शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

ठांव : शंकर

 ठांव : शंकर

साहित्यिक पत्रकारिता और कथा-लेखन के सुप्रतिष्ठित व्यक्तित्व। पहले ‘अब’ के बाद अभी ‘परिकथा’ का संपादन। कृतियां, ‘थोड़ी सी स्याही’ (कविता-संग्रह), ‘पहिये’, ‘मरता हुआ पेड़’, ‘जगो देवता, जगो (सभी कहानी-संग्रह) ‘सड़क पर मोमबत्तियां’ (संपादकीय टिप्पणियों का संग्रह), ‘कहानी : परिद़ृश्य और प्रश्न’ (कथा-आलोचना)

यह अंधेरे के घिर रहे होने का समय था और वे पांचों जन अब बस्ती में घुस रहे थे।

अस्पताल के गेट पर अभी थोड़ी ही देर पहले गार्डों के साथ उनकी गुत्थम-गुत्थी हुई थी। अस्पताल के लोगों ने उन्हें न तो उनके साथी राम नरेश तक पहुंचने दिया था और न ही उसकी लाश ही दी थी। ये चीखते-चिल्लाते रहे थे कि राम नरेश उनका आदमी है, वह रोजहा का काम करता था, वह इस नए-नए आए रोग से नहीं, काम नहीं मिलने की स्थिति में भूख से मरा है, उसकी लाश उनको दे दी जाए, वे सभी मिल-जुलकर उसका दाह-संस्कार करेंगे। लेकिन अस्पतालवालों ने उन्हें कामकाज में बाधा डालने की बात कहकर सिक्यूरिटी गार्डों से धक्का दिलवा कर अस्पताल एरिया से बाहर करा दिया था। ये अपने साथी राम नरेश को अंतिम बार देख नहीं पाए थे। पता नहीं, अस्पताल के खिलाफ गुस्से में या फिर राम नरेश के चले जाने के दुख और शोक में अस्पताल से यहां तक ये गुमसुम और चुप आए थे।

शहर के बाहरी कोने में कई दूसरी बस्तियों की तरह यह भी मेहनत-मजदूरी करनेवालों की बस्ती थी। यहां छोटी-छोटी दुकानें थीं। गलियों के मुहाने पर कई तरह के ठेले लगते थे। बस्ती में कच्चे-पक्के घरों की लाइनें थीं। जहां-तहां नल के खंभे गड़े थे। बस्ती में बिजली के भी खंभे थे और लगभग रात भर यहां बिजली रहती थी। यहां से आगे तीन-चार किलोमीटर पर छोटी-मझोली औद्योगिक इकाइयां थीं। बस्ती से सटे दो रिपेयरिंग और लेश के वर्कशाप थे। इसी इलाके में स्टोर और गोदाम भी थे। कुल मिलाकर यहां अपनी तरह की चहल-पहल रहती थी। यहां जरूर काफी कुछ बदला हुआ था।

एक भयकारी रोग के कारण पूरे देश में बंदी थी। दुकानें बंद थीं, बाजार बंद थे, उद्योग-धंधे बंद थे, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर बंद थे। सभी सार्वजनिक जगहें वीरान थीं। ट्रेन बसों की आवाजाही भी रुकी हुई थी। सड़कें खाली-खाली थीं। घोषणा हुई थी कि रोग को फैलने से रोकने के लिए जो जहां है, वहीं रुका रहे, एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाए। शुरू में सचमुच सभी जहां थे, वहीं ठहर गए।

लेकिन कुछ ही दिन गुजरे थे कि मजदूरी करने वाले या छोटे-छोटे कामकाज करने वाले रोजी के अभाव में यह महसूस करने लग गए थे कि अब अपनी जगह पर कैसे टिका रहा जाए, यह रोग तो हमें मारेगा कि नहीं मारेगा, भूख हमें जरूर निगल जाएगी। कामकाज नहीं होने की स्थिति में लोग अपने अपने घर-ठांव तक जाने के लिए बेचैन हो उठे थे। सरकार द्वारा खाना उपलब्ध कराने की जो कोशिशें की गई थीं, वे नाकाफी पड़ रही थीं। हो हल्ला के बाद कभी कभी कुछ बसें चलीं, लेकिन घर-ठांव के लिए निकल पड़ने वालों की तादाद इतनी ज्यादा थी कि यह व्यवस्था भी नाकाफी पड़ गई थी। लोग रुके रहने का इरादा छोड़ चुके थे। मजबूरी में बहुत सारे लोग छोटे-बड़े समूहों में पैदल ही निकलने लग गए थे।

