्यनारायण की कहानियां जीवन के यथार्थ को बडी गहराई से रूपायित करती है। इसलिए ही उनकी वे रचना जो सामाजिक व्याधियों विसंगतियों के फलस्वरूप आती है लोक में कहीं ज्यादा गहरी उतरती है। 'रामी' हो या 'सितंबर में रात' - वे सर्वहारा और अर्ध सर्वहारा के जीवन संघर्षो के रचनाकार बनकर उभरते हैं। 

       साहित्य वही पूर्णकालिक और श्रेष्ठ होता है जो लोकधर्मी या जनपक्षधर हो। सामाजिक आर्थिक रूप से विशिष्ट होना, असामाजिक होना ही होता है। लोक में तब ही रमा जा सकता है जब लोक से लौकिक होकर मिला जाए, एलीट होना, आपको हाशिए पर ले जाएगा जहां जीवन और जीवन मूल्यों की कोई कीमत नहीं होती। रत्न कुमार सांभरिया ने दमितों के उस जीवन को छूकर देखा है जिसकी उपस्थिति साहित्य को जीवंत बनाती है, मगर जो उपेक्षित और शोषित है। मध्यवर्गीय सचेतनता के कारण बहुधा एक वैचारिक परिप्रेक्ष्य भी मिल पाता है। रतन कुमार सांभरिया जिस हाशिए के इंसान की व्यथा कथा कहने की कोशिश वे 'हुकुम की दुग्गी' या 'काल तथा अन्य कहानियों' में करते हैं- वो सदियों से दबाया और कुचला गया आदमी है। इसी तरह आलम शाह खान की कहानी 'आवाज़ की अरथी’ की छग्गी हो या तोत करते भिखमंगे जीवन के तिलिस्म में उलझे लोग हो । ‘लोहे का खून’ का करीम पूंजीवादी व्यवस्था और दकियानूस समाज के भीतर जिस द्वंद्व को देखने की कोशिश करता है वो अधूरी रह गई इच्छाओं की पीड़ाओं सा सालता है। 'दण्डजीवी'  सामंतवाद के खिलाफ जनवादी प्रवृतियों के विद्रोह और स्थापना की कहानी है। इस कहानी में खान की सामाजिक प्रतिबद्धता और निष्ठा का तो पता लगता ही है- बल्कि मार्क्सवादी सामाजिक थियरी को भी वे स्थापित करते चले जाते हैं। मानवीय कमजोरी, नैसर्गिक घटनाओं और जड़ सत्ता के ढांचे को कुशलता से बनाया और ध्वस्त किया गया है। ‘पंछी करे काम’, 'दंडजीवी’, ‘आवाज़ की अरथी’ और ‘मुरादों भरा दिन’ आदि कहानियो के पात्रों का सामाजिक और मानसिक संघर्ष, द्वंद्व जिस स्तर पर प्रकट होता है वह व्यवस्था से मोहभंग का संकेत हैं। जिन्हें बार बार आलमशाह खान अपनी कहानियों में देते चलते हैं। ‘ सबसे बड़ी बात कि वे सामाजिक विद्रूपताओं को किसी माहिर सर्जक की तरह कैच करते हैं। उनका लौकिक नजरिया भले जिस तरह का हो मगर हर बार वे मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक शैली के साथ समाज को देखते पकड़ते हैं। उनकी कहानी 'मुरादों भरा दिन’ कहानी में मुख्य पात्र सत्तर  जो  अपनी पार्टनर या कहें बीवी  को देहव्यापार के लिए जिस तरीके के द्वंद्व और उलझन के साथ तैयार किया गया है वह बड़ा रंजकताओं की चरम स्थिति है। और फिर उसके अंतर्द्वंद्व का बेहतरीन ब्यौरा, आलमशाह खान के अलावा और कर ही कौन सकता है। वे निश्चय ही हिंदी कहानी की धरोहर समान हैं।

