बुधवार, 14 अप्रैल 2021

सुनील सक्सेना की तीन रचनाएँ

कहानी / रंग दी कोरी चुनरिया / सुनील सक्‍सेना


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“मां मैंने आपको फोन पर पहले ही कह दिया था कि इस बार होली पर अनरसे आप मेरे आने के बाद ही बनाना । मुझे सीखना है, आप कैसे बनाती हैं ? मैंने एकाध बार कोशिश भी की पर हमेशा बिगड़ जाते हैं ।  कोई स्‍वाद ही नहीं आता… क्‍या भाभी आपने भी मां को नहीं रोका… ।” शादी के बाद सुमन की मायके में पहली होली है । पतिदेव को अनरसे बेहद पसंद हैं । सुमन ने वादा किया था कि इस बार होली पर मां से लज्‍जतदार अनरसे का सीक्रेट पता करके ही आएगी । अब गई बात अगली होली तक ।

सुमन जानती है कि मां सिर्फ होली पर ही अनरसे बनाती हैं । विक्रम भैया तो अनरसे के दीवाने थे । फौज में थे । अक्‍सर छुट्टियों की प्‍लानिंग वो ऐसी करते थे कि होली का त्‍योहार  घर पर सबके साथ मिलकर सेलीब्रेट करें । वो होली का ही दिन था, जब हेडक्‍वार्टर से विक्रम भैया की शहादत की खबर आई थी । घाटी में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो गए थे । किसी तेज भूकंप की तरह बुरी तरह से तहस-नहस हो गया था हमारा परिवार । भाभी प्रेगनेंट थीं । पापा को दिल का दौरा पड़ा । इस सदमें से मां आज तक उबर नहीं सकी हैं ।


बीते चार साल से मां हर होली पर अनरसे बनाती है । डिब्‍बे में अनरसे पेक कर के भाभी को इस हिदायत के साथ सुपुर्द करती हैं कि डिब्‍बा तभी खोलें जब विक्रम आएगा । मां किसी को डिब्‍बा छूने तक नहीं देती । अनरसों पर फफूड़ी जम जाती है । पापा कुछ दिनों बाद चुपचाप डिब्‍बे से अनरसे निकालकर बगीचे में फेंककर उस पर मिट्टी डाल देते हैं, ताकि मां की नजर न पड़े ।


“किसके लिए बनाती हो तुम ये सब…? विक्रम को मरे हुए चार साल हो गये हैं । वो अब कभी नहीं आयेगा तुम्‍हारे अनरसे खाने के लिए ।” पापा मां को समझाते हैं,  लेकिन मां इस सच को स्‍वीकार ने के लिए तैयार नहीं है कि विक्रम भैया अब इस दुनिया में नहीं हैं । मां को आज भी लगता है विक्रम भैया वर्दी पहने घर आयेंगे और सीधे किचन में अनरसे के डिब्‍बे पर टूट पड़ेंगे बिल्‍कुल वैसे ही जैसे वे दुश्‍मन पर टूट पड़ते थे ।


“मां आपने भाभी के बारे में कुछ सोचा ? आखिर कब तक आप उन्‍हें इस तरह घर में रखेंगी ? अभी तो आप और पापा जिंदा है । आप दोनों के जाने के बाद भाभी का क्‍या होगा, कभी सोचा है आपने  ? भाभी की उम्र ही क्‍या है । कल को आशु बड़ा होगा । उसकी पढ़ाई लिखाई,  उसका भविष्‍य कौन देखेगा ये सब ? लंबी जिंदगी पड़ी है भाभी के सामने । अकेले जीवन बिताया तो जा सकता है जीवन जिया नहीं जा सकता मां ।”  सुमन भाभी की दूसरी शादी की बात न जाने कितनी बार दोहरा चुकी है, पर मां को विक्रम भैया का प्रतिरूप आशु में  दिखता है  । प्राण बसते हैं मां के आशु में । आंख की पुतली है आशु मां के लिए ।  भाभी और आशु को वो किसी भी कीमत पर अपने से जुदा नहीं करेंगी ।  


“किससे करवा दें शादी ? शादी के दिन से ही बिरादरी में बेचारी अभागिन होने का कलंक ढो रही है । क्‍या राह चलते किसी भी लड़के से बांध दूं अपनी बहू को ? कौन करेगा शादी ? तुम ही बताओ ?” मां ने पहली बार भाभी के पुर्नविवाह को लेकर मन में बंधी गिरह को खोला । 