सबका विश्वास था, पांव उनके अपने हैं, दूसरा धोखा दे तो दे, उनके पांव धोखा नहीं देंगे। बस सड़क पर निकल पड़ा जाए तो घर-ठांव दिखाई पड़ने लग जाएंगे। इस बस्ती से भी कुछ लोग निकलकर जा चुके थे। बस्ती वीरान हो चली थी। बहुत थोड़े से ही लोग अभी बस्ती में बच रहे थे। लिहाजा शाम होते ही सन्नाटा छा जा रहा था।

जैसे ही इन पांचों जनों के पांव बस्ती में बढ़े कि उनके दिलों पर पड़ा बोझ पिघलने लग गया। चुप्पी टूट गई। दुख दिल से निकलकर जुबान पर आ गया।

‘भाई, दिल पर इतना बोझ लिए तो हम घर में घुस नहीं पाएंगे। हम कहीं थोड़ी देर तक बैठ लें और बोझ को हल्का कर लें।’ उनमें से एक ने कहा तो बात सबको जंच गई।

कुछ ही कदमों पर कभी लोहा-लक्कड़ का गोदाम रही बिल्डिंग का चबूतरा था। चबूतरे के आसपास मलवे बिखरे थे। जाहिर था, इन पर हाल-फिलहाल कोई बैठा नहीं था और न ही इसका कोई इस्तेमाल हुआ था। सभी वहीं जगह बनाकर बैठ गए। अभी जुगनुओं की तरह बीड़ियों और मोबाइल की जलती-बुझती रोशनियों से किसी को अपराध करनेवाले चोर-उचक्कों या गंजेड़ियों-नशेड़ियों के गु्रप के बैठे होने का भ्रम हो सकता था, लेकिन दरअसल ये दुखों में फँसे हुए लोग थे, जो अपनी चिंताओं से जूझ रहे थे और इनसे उबरने के लिए कुछ सोच-विचार करने के लिए आ बैठे थे। दिल में कुछ समय से जो बातें घुमड़ रही थीं, वे अब बाहर निकलने लग गईं :

– राम नरेश रोग से नहीं, भूख से मरा। ये सारी चीजें रोग के नाम कर दे रहे हैं। वह रोजहा था और अभी उसे कहां से काम मिल सकता था? राशन दुकानवाले ने भी उधार नहीं दिया होगा। वह भूख से गश खाकर गिर पड़ा होगा।

– भाई, हमारी हालत भी वही है। हफ्ते दिन में हमारे घर भी खाली हो जाएंगे और दुकानवाले हमें उधार नहीं देंगे। यह रोग तो मेहनत-मजदूरी से पत्थर हो गई हमारी देह को नहीं छू पाएगा, भूख जरूर हमारी बलि ले लेगी।

– जो शुरू में ही यहां से निकले गए, वे अपने-अपने घर-ठांव पहुंच रहे होंगे या बस थोड़ी ही दूर होंगे। हमने हालात ठीक हो जाने या ट्रेन-बसें चलने की उम्मीदें लगा लीं और फँस गए।

– इन्होंने शुरुआती दिखावा किया। कुछ लोगों को कुछ दिनों तक खाना खिलाया, कुछ बसें चलाईं। हमने समझा, जब तक रहेंगे, तब तक रहेंगे, नहीं तो बसें चल ही रही हैं, उनसे निकल लेंगे।

– ट्रेनें और बसें तो चल ही रही थीं। इन्हें बस पांच-सात दिनों की मोहलत ही तो देनी थी कि जिन्हें यहां से निकलना है, वे निकल जाएं वरना पांच-सात दिनों के बाद कोई यहां से निकल नहीं पाएगा। जो जहां है, उसे वहीं रुकना पड़ेगा। इन्होंने तो झटके से सब कुछ बंद कर दिया और हम यहीं बंधे रह गए।

– यह जानकर कि अब बंदी रहने वाली है, शुरू के पांच-सात दिनों में तो हम भी ट्रेन या बस से निकल गए होते।

