शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

एक सफर के राही / सुभाष नीरव

 मित्रो, आज 'निकट' का उपहार अंक (जनवरी-मार्च, 2021) मिला। इसे मेरे कथाकार मित्र श्याम सुन्दर चौधरी ने भेजा। भाई कृष्ण बिहारी (संपादक : निकट) ने भी भेज रखा है, पर 11 मार्च का भेजा अभी तक नहीं मिला। इसमें 12 कहानियाँ हैं जिसमें मेरी एक नई कहानी भी है।

आठ कवियों की कविताएँ हैं, ग़ज़लें और नज़्में हैं, लघुकथाएँ है, उपन्यास अंश है, संस्मरण हैं, साक्षात्कार है, पुस्तक समीक्षाएँ हैं, व्यंग्य हैं। यानी पढ़ने को बहुत कुछ है। 'निकट' में पहले भी कृष्ण बिहारी जी मुझे छापते रहे हैं। मेरा आत्म कथ्य, अनुवाद, लघुकथाएँ आदि। पर एक विशेषांक में कहानी का छपना और वह भी बिलकुल नई कहानी का छपना, कुछ अलग ही आनन्द देता है। 2021 की शुरुआत अच्छी हुई। अभी हाल ही में 'कथारंग' का वार्षिकी मिला जिसमें 67 कहानीकारों की कहानियों में एक मेरी कहानी भी शामिल थी। लघुकथाएँ और कविताएँ तो छपती ही रहती हैं। कहानी का छपना एक अलग प्रकार की खुशी और ऊर्जा से भर देता है। 

 यहाँ निकट में छपी कहानी 'एक सफ़र के राही'  को आपसे साझा कर रहा हूँ क्योंकि बहुत से मित्रों ने पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। तो हाज़िर है कहानी - 


कहानी /  एक सफर के राही  / सुभाष  नीरव 


  सोचते हैं कि शहर को क्यों भागें, जब शहर ही हौले-हौले गाँव में घुसा आ रहा है। फिर यहीं रहकर ही क्यों न कोई कामधंधा किया जाए और चार पैसे कमाएँ।" बिशन सिंह ने थोड़ा टेढ़ा होते हुए कहा। सूरज की टिक्की उसकी आँखों के ठीक सामने जो पड़ रही थी।

 "भई गल्ल तो तेरी ठीक है... गाँवों के लोग तो शहरों को भागे फिरते हैं या बिदेशों को... जब शहर गाँव की ओर आ रहे हैं तो क्यों न यहीं कोई हीला किया जाए। गल्ल तो पंडत की ठीक है...सोलह आने ठीक।" बख्तार सिंह थोड़ी देर मुँह को ऊपर-नीचे करता रहा।

 तभी, हरनामे का बेटा बिट्टू ट्रैक्टर पर चढ़ा गली में से निकला। 

 "चाचा मत्था टेकदां... ।" ट्रैक्टर पर चढ़े-चढ़े ही बिट्टू ने बख्तारे और बिशन सिंह की ओर देखकर ज़ोर से कहा। फिर न जाने उसके मन में क्या आया, वह ट्रैक्टर बन्द करके नीचे उतरा और चारपाई के पास आ खड़ा हुआ। 

 "होर किदां...? बिट्टू ने दीवार के साथ बने छोटे से थंभ पर उनके पास ही बैठते हुए पूछा।

 "तू सुना बिट्टू... किधर की सवारी?" बख्तारे ने पूछा।

 "तेल डलवाने जा रहा था, चाचा। लम्बे सफ़र की तैयारी है।" बिट्टू ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।

 "किधर की तैयारी?" बख्तार और बिशन जैसे दोनों ही एक साथ बोल पड़े।

 "फौजां चलीआं दिल्ली नूँ...। कल पिंड(गांव) से ट्राली भर कर के जाएगी। आज ट्राली पर तिरपालें कस दीं।"

 "अच्छा...अच्छा, दिल्ली बाडर पे चढ़ाई! बल्ले ओए शेरा!"