                 “राहुल …”  सुमन ने तपाक से कहा ।


राहुल और विक्रम बचपन के  जिगरी दोस्‍त थे । विक्रम और राहुल के घरों की दीवारें एक दूसरे से लगी हुई थीं । दोनों की खूब छनती थी । बरसों लंगोटी में फाग खेली थी दोनों ने ।  विक्रम का राहुल के साथ उठना बैठना मां को पसंद नहीं था । विक्रम मेधावी था । राहुल पढ़ने-लिखने में कमजोर,  लेकिन मेहनती था । राहुल के पिता की किराने की छोटी सी दुकान है । घर किराने की आमदानी से चलता है ।


“राहुल…!  होश में तो हो तुम सुमन ? क्‍या कह रही हो ? वो हमारी जाति का नहीं है तुम अच्‍छी तरह से जानती हो । भला उससे हमारे  खानदान का क्‍या मेल ?” राहुल का प्रस्‍ताव मां की कल्‍पना से परे था ।


“किसकी जाति की बात कर रही हैं मां ?  आप वो दिन भूल गई जब विक्रम भैया की ऐन  शादी वाले दिन अचानक तबियत खराब हो गई थी । सारे शरीर पर दाने हो गए । स्‍मॉल पॉक्‍स । तेज बुखार  । विक्रम भैया दो कदम चलने की हालत में नहीं थे । बारात निकलने की तैयारी हो गई थी ।  क्‍या होगा ?  घर मेहमानों से भरा था । शादी टाली नहीं जा सकती थी । हमारे रिश्‍तेदारों में से कोई भी अपने लड़कों  को भैया कि पगड़ी-सेहरा लेकर भाभी के घर तक बरात लेकर जाने को तैयार नहीं था । सब भाभी के ग्रहों को दोष दे रहे थे । अपशकुनी, अभागिन और न जाने क्‍या-क्‍या कहा लोगों ने भाभी को । तब ये राहुल का परिवार ही था मां जिसने हमारी संकट की घड़ी में मदद की । राहुल ही था जो विक्रम भैया की पगड़ी-सेहरे को थाल में रखकर दूल्‍हे के सांकेतिक रूप में,  भाभी के घर गया था । उस ही की वजह से हमारे घर में भैया की शादी की रस्‍में पूरी हों सकीं । क्‍या बुराई है राहुल में ? विक्रम भैया के जाने के बाद आप लोगों की हर परेशानी में राहुल एक पैर पर खड़ा रहता है । सज्‍जन है । ईमानदारी से गुजारे लायक कमा ही लेता है । भाभी और आशु को खुश रखेगा मां ।” सुमन के मन की बात का बांध टूट गया ।


“सुमन ठीक कह रही है… राहुल और उसके घरवालों को हम बरसों से अच्‍छी तरह जानते पहचानते हैं । अच्‍छे पड़ोसी हैं हमारे । हर सुख-दुख में राहुल का परिवार हमारे साथ रहा है ।” पापा ने सुमन की बात को संबल देते हुए कहा ।


मां खामोश थीं । उनकी खामोशी में अहम निर्णय  की गूंज सुनाई दे रही थी ।  घर के बाहर होली का हुड़दंग शुरू हो गया था । आशु को  पिचकारी का इंतजार था । राहुल  कल ही आशु के लिए पिचकारी लाने का वादा करके गया था । राहुल को दरवाजे पर देखते ही आशु दौड़कर उसके पास गया और उसके हाथों से पिचकारी छीन ली । सुमन अंदर अबीर की थाली लेने के लिए भागी । राहुल ने मां के पैर छुए, माथे पर गुलाल लगाया । भाभी दरवाजे पर रखी बाल्‍टी में आशु के लिए रंग घोल रही थीं । 


“राहुल बेटा हर बार तुम होली पर हम सबको तुम रंगते थे,  हमारी बहू पूजा कोरी रह जाती थी । क्‍या  तुम मेरा बेटा विक्रम बन मेरी बहू  के संग होली खेलोगे ?”  राहुल ने पास में खड़ी सुमन के हाथ से रंगबिरंगे गुलाल की थाली ली और पूजा के चहरे पर अबीर मल दिया ।


“बहू बस यूं ही खड़ी रहोगी । जाओ अंदर से अनरसे ले आओ । और हां सुनो पूरा डिब्‍बा लाना मेरे बेटे राहुल के लिए …”


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होली का चंदा:/  सुनील सक्‍सेना