– भाई, हमें जिस जिस शहर में रोजी-रोटी मिलती है, हम वहां अपना घर-बार छोड़कर आ जाते हैं और वहीं अपना घर-ठांव बस जाता है। हम इनके लिए अपनी देह गलाते हैं और फिर हमें ही जब तब बंदी में बांध लिया जाता है और ऐसी स्थितियों में डाल दिया जाता है कि हम वापस घर लौट भी नहीं पाएं। यहीं इनकी बंदी में हाथ धरे बैठे रहें। इसका मतलब, हम इनके लिए देह गलाएं और हमारे बारे में थोड़ा-सा सोचा भी नहीं जाए।

यह बंदी अभी तुरंत हटनेवाली लग नहीं रही है। हम यहां भूख से मरें, इससे अच्छा है, हम अपने पांवों पर भरोसा रखकर सड़क पकड़ लें…। ये पांव हमें अपने-अपने घर-ठांव तक पहुंचा देंगे।

– दयाल और गोविंद तो आज ही निकलने वाले हैं। हम क्यों रुकें, हम भी थोड़े-बहुत सामान लेकर निकल चलें, भाइयो…।

इस मुकाम पर आकर उनकी बातचीत रुक गई। अब इससे आगे बात करने के लिए उनके पास कुछ था भी नहीं।

यही पांचों जन अब दयाल के दरवाजे पर थे। आसपास अंधेरा था। उन्होंने रुककर टोह लेने की कोशिश की कि कमरे में क्या चल रहा है। कमरे के भीतर से सामानों के हटाने-रखे जाने की आवाजें आ रही थीं। उन्होंने दरवाजा खटखटा दिया।

दरवाजा खुला तो सामने दयाल था। कमरे में इतने लोगों के बैठने की तो दूर, खड़े रहने की भी जगह नहीं थी। दयाल खुद ही कमरे से बाहर आकर उनके साथ खड़ा हो गया।

‘तो तुम आज निकल रहे हो?’

‘हां भाई, मैं अब यहां ज्यादा देर तक रुक पाने की स्थिति में नहीं हूं। गोविंद भी मेरे साथ निकलेगा। उसकी घरवाली के पांवों में तो दर्द रहता है, इसलिए वह लकड़ी मिस्त्री से खींचनेवाली काठगाड़ी जुटाने में लगा हुआ है। मैं भी गोकुलदास ज्वेलर्स के घर गया था। मेरी घरवाली के जिन कनफूलों के लिए बीस हजार से कम नहीं मिलने चाहिए थे, उसके लिए वह सिर्फ चौदह हजार देने को तैयार हुआ है। उससे पैसे लेकर हम आज ही बीच रात में निकल जाएंगे। हमसे कोई गलती हुई हो तो माफ कीजिएगा, भाई।’ दयाल हाथ जोड़े खड़ा था।

– ‘हम तुम्हें अकेले नहीं जाने देंगे, भाई! आज अस्पताल में राम नरेश खत्म हो गया। उन्होंने उसकी लाश भी हमें नहीं दी। हम सब भी आज रात में निकल चलेंगे। तुम्हारे बच्चे को हम बारी-बारी से गोद में लेकर चलेंगे। गोद की गर्मी से बच्चा जरूर ठीक रहेगा।

– बिशन और कुलदीप के पास साइकिल है। हम उन पर सामान रख लेंगे। हममें से कभी कोई थकेगा तो उसे कोई दूसरा बिठाकर खींचेगा।

‘वाह, हम इतने लोग साथ चलेंगे तो फिर क्या बात है? हम हर मुश्किल को जीत लेंगे। रास्ता जितना लंबा हो, कुछ भी पता नहीं चलेगा और हम उसे काट लेंगे।’ दयाल की आंखें हर एक को खुशी से देख रही थीं।

‘भाई, देह की ताकत जो भी हो, नजर जिस मुकाम पर टिकी रहती है, पांव उसको देखकर, उसके हिसाब से चलते हैं। क्या हुआ, जो हमें हजार-बारह सौ किलोमीटर तय करना है, पंद्रह-बीस दिनों में नहीं, महीना भर में तो हम पहुंच ही जाएंगे। घर पहुंचेंगे तो हमें जिंदगी मिल जाएगी।’ किसी ने सबको उत्साहित देख कहा।

‘देखो भाई, हमारे हाथों ने हमें कभी धोखा नहीं दिया। तय मानो, हमारे पांव भी हमारा साथ देंगे।’ किसी दूसरे ने माहौल का उत्साह बनाए रखा।

‘रास्ते में गांव भी तो मिलेंगे। वहां के लोग भी हमारी सुध लेंगे, हमारा ख्याल रखेंगे। हम निकल पड़ें तो सफर तय है, भाइयो।’ एक तीसरी आवाज भी उठ गई।