    हम अगर रघुनंदन त्रिवेदी के कहानी संग्रह 'वह लड़की अभी ज़िंदा है'- पर बात करें तो पाएंगे कि उसमे स्त्री पुरुष संबन्धों को सामाजिक मनोविज्ञानिक शैली के साथ प्रकट किया गया है। कहा जा सकता है कि रघुनंदन त्रिवेदी समाज के कुशल चितारे थे। और उनके लोकानुभव से उपजे इस गुण से स्वाभाविक है कि कहानियों में लोक रंजकताओं का होना उनके सौंदर्यबोध के उच्चतम स्तर को दर्शाता है। राजस्थान के ही एक और मुख्य कथाकार हैं हसन जमाल जो पहले हसन जमाल छिम्पा के नाम से लिखा करते थे। वे राजस्थान की उस कथा पीढ़ी से है जो सत्तर के दशक में तूफानी तरह से उभर कर आई थी। वे बेहतरीन लेखक हैं लेकिन उनको निरन्तर उपेक्षित किया गया। अब तक उनके पांच कहानी संग्रह छप चुके हैं। इनकी 'चश्मदीद मुजरिम' बहुत चर्चित कहानी थी।  ''अंश-अंश-दंश, आबगीना, तीसरा सफर, यह फै़सला किसका था, चश्मदीद मुजरिम' उनके संग्रह है। हालांकि यह बात सही है कि उनको लगातार अनदेखा किया गया मगर फिर भी पाठकों के बीच मे चर्चित  है, बस एक संपादक के रूप में हालांकी एक बेहतरीन कथाकार को इस तरह अनदेखा करना अब जैसे आम हो गया हो, बहुत बड़ा अपराध है। 

        एक और जरूरी नाम है जिससे पुरानी पीढ़ी के ज्यादातर लोग वाकिफ़ थे। नई पीढ़ी ने शायद इनका नाम भी नहीं सुना होगा। मैं बात कर रहा हूँ 1960- 1970 (साठोत्तरी कहानी) के बीच राजस्थान से उभरने वाले हिंदी कहानीकारों में शीर्षस्थ 'पानू खोलिया' की। अगर आपने पानू खोलिया को नहीं पढ़ा तो इसका मतलब यही है कि आपने अभी तक बहुत कुछ नहीं पढ़ा है। पानू खोलिया हिमाचल के थे लेकिन उनकी कर्मभूमि राजस्थान के भरतपुर और डीडवाना रही है- यही कारण है कि उनकी कहानियों में इस क्षेत्र का जीवन धड़कता है।

   पानू खोलिया ने ज्यादा नहीं लिखा, मगर जितना भी लिखा, अद्भुत लिखा। उनके दो कहानी संग्रह अन्ना’ (1981 ई.) और दण्डनायक’ (1986 ई.), व दो उपन्यास - सत्तर पार के शिखर (1979  ई.), टूटे हुए सूर्यबिम्ब (1980 ई.), प्रकाशित है। और उनकी अपने समय में सबसे ज्यादा चर्चित और प्रमुख कहानियाँ रूकमन, दण्डनायक, चोर! चोर! गिद्ध, अन्ना, प्रतिचोट, पहली औलाद, औकात, तुम्हारे बच्चे, पेड, रूकमन, इर्द-गिर्द, सुरंग, पनचक्की, एक ही चाहना, एक की रति, शीशकटी, गुनहगार, दुश्मन, रतना, धरणी चाचा आदि है। जिसमे 'रुक्मण', 'सुरंग' और 'पनचक्की" मेरी प्रिय कहानियां है। पिछले वर्ष इनका देहांत हो गया था।