                अपना तो पूरा साल किसी न किसी मौके पर चंदा देते हुए ही निकल जाता है ।  होली का चंदा, गणेश जी का चंदा, नवरात्रि का चंदा । यानी जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है, इन चंदा मांगनेवालों का धंधा जोरों  पर चलने लगता है और अपनी जेब ढीली होने लगती है  । गली-मोहल्‍ले के शोहदे चंदे के रसीद कट्टे बगल में दबाये झुंड के साथ चंदा मांगने निकल पड़ते हैं । बात जब होली के चंदे की हो तो अपनी लानत-मलामत के डर से अच्‍छे-अच्‍छे सूरमा अपनी अंटी ढीली कर देते हैं ।


               चंदा वसूली का ये धंधा त्‍यौहारों तक ही सीमित होता तो भी गनीमत थी । हालात ये हैं कि चंदा मांगनेवाले कोई भी अवसर नहीं चूकते । चुनावों में चंदा मांगना तो चंदों की सूची में अव्‍वल पायदान पर है । वार्ड के चुनाव हों तो पानवाले-गुमटीवालों से चंदा,  विधान सभा के चुनाव हों तो नगर सेठ से चंदा,  लोकसभा चुनाव हो तो बिरला- टाटा- अंबानी अडानी से चंदा । और जब देश कंगाली की कगार पर पहुंच जाये तो आइ.एम.एफ. तक से चंदा मांगने में ये कोई गुरेज नहीं करते ।


               चंदा मांगनेवाली इस प्रजाति का दुष्‍प्रभाव मुझ पर कुछ इस कदर हुआ कि अब आलम ये है कि ‘चंदा’ शब्‍द मेरी ‘चिढ़ान’  हो गई है । इन  नामुराद चंदेवालों की चंदा उगाही से नफरत के चक्‍कर में कम्‍बखत मेरी चंदा ने भी अब ख्‍वाबों में आना छोड़ दिया है । आपको भले ही चंदामामा में सूत कातती चरखे वाली बुढ़िया नजर आती हो मुझे तो हर पूरनमासी को चांद एक कटोरा लगता है जो तारों के शहर में कटोरा लिये चंदा मांगने निकल पड़ा हो ।


                वैसे इस बार मैंने ठान लिया था कि होली पर चंदा नहीं दूंगा । अब भला ये भी कोई बात हुर्ई कि आप हमारे गाढ़े खून-पसीने की कमाई से चंदा ले जायें और हमारे ही सामने उसी पैसे से गुलछर्रे उडायें । लेकिन साहब जवाब नहीं हमारे मोहल्‍ले के छोकरों की ‘कनविंसिंग पॉवर’ का । ऐसा लगता है जैसे किसी “नेशनल इंस्‍टीटूयट ऑफ चंदा उगाही”  से विधिवत प्रशिक्षित हों ।  दो मिनिट में ही मुझे चंदा देने के लिए मजबूर दिया । ग्‍यारह,  इक्‍कीस नहीं पूरे एक सौ एक रूपये झटक लिए ।


              वही हुआ जैसा सोचा था ।  रात को नुक्‍कड़ पर बाइक पर सवार बियर की बोतलें लिये  ‘चंदा कलेक्‍टर्स’  होलीका दहन का लुत्‍फ ले रहे थे । मैंने एक बार फिर चंदा न देने की कसम खाई । तभी पीछे से आवाज आई ।    क्‍या सोच रहे हैं अंकल ...? किस बात का मलाल कर रहे हैं ...? चंदे का धंधा सर्वव्‍यापी है.. दुनिया चंदे पर चल रही है । आप नाहक परेशान हो रहे हैं ।  होली  है.. मौका भी है.. दस्‍तूर भी है… बियर भी चिल्‍ड है.. एक घूटंमार लें अंकल । कलेजे को ठंडक मिल जायेगी । वैसे बुरा लगा हो तो माफ करना अंकल । होली है .. बुरा न मानो होली है ।


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व्‍यंग्‍य / सत्‍य पराजित नहीं होता /   सुनील सक्‍सेना


                               मार्निंग वॉक पर कुछ दूर तक खामोश चलने के बाद उन्‍होंने मुझसे पूछा “क्‍या सत्‍य बोलना बुरा होता है ?”  मैं सुबह-सुबह कृष्‍ण-अर्जुन के  महाभारत टाइप वाले सवाल के लिए कतई तैयार नहीं था ।    मुझे इस तरह के दार्शनिक सवालों  के उत्‍तर देने का न कोई तजुर्बा है, न ही ज्ञान  । वे मेरे हमजोली हैं । अपने मन की बात मुझसे ही करते हैं  ।  


मैंने कहा – “ये इस बात पर डिपेंड करता है कि बोले गए “सत्‍य” का स्‍वरूप कैसा है ?”  