दयाल के दरवाजे पर जुटे लोगों के बीच उत्साह था, गहमागहमी थी। सफर पर निकल पड़ने का जज्बा था। अंधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था, लेकिन अंधेरे पर भारी जुटे लोगों की आंखों की चमक थी, चेहरों पर उम्मीद और हौसले की परछाइयां थीं।

तय हुआ, सभी जल्दी जल्दी तैयारी कर लें। जिसके पास चूड़ा, गुड़, चबेना, मूड़ी, बिस्कुट, पानी की बोतलें, दवा जो भी हो, उसे वह गठरी या झोले में रख ले। बाकी चीजों को घर में ही छोड़ दे और मुहाने के पास वाली गली में ढाई-तीन बजे के आसपास जुट जाएं। फिर सभी एक साथ निकल पड़ेंगे।

गोकुल दास की दुकान बस्ती से बाहर थी। वहां पहुंचने में थोड़ा वक्त तो लगना था। दयाल तेज तेज चलते हुए पहुंचा था। कालबेल की आवाज सुनकर गोकुल दास ने सुराख से झांका, कहीं पुलिस-वुलिस तो नहीं है। अभी बंदी में दुकान नहीं खुलनी थी लेकिन चूंकि दुकान घर से लगी हुई थी, इसलिए मुसीबत में मारे लोग आ-जा रहे थे और वह ढंके-छिपे कारोबार कर ले रहा था। गोकुल दास ने गौर किया, यह तो वही आदमी है जो शाम को मिलकर गया था।

‘अरे भाई, इस तरह दौड़ते-हांफते हुए क्यों आ रहे हो? मैं भाग तो नहीं रहा हूं।’ गोकुल दास ने आधा ही दरवाजा खोला था।

‘हमें आज ही निकलना है। कनफूल के लिए पचीस हजार बनते हैं, आपको कम से कम बीस तो देना ही चाहिए।’ दयाल अपनी घरवाली के कनफूल के बदले वाजिब पैसे चाह रहा था।

‘देखो भाई, इस बंदी में खरीद-बिक्री पर रोक है। जो मिल रहा है, उसे ही भाग्य समझो। ये आठ हजार रुपये लो और पांच हजार रुपये का यह पुर्जा ले लो। आकर यह पुर्जा दिखाना तो तुम्हें बाकी पांच भी मिल जाएंगे।’ गोकुल दास ने बेचने वाले की गरज को तौल लिया था और इसी क्रम में यह दांव भी अपने हाथ रख लिया था कि यह आदमी लौटकर आए, न आए।

‘लाओ सेठ जी, लेकिन भूलिएगा नहीं कि आपको अभी पांच हजार भी देने हैं।’ दयाल की गरज सामने थी।

लौटते हुए उसके पांव लकड़ी-मिस्त्री की दुकान की तरफ बढ़ रहे थे कि गोविंद जरूर वहां गाड़ी बनवा रहा होगा। सचमुच गोविंद वहीं खड़ा था।

‘अरे, यह गाड़ी तो ठीक है। तुम्हारी घरवाली इसमें बैठ लेगी, तुम हम मिल जुलकर खींच लेंगे।’ गाड़ी सामने रखी थी और मिस्त्री उस पर काम कर रहा था।

‘एक भिखमंगा इसे बेच गया था। सड़क पर चल कौन रहा है जो उसे भीख देगा। मैंने इसे रगड़-छील कर ठीक कर दिया है, तेल भी डाल दिया है। अब यह पांच हजार किलोमीटर तक दौड़ती चली जाएगी।’ पीले बल्ब की रोशनी में काम कर रहा मिस्त्री काठ की गाड़ी को सचमुच नया जैसा बना चुका था।

गोविंद और दयाल लौट रहे थे। गोविंद मोटी सी रस्सी से बांधे गाड़ी को खींचता आ रहा था और गाड़ी फिसलती आ रही थी।

‘दयाल, मेरी घरवाली इस गाड़ी में तुम्हारे बच्चे को भी गोद में लेकर बैठेगी।’ गोविंद की इस बात पर दयाल और गोविंद की खिलखिलाहटें उठ रही थीं।