 "तुसीं चलणा तां दस्सो...।"

 "हम तो अब बेज़मीन जट्ट हो गए बिट्टू। वहाँ तो ज़मीनों वाले जट्ट ही जा रहे।" बिशन सिंह ने कहा।

 "चाचा, तुमने अपनी ज़मीनें बेटों के लेखे लगा दीं, वे आगे बेच बाचकर शहरों में चले गए...बाहर के मुल्कों में चले गए। पर चाचा, जिनके पास ज़मीनें हैं, वो भी हमारे ही भाई हैं। उनकी ज़मीनें तो अंबानियों-अडानियों से बचा लें। अपणे जट्ट भाइयों के साथ खड़ा होणा अज वक्त दी मंग है।" बिट्टू अच्छा-पढ़ा लिखा नौजवान था। पढ़-लिख कर नौकरी करने की बजाय उसने खेती करने को तरजीह दी। उसका छोटा भाई लक्खा भी उसके साथ ही खेती करता है। बाप-बेटों ने अपनी ज़मीन तब भी न बेची, जब किसी सेठ ने अच्छी खासी रकम देकर गाँव के कुछ खेत अपने नाम लिखवा लिए थे और वहाँ उसने अपने फार्म हाउस बना लिए । बिट्टू-लक्खा अड़ गए। उन्होंने कहा, "हमें नहीं बेचनी अपनी धरत। ये हमारी दादों-परदादों की निशानी है। इस मिट्टी ने हमें बहुत कुछ दिया है। ये है तो हम हैं। हम इसे पराये हाथों में कुछ पैसों के लालच में क्यों दें? हम खुद इसमें पसीना बहाएँगे।"

 "बिट्टू बेटा, तुझे क्या लगता है, सरकार किसानों की मांग मान लेगी?" बिशन सिंह ने सवाल किया।

 "चाचा, हकों के लिए लड़ना पड़ता है, आवाज़ तो उठानी ही पड़ती है। हमें इस वक्त संघर्ष कर रहे किसानों के साथ खड़ना है चाचा। कोई लड़ रहा हो और उसके साथ चार बन्दे खड़े हो जाएँ तो लड़ने वाले का हौसला बढ़ता है। उसे लगता है कि कोई उसके साथ है।"

 "पीछे तुम्हारे खेत-पशु कौन देखेगा?" बख्तारे ने पूछा।

 "लक्खा और उसका परिवार। कुछ दिन बाद मैं आ जाऊँगा, तो लक्खा जाएगा गांव से कुछ और लोगों को लेकर।"

 "ये सब अपनी मरज़ी से जा रहे हैं या...?" बिशन सिंह ने पूछा।

 "हाँ चाचा, हमने तो बस एक बार पूछा और सब तैयार हो गए। बुजुर्ग औरतें और मर्द भी जा रहे हैं। कहते हैं, जो हमारे लिए लड़ रहे हैं, और कुछ नहीं तो हम उनकी सेवा ही कर लेंगे...। लंगर का कोई न कोई काम संभाल लेंगे। साफ़-सफ़ाई ही कर दिया करेंगे। हम गुरद्वारों में जाकर भी कारसेवा करते ही हैं, घर-बार छोड़कर… वहाँ अपने अन्नदाताओं के लिए करेंगे।"

 "कल कितने बजे निकल रहे हो?" बख्तारे ने पूछा।

 "चाचा, दस बजे नाश्ता-पानी छक्क के निकलेंगे। चलना हो तो आ जाना। अच्छा, मैं चलता हूँ।" कहकर बिट्टू चला गया।

 

 बख्तार सिंह और बिशन सिंह उसके जाने के बाद कुछ देर खामोश बैठे रहे। 

 तभी अंदर से बख्तारे की पोती बाहर आई और उसके कान में कुछ कहने लगी। बिशन सिंह समझ गया कि वह क्या कह रही थी। वह चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और पैरों में जूती फंसाता बोला-

  "अच्छा बख्तारे, मैं चलता हूँ अब। देख, धूप यहाँ से भी छलांग लगाकर कोठे पर चढ़ गई...दुपहर की रोटी का वक्त हो चला।"

 "फिर क्या सोचा?" बख्तारे ने कुछ इस तरह कहा, ठहरी हुई आवाज़ में कि बिशन सिंह के पैर जहाँ के तहाँ जम से गए।

 "किस बारे में?" 

 "हम आज ज़मीनों वाले नहीं रहे, तो क्या हुआ, पर हैं तो जट्ट ही... मुझे लगता है, ये मसला अब सिर्फ़ जट्टों का ही नहीं रहा, यह उनका भी है जो बेज़मीन हो गए। उनका भी जिन्हें खेती बाड़ी से कोई वास्ता नहीं। मसला तो अब एक साथ खड़े होने का है, आवाज़ बनने का है।... मैं कल तैयार रहूँगा। तुझे चलना हो तो आ जाना। साथ चलेंगे। यहाँ भी तो बेटे हमें निट्ठलों का तमगा देते हैं।"

 कहता हुआ बख्तार सिंह भी चारपाई से उठा और घर के अंदर जाने को हुआ।

 बिशन सिंह सोचता हुआ अपनी गली की ओर मुड़ गया, ‘चलूँ, चलकर चार लीड़े मैं भी थैले में रख लूँ। साथ ले जाने के लिए।' 

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