वे बोले – “मतलब ?”


मैंने कहा- “सत्‍य दो प्रकार के होते हैं । एक सत्‍य तो “कड़वा” होता है । सब जानते हैं ।  दूसरा सत्‍य “चिरपिरा” होता है ।  ऐसे सत्‍य को बोलने से सामने वाले को मिर्ची लगती है । गुजिश्‍ता दौर में जब इंसानी फितरत में मिठास होती थी, तो कोई किसी के मुंह पर सच बोल दे तो,  सत्‍य बस थोड़ा कड़वा लगता था । बंदे में सच सुनने का माद्दा था । आलोचना सह लेता था । आज के दौर में आप सत्‍य बोलो तो आदमी बिलबिला जाता है, । सुलग उठता है  । तुरंत प्रतिशोध लेने पर उतर आता है ।”


मेरे उत्‍तर से वे संतुष्‍ट नहीं हुए । कहने लगे – “थोड़ा तफसील से समझाइये । और हां एक पूरक प्रश्न का उत्‍तर भी दीजिए,  सत्‍य बोलने वाला कभी पुरस्‍कृत होता है और कभी दंडित । ऐसा क्‍यों ?”


उदाहरणों से बात जल्‍दी समझ आती है । मैंने स्‍वंय के साथ घटित घटना सुनाई । बचपन में मेरा पड़ोस के शर्माजी के लड़के से झगड़ा हो गया । शर्माइन शिकायत लेकर हमारे घर आईं बोलीं – “आपके लड़के ने हमारे बेटे बल्‍लू  को मारा ।” पिताजी ने पूछा – “चाची जो कह रही  हैं सच है ? मैंने  निर्भीकता    से कहा-  “सत्‍य है । बल्‍लू ने मुझे गाली दी । वो भी ऐसी वैसी नहीं बहुत गंदी ।” पिताजी ने मेरी पीठ ठोकी । बोले – “ठीक किया । गलत बात का हमेशा विरोध करो ।” उन्‍होंने  एक रूपए का सिक्‍का मेरी बहादुरी और सच्‍चाई के लिए इनाम में दिया ।


दूसरा  वाकया मेरी किशोर अवस्‍था का है । मैं कमरे में पढ़ रहा था । अचानक पिताजी आगए । कमरे में कुछ देर रूकने के बाद बोले – “तुमने सिगरेट पी ?” मैं सत्‍यवादी बनने के पथ पर अग्रसर था । मैंने कहा – “जी हां… वो भी आपके ही पैकेट से निकालकर ।” बस फिर क्‍या था । कुटाई, पिटाई, ठुकाई कुछ भी कहलो उस दिन  सच बोलने का जो दंड मिला आज भी याद है ।”


 मैं सोच रहा था, मेरे सखा तो रोज पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें, किसान आंदेलन, कोविड वेक्‍सीन,  बंगाल के चुनाव, करीना की होनेवाली डिलेवरी, जैसे मुद्दों पर बात करते हैं,  आज ये सत्‍य की चर्चा कैसे ? मैंने पूछा – “क्‍या बात है मित्र ये अचानक सत्‍य की खोज कैसे  ?”


वे बोले – “कल रात मैंने एक भयानक सपना देखा । “सत्‍य” को गिरफ्तार कर लिया है । सत्‍य के हाथ में हथकडि़या हैं । पैरों में बेडि़या डली हुई हैं । सत्‍य चीख रहा है । बेबस है । छटपटा रहा है । मदद की गुहार कर रहा है । लोग मौन खड़े हैं । आंखें बंद । कान बंद । लाचार । तमाशबीन । निर्जीव पाषाण मूर्तियों की तरह । सत्‍य के पक्ष में बोलने से डर रहे हैं लोग । मैं आवाज उठाने की कोशिश कर रहा हूं 1 मेरा गला किसी ने दबा दिया है । मैं घबराकर उठ जाता हूं ।”


            वे भावुक हो गए । मैंने अपना हाथ उनकी ओर बढ़ाया । बस इतना ही कह सका- “सत्‍य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं ।”


 


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