अंधेरे में चार पांव बढ़े जा रहे थे। इनके पीछे खड़-खड़ की आवाज करती हुई एक गाड़ी भी थी। दयाल अपने दरवाजे पर रुक गया और गोविंद गाड़ी लुढ़काता आगे अपने घर की तरफ बढ़ रहा था। बस्ती में तो अंधेरा ही था लेकिन कुछ घर थे जिनमें छोटी-छोटी हलचलें थीं और बत्तियां जहां-तहां जल रही थीं।

इसी अंधेरे में दो साइकिलें तेजी से बस्ती से बाहर निकल गईं। एक साइकिल पर पीछे कैरियर पर भी एक जन बैठा था। लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर बिजली के सामान बनाने वाला मझोले स्तर का कारखाना था। कारखाने के पास आकर साइकिलें रुक गईं।

तीनों जनों ने कारखाने का गेट खटखटाया। भीतर बत्ती जल रही थी लेकिन काफी देर तक कोई गेट की खिड़की के पास नहीं आया। दरवान बत्ती जलाकर पीछे की तरफ से चला गया था या फिर गहरी नींद में डूब गया होगा।

‘मुझे अंदाजा था कि गेट शायद नहीं खुलेगा। मैं इसका उपाय लाया हूं। यह कागज लो, इस पर हम अपनी बात लिख दें और इसको गेट पर ही चिपका दें।’ एक जन ने पॉकिट से कागज निकाला और अखबार में लिपटे भात के दाने निकाले। गेट की फांक से थोड़ी रोशनी आ रही थी।

एक जन ने लिखना शुरू किया, ‘मैनेजर साहब, अब हमारे पास टिकने के लिए राशन-अनाज नहीं है। बस्ती के ज्यादा लोग जा चुके हैं। हम भी आज निकल जाएंगे। यहां रुककर हम खुद को बचा नहीं पाएंगे। भूख हमारी बलि ले लेगी। हम जिंदा रहना चाहते हैं। हम जिंदा रहने के लिए ही अपना घर छोड़कर इतनी दूर आए थे। हम अभी इस उम्मीद पर आए थे कि शायद कुछ रुपये एडवांस में मिल जाएंगे। अब आप से विनती है कि जैसे ही कारखाना शुरू हो जाए, हमें मोबाइल पर खबर कर दीजिएगा। हम आ जाएंगे। हमारी अर्ज है कि आप तब तक हमारी रोजी-रोटी को हिफाजत से रखिएगा।’

फिर नीचे दस्तखत दर्ज हुए-किशन, कुलदीप, आदिल। फिर दो और नाम रख दिए गए-‘दयाल और गोविंद, जो तैयारी में फंसे हुए हैं और हमारे साथ नहीं आ पाए हैं।’

भात के दाने कागज की पीठ पर मसले गए और कागज को गेट पर ही चिपका दिया गया।

अगले क्षण दोनों साइकिलें जिस तरह आई थीं, उसी तरह वापस बस्ती की तरफ दौड़ने लग गईं।

बस्ती के बीचोंबीच चलनेवाले किराना स्टोर की पटरी गिरी हुई थी और भीतर की बत्ती भी बुझी हुई थी। अक्सर यह होता था कि दुकानदारी का समय निकल जाने पर भी दुकानवाला पटरी गिरा देता था लेकिन भीतर में बत्ती जलाकर बैठा रहता था कि कोई कुछ देर से भी सामान लेने आए तो वह पटरी उठाकर उसे हासिल करा दे। इधर सड़कें सुनसान थीं और आवाजाही बंद थी तो वह थोड़ा पहले ही पटरी गिरा देता था, लेकिन बत्ती को जलते हुए ही छोड़ देता था। आज बत्ती नहीं जल रही थी। मतलब, उसका स्टाक खत्म हो गया होगा।

दयाल तेज-तेज चलते हुए इस दुकान पर पहुंचा था। दुकान को बंद देख उसने पटरी पर हथेली से पांच-छह बार दस्तक दी कि दुकानवाले को अगर नींद आ गई है तो वह जग जाए। दुकानवाले ने भीतर से कोई आवाज नहीं दी तो उसकी नजर ऊपर झूलती हुई तख्ती पर गई जिसके साथ कागज के कुछ पन्ने बंधे थे और एक पेंसिल लटकी हुई थी। दुकान के बंद होने की स्थिति में यह तख्ती ग्राहकों के काम आती थी। ग्राहक इस पर अपनी जरूरतें लिख देते थे और दुकानवाला सुबह में उन सामानों के पैकेट तैयार रखता था।