     फ़टी जेब से एक दिन, रामी, सितंबर में रात, रेगिस्तान के इस तरफ आदि कहानियों के रचयिता डॉ. सत्यनारायण ने एक निरंतर चलने वाली संघर्षमय यात्रा की कहानियां लिखी जो उन्होंने समय को श्रोता बनाकर एकालाप में बहुत गहरे उतरकर कही है। दरअसल इस तरह कि कहानियां जो शास्त्रीय विधानों से आजाद होती है या होनी चाहिए। जब भीतर का कुछ अतिभावुकता के साथ श्रंगारिक रूप में या याद बनकर आता है तो उसमें लॉजिकल फ़ैक्टर की गुंजाइश ही नहीं रहती है--  अतिभावुकता के साथ होते हुए भी बहुत बार इसका पल्ला छोड़ते हुए वे किसी और ही भाव या मूल्य को स्वर देने लगते हैं, और इसी एक अनायास आए भाव के कारण इन कहानियों में कृत्रिमता बिल्कुल समाप्त हो जाती है। सत्यनारायण के यहां लेखकीय चालाकी नहीं है- वे इससे भी अनजान है कि किन उपमाओं और बिम्बों के माध्यम से भावों को परोटना है । चिंतन और विचारों को उद्देश्य के सातवें आसमान से उतार कर अपनी हद में बांधकर सत्यनारायण कविता की मुलायमियत और शब्दों की गरिमा सीधे कहानी में उतार लाते हैं और  उनको बनाए रखते हैं। डॉ. सत्यनारायण की सबसे बड़ी खासियत है उलझे हुए भावों को सुलझी हुई भाषा मे लिखना- तब ही तो एक ही सिटिंग बिना ऊबे पढ़ा जा सकता है। संसार मे वे ही कृतियाँ अमर हुई है जिनमे सुख, दुख, पीड़ाएं निहायत निजी होने के बावजूद साझा होती है, सामूहिक होती है, अलग- अलग रूपों में। इसको पढ़ते हुए जाने कौनसा तिलिस्म आपको बांध लेता है और आप बिना उठे, बिना करवट बदले पूरा पढ़ते हैं


नब्बे के दशक में एक और नाम बहुत ठोस रूप में सामने आता है। माधव नागदा- हालांकि ये अस्सी में सक्रिय थे लेकिन नब्बे में इनकी कहानियां और कथाकार जिस फलक पर विस्तार पाता है- वह अद्भुत था। माधव नागदा  अद्भुत कथाकार हैं जो कि राजसमंद के नाथद्धारा शहर में रहते हैं। अपने पेशे से ये व्याख्याता है। माधव जी की लेखन शैली आकर्षक हैं। राजस्थानी ‌और हिन्दी भाषा में ये लिखते हैं व काफी सारी पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं | ‘उसका दर्द’, ‘शाप मुक्ति’, ‘अकाल और खुशबू’, ‘आग’,पहचान, ‘उजास’, और “ठहरा हुआ वक्त” जैसी जोरदार रचनाएं आपने लिखी हैं जो कि अपने आप में बेजोड रचनाएं हैं | 


     रत्न कुमार सांभरिया, लक्ष्मी शर्मा, चरण सिंह पथिक, लवलीन, भगचंद गूजर, कृष्ण आशु, सुरेंद्र सुंदरम, नीरज दइया, उमा, दिव्या विजय, तसनीम, रीना मेनारिया ने राजस्थान की कहानी को एक अलग तरह का सोशल क्रिटिक्स दिया तो वहीं समकाल में उमा, तसनीम खान, दिव्या विजय, तराना परवीन, ख़ालिद, सारिका चौधरी, संगीता सहारण, राजेश कमाल, रीना मेनारिया, माधव राठौड़, महेश कुमार, राजेश कमाल, अरमान नदीम, कुलदीप सिंह भाटी आदि युवा इस परंपरा को आगे लेकर जाते हुए दिखते हैं।


क्रमशः.......

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही उपयोगी आलेख. समकालीन कथा साहित्य में राजस्थानी कथाकारों की रचना प्रक्रिया का विकासोन्मुख विवेचन प्रभावित करता है. आप की दृष्टि अन्वेषण से संपृक्त होकर भी हृदय गत विस्तार लिए हुए उससे, आलेख में आत्मीयता और तटस्थता आई है. आलेख पढ़कर अच्छा लगा. बधाई.

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