राहुल सांकृत्यायन के जीवन और कृतित्व को सर्वांगीण रूप में प्रस्तुत करना कभी सरल नहीं रहा, आज तो कदापि नहीं जब उनका लिखा पढ़ने और गुनने वालों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है।
राहुलजी को गति प्रिय था, ठहराव सर्वथा अप्रिय। वे घंटों का काम मिनटों में पूरा कर लेते थे और मिनटों का काम सेकेण्डों में। यदि उनके पूरे जीवन पर विचार करें तो गतिशीलता उनका प्रमुख गुण बनकर उभरता है। वे जीवनपर्यंत यायावर रहे। एक स्थान से दूसरे स्थान, एक देश से दूसरे देश, एक महादेश से दूसरे महादेश की यात्रा करते रहे। उन्होंने केवल भौगोलिक यात्राएं ही नहीं की। राहुल सांकृत्यायन की यात्राएं जितनी भौगोलिक थीं उससे कहीं ज्यादा मानसिक, वैचारिक, भाषिक और अनुभूतिजन्य थीं। उन्होंने अपने विचार बदले, वस्त्र बदले, और तो और नाम और परिवार भी बदले। विचार को सर पर उठाये रहने के हामी राहुलजी नहीं थे। यही वजह है कि वे संन्यासी बने फिर संन्यास छोड़कर आर्य समाज के प्रचारक बने, उसे भी त्यागकर बौद्ध भिक्षु बने और अंततः साम्यवाद के प्रबल पैरोकार बने। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि देश के जन-जन की बेहतरी साम्यवादी दृष्टि में ही निहित है।
राहुल सांकृत्यायन की परिवर्तनशीलता और गतिशीलता के पीछे उनकी ज्ञानपिपासा और उनके मनोजगत में चलने वाले गहन आंदोलन हैं जो सतत रूप से सक्रिय हैं और उन्हें कहीं संतुष्ट नहीं होने देते और बार-बार नये और बेहतर की तलाश में आगे बढ़ने, नूतन को आजमाने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके धर्म, संप्रदाय और पंथ बदलने के पीछे भी वही वैचारिक उद्वेग है जो स्थान, देश और नित नवीन भाषा जानने की उत्कंठा के पीछे है।
ज्ञान पिपासु राहुल का अध्ययन एक विषय तक सीमित नहीं था। वे इतिहास और पुरातत्व के उतने ही बड़े विद्वान थे जितने कि राजनीति और समाजशास्त्र के, दर्शन और विज्ञान के अथवा धर्म और संस्कृति के। उन्होंने इन सब विषयों पर पुस्तकें लिखीं। यही नहीं उन्होंने अनेक यात्रा-वृतांत भी लिखे। ‘मेरी जीवन यात्रा’ नाम से आत्मकथा लिखी और आलोचना और साहित्य का इतिहास भी रचा। गुणाकर मुले के शब्दों में, यात्राओं से उन्हें बल मिलता था, स्फूर्ति मिलती थी, लेकिन वे शौकिया यायावर नहीं थे। उनकी यात्राएं सोद्देश्य होती थीं। उनका जो विपुल साहित्य है उसकी एक बड़ी वजह उनकी यायावरी से मिलने वाली ऊर्जा है। यात्राओं से अर्जित ज्ञान, अनुभव और इस दौरान किए गए अलग-अलग साहित्य के अध्ययन ने उन्हें विचार समृद्ध, ज्ञान समृद्ध और अनुभव समृद्ध बनाया। राहुलजी की लिखी पुस्तकों की संख्या 140 के आस-पास है जिनमें से 20 पुस्तकें तो सीधे-सीधे उनकी यात्राओं के बारे में हैं। इनमें से एक किताब का नाम ही ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ है। 5 भागों में प्रकाशित आत्मकथा को भी उन्होंने ‘मेरी जीवन यात्रा’ शीर्षक देना पसंद किया। उन्होंने लगभग समूचे एशिया की पैदल यात्रा की। 70 साल की आयु में इतना विपुल साहित्य रच लेने तथा इतनी वैचारिक और भौतिक यात्राएं कर लेने वाला शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति हिंदी साहित्य में हुआ हो।