दयाल ने तख्ती खींची और ऊपर के पन्ने पर जल्दी जल्दी पेंसिल दौड़ाई-‘भाई, मैं आपके बकाए पांच हजार में से दो हजार रुपये देने आया था। लेकिन मैं आज ही कई सारे लोगों के साथ पैदल ही गांव के लिए निकल रहा हूं। इसलिए सुबह में मैं नहीं आ सकूंगा। गोकुलदास सोने-चांदी वाले के पास मेरे पांच हजार जमा हैं। आप वहां जाकर मेरा नाम लीजिएगा और पांचों हजार मांग लीजिएगा। अगर वह नहीं दे या कहे कि वह रुपये मेरे सामने ही देगा तो आप इंतजार कीजिएगा। आपके रुपये मेरे पास थाती की तरह हैं। हम जरूर वापस आएंगे। हम यहां भूख से लड़ नहीं पाएंगे, भाई, नहीं तो मैं यहीं रहकर मेहनत-मजूरी करके आपका उधार चुका देता। मुझ पर विश्वास रखिएगा। मैं जरूर वापस आऊंगा और आपका उधार चुकाऊंगा। आपका दयाल, तीसरी गली में रहने वाला।’

निकलने की तैयारियां होनी थीं। सो दयाल जिस तरह तेज-तेज चलते गया था, उसी तरह तेज-तेज चलते लौट आया था। बस्ती में अंधेरा था। सिर्फ उन्हीं घरों में बत्तियां जल रही थीं, जहां तैयारियां चल रही थीं, सामान झोले या गठरी में बांधे जा रह थे। रास्ते में काम आने वाली कुछ सूखी चीजें बनाई जा रही थीं।

आगे की गली का रामचरण प्लास्टिक की फैक्ट्री में काम करता था और उसे भी एडवांस नहीं मिल पाया था, लेकिन यह जानकर कि आज कुछ लोग निकल रहे हैं, वह भी झोला तैयार करने लग गया था। उसकी घरवाली ने अपने दरवाजे के सामने के तुलसीचौरा के पौधे से लगभग सारी पत्तियां तोड़ लीं और एक दूसरी छोटी गठरी में बांध ली थीं। उसने तुलसी के पौधे के सामने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी, ‘मां, हम एक लंबी यात्रा पर निकल रहे हैं। हमें विश्वास है, हम घर पहुंचेंगे। रास्ते में कोई बीमारी हुई तो हमें बचा लेना, मां। तुम्हारी पत्तियां संजीवनी हैं, मैं सबके जीवन का वरदान मांग रही हूं, मां।’

पहले से ही कपड़े का एक झोला तैयार था। तुलसी की पत्तियों का यह छोटा-सा झोला भी उसके साथ जा लगा।

रामचरण को तो एडवांस नहीं मिला था, गणेश के साथ तो और भी बुरी स्थिति हुई थी। वह लैट बनाने वाली कन्सट्रक्शन कंपनी में काम करता था। वह पिछले पांच दिनों से बकाया पाने की उम्मीद लगाकर मालिक के पास दौड़ रहा था, लेकिन मालिक एक बार छिपा तो छिपा ही रह गया। उसे लगा, लोग जा रहे हैं तो साथ हो लिया जाए। अब बकाए के लिए जिंदगी को कौन दांव पर लगाए? उसने ज्यादा कुछ नहीं किया। उसका एक झोला जो हमेशा एक कुरता, पाजामा, गमछी के साथ दीवार पर टंगा रहता था, उसे उसने उतार लिया। उसने कमरे में नजर दौड़ाई तो एक तरफ लुढ़का हुआ पुराना तकिया दिख गया। उसने झट चाकू से तकिया फाड़ा और रुई झोले में ठूंस ली। क्या पता, किसी के पांव में कोई मुश्किल आई तो इसे जूते या चप्पल में तलवे के नीचे दबा लिया जा सकता है। कुछ न कुछ आराम तो जरूर ही देगी।

रात में लगभग तीन-साढ़े तीन का समय होगा। तिमुहाने के पास की गली में एक एक कर से सभी जुटने लग गए थे। मर्द, औरतें कुछ बच्चे भी। जिनको-जिनको खबर मिली थी, वे जैसे-तैसे आ जुटे थे। बीस-बाईस जन मौजूद थे। कइयों के हाथ में झोला गठरी या बैग। दयाल की घरवाली गोद में बच्चा लिए हुए थी जो सिरप पीकर कुछ ठीक था। शीशी का बाकी सिरप और अलग से दो और शीशियां उसके झोले में रखी थीं कि इतनी दवा में तो रास्ता कट जाएगा।