उपन्यासकार के रूप में राहुलजी की ख्याति उनके ऐतिहासिक उपन्यासों के कारण है, जिनके नाम हैं- ‘सिंह सेनापति’, ‘जय यौधेय’, ‘मधुर स्वप्न’, और ‘विस्मृत यात्री’। इनमें विशेष उल्लेखनीय तो पहले दो उपन्यास हैं। ‘सिंह सेनापति’ में लिच्छवी गण के संघर्ष का चित्रण है और ‘जय यौधेय’ में यौधेय गण का। पहले उपन्यास के अंत में लेखक ने सिंह सेनापति और तथागत के परस्पर विचार-विनिमय द्वारा बौद्धमत और मार्क्सवाद की समानता पर बल दिया है। राहुलजी की राय में मार्क्सवाद आज की परिस्थिति में बौद्धमत का ही रूपांतर है। दूसरा उपन्यास भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के जीवन-दर्शन पर आधारित है। लेकिन उनका सबसे अद्भुत उपन्यास ’बाइसवीं सदी’ है जिसका रचनाकाल 1918 है लेकिन यह प्रकाशित 1923 में हो पाया। उन दिनों राहुलजी हजारीबाग जेल में थे। इस उपन्यास की कथावस्तु 200 साल आगे की है। 200 साल आगे के जनजीवन की संकल्पना करते हुए इस उपन्यास में राहुलजी लिखते हैं “अब बिजली का उपयोग अधिक होने से कोयले की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं रही। बिजली तैयार होती है नदियों के जलप्रपात से। यह रेल भी उसी बिजली से चलाई जाती है। फिर उसी से हमारी मोटरें चल रही हैं”। (पृष्ठ 15)। इसी उपन्यास में अन्यत्र ‘सेबग्राम का बाग’ शीर्षक अध्याय में वे कहते हैं कि सेबग्राम में तीन वर्ष के बच्चे ही विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं और बीस वर्ष की उम्र में शिक्षा समाप्त कर जीविकोपार्जन के लिए बाहर चले जाते हैं जिनमें से बहुत कम वापस लौटते हैं। उनका भविष्य कथन आज उपन्यास के रचनाकाल के 100 साल बाद ही फलित हो रहा है। रेलगाड़ियां आज बिजली से चलती हैं, कारें भी बिजली से चलने लगी हैं और इनमें आगे तेजी आने की संभावना है। पर्यावरण को कोयले से होने वाले नुकसान के कारण के उपयोग को निरंतर हतोत्साहित किया जा रहा है तथा शिक्षण और अध्ययन के क्षेत्र में लंबे समय तक अध्ययनरत रहने, ‘शिक्षा’ की बजाय ‘ज्ञान प्राप्ति’ की प्रवृत्ति कम हो रही है और जल्दी से जल्दी काम चलाऊ और रोजगारपरक शिक्षा प्राप्त कर आजीविका वाले काम-काज शुरू कर देने की ओर रुझान बढ़ा है। कृषि आधारित ग्रामीण व्यवस्था निरंतर कमजोर पड़ती जा रही है और शिक्षा प्राप्ति के लिए गांव से बाहर निकले बच्चे पढ़-लिख लेने के बाद अपवादस्वरूप ही जीविकोपार्जन के लिए गांव का रुख करते हैं।
आज राहुलजी की 125वीं जयंती के अवसर पर उन्हें याद करते हुए यह पीड़ा भी घनीभूत हो रही है कि उनके बताए रास्ते पर चलने की बात तो दूर, उनके साहित्य को पढ़ने और मनन करने वालों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है। (‘आजकल’, अप्रैल 2018 अंक का संपादकीय – प्रसंगवश से)
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