एक उत्साह था, एक गहमागहमी थी कि कोई चले तो सभी चल पड़ें। सबने अपने-अपने झोले, गठरी, बैग हाथ में उठा लिए। जिसके साथ बच्चे थे, उन्होंने बच्चों की अंगुलियां थाम लीं, जैसे कि वे अपनी ताकत बच्चे को सौंप रहे हों। अब बस चल पड़ना था।

तभी सामने से दुकान, कारखाने और गोदामों का पहरेदार आता हुआ दिख गया।

उसने साइकिल रोकते ही खबर दी, ‘आप लोग इस पतली सड़क के रास्ते से बड़ी सड़क तक नहीं जा पाइएगा। पुलिस की जीप खड़ी है, सिपाही जीप में ही ऊंघ रहे हैं या पसरकर बैठे हैं। सुबह में कुछ देर के लिए वे जरूर हटेंगे। आप लोग तब तक का इंतजार कीजिए या फिर पीछे के नाले की तरफ से निकल लीजिए। आप लोग ऊपर सड़क से पुलिसवालों को दिखाई नहीं पड़िएगा। हां, वह रास्ता ठीक नहीं है। धीरे-धीरे सावधानी रखते हुए जाना पड़ेगा, लेकिन उधर से सड़क तक पहुंच सकते हैं आप लोग।’

अचानक सभी उलझन में पड़ गए।

‘नहीं, हम रुकेंगे नहीं। हम निकल चलें नाले के रास्ते से, हम सावधानी के साथ जाएंगे।’ कोई बीच में बोला।

‘हां, हां’ कई आवाजें उठीं।

साइकिल को हाथ में थामे पहरेदार आगे-आगे था। जमा लोग उसके पीछे-पीछे थे। लगभग एक किलोमीटर आगे कूड़े कचरे के टीले थे और उनसे सटकर चौड़ा-सा नाला। नाले के पाट पक्के तो थे लेकिन पुराने पड़ चुके थे और धूल-कूड़ों से पटे हुए थे।

लोग ढलान से उतरकर नाले के पास रुक गए।

कई बातें खड़े-खड़े तय हो गईं। सबने अपने अपने झोले, गठरी, बैग कमर से बांध लिए। दयाल ने अपने बच्चे को चादर से पीठ में बांध लिया। आदिल को काठ की गाड़ी लाजवाब लगी थी। उसने उसे पीठ पर उलटा लटका लिया और बांध लिया। सबने आगे-पीछे एक दूसरे का हाथ पकड़कर एक लड़ी बना ली। सबसे आगे बिशन अपनी साइकिल के साथ था, उसके कैरियर पर किसी किसी का सामान था। पीछे के जन ने साइकिल पकड़ ली थी। सबसे पीछे कुलदीप की साइकिल थी। बीच में मर्द, औरतें और बच्चे।

लड़ी आगे बढ़ने लग गई। जैसा कि तय था, सभी कूड़े-कचरे की तरफ होकर चल रहे थे ताकि कोई नाले की तरफ नहीं फिसले। कोई कोई नाले की तरफ फिसलने को हुआ भी तो दूसरे ने हाथ के जोर से सम्हाल लिया। सभी पांवों से रास्ते का अंदाज लेते हुए कूड़े कचरे के बीच बढ़ रहे थे। तय था कि सिपाहियों की नजर से बचने के लिए टार्च या मोबाइल नहीं जलाई जाएगी। टार्च या मोबाइल नहीं जलाई गई।

आखिरकार यह जैसा भी था, रास्ता ही था। कहां पहुंचे, रास्ता अभी कितना बाकी है, किसी को यह फुर्सत नहीं थी कि वह यह सोचे। दरअसल ये कुछ भी सोचने के नहीं, पूरी एकाग्रता के साथ सिर्फ धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाने के क्षण थे।

जैसा कि होना था, कुछ देर बाद पहले पुल, फिर उसके ऊपर से गुजरती हुई सड़क दिखाई पड़ने लग गई। बारी-बारी से सभी नाले का पाट छोड़कर किनारे आ गए, जहां से ऊपर सड़क तक चढ़कर पहुंचना था। अभी-अभी वे जिन मुश्किलों से होकर आए थे, उनकी तुलना में यह बहुत आसान-सी कार्रवाई थी। सबने एक दूसरे के लिए हाथ बढ़ाया, हाथ खींचा और ऊपर सड़क तक आ गए।

यह एक खुली जगह थी। सुबह की ठंडक थी। सबने झोला, बैग कंधे, पीठ से उतारकर हाथ में ले लिए। काठ की गाड़ी सड़क के किनारे रखी हुई थी। साइकिलें भी पास में खड़ी थीं। यहां पुल पर बैठकर कुछ देर सुस्ताया जा सकता था, लेकिन किसी ने इसकी इच्छा जाहिर नहीं की। सबके पांव जैसे कह रहे हों, ‘हम चलते रहें, रुकेंगे तो थक जाएंगे।’

तभी कोई घंटी बजी। कइयों ने अपनी-अपनी पॉकिट टटोली। एक छोटी-सी रोशनी दयाल की पॉकिट में जगमगा रही थी। दयाल ने झट मोबाइल को कान से सटाया, ‘कौन बोल रहे हैं, भाई?’

‘मैं जगेसर बोल रहा हूं, दयाल। तुमने कहा था, एक-दो दिनों में तुम और एक-दो लोग गांव के लिए निकलोगे। भाई, क्या प्रोगाम बना, कुछ दिनों तक देख लेने का या निकल जाने का?’ उधर से आवाजें आ रही थीं।

‘जगेसर, हम बीस से ज्यादा लोग हो गए हैं और अभी सड़क पर आ गए  हैं। बस अब चल ही पड़ना है।’ दयाल ने इधर से आवाज दी।

‘निकल चलो, भाइयो। निकल आने पर ऐसा नहीं लग रहा है कि हम सड़क पर चल रहे हैं। लग रहा है, जैसे जिंदगी की एक नदी है जिसमें हम खुद-ब-खुद बहे जा रहे हैं। हमसे आगे कितने लोग चल रहे हैं, हमारे पीछे कितने लोग आ रहे हैं, इसका कोई हिसाब संभव नहीं हैं, लग रहा है, कई नदियां हैं जो कई दिशाओं से आ रही हैं और एक साथ बह रही हैं। रास्ते में जगह-जगह अच्छे लोग मिल रहे हैं। गांव के लोग घड़े का पानी पिला रहे हैं, फुलाया हुआ चना, गुड़, रोटियां दे रहे हैं। कहीं कहीं अपने गाछ के केले भी दे रहे हैं। किसी किसी गुरुद्वारे में रुकने और लंगर का भी इंतजाम मिल रहा है। रास्ते में कभी-कभी खाली ट्रक भी मिल जा रहे हैं जो कुछ पैसे लेकर सौ-दो सौ किलोमीटर तक हमें छोड़ दे रहे हैं। हम कहीं-कहीं कुछ देर के लिए रुककर थकान भी मिटा ले रहे हैं और नई ताकत जुटाकर फिर से निकल पड़ रहे हैं। सब कुछ उम्मीदों और हौसलों से भरा हुआ दिख रहा है। भाइयो, कहिए तो हम यहां रुक लेते हैं और आप सबके साथ हो लेते हैं। सभी साथ चलेेंगे।’ जगेसर ने सफर के अब तक का अनुभव बता डाला था।

‘भाई, आप लोग रुकिए मत। आप लोग चलते रहिए। बस हम आप लोगों के पीछ-पीछे ही होंगे। जो लोग भी निकले हुए हैं, हम मोबाइल से बातचीत करते रहेंगे और अलग-अगल जगह पर होकर भी आपस में जुड़े रहेंगे। बस हम निकल ही पड़ेंगे।’ दयाल हौसला बढ़ा रहा था और खुद भी हौसला जुटा रहा था।

‘बस हिम्मत और हौसले के साथ निकल पड़िए।’ यह दूसरी तरफ की आवाज थी जो अब इसके बाद बंद हो गई थी।

अगले ही क्षण कुछ झोले, बैग साइकिल पर बंधे। गोविंद की घरवाली सबसे शरमाते हुए पांव खींचकर किसी तरह काठ की गाड़ी में बैठ गई। उसने दयाल की घरवाली से बच्चा जरूर मांगा और उसे अपनी गोद में छिपा लिया।

कइयों ने एक बार बस्ती को बहुत आत्मीयता के साथ निहारा। आपस में आंखों से चल पड़ने के इशारे हुए और बस इतने सारे लोगों का यह जत्था आगे धीरे-धीरे चलने लग गया। कई पांव सड़क पर अपने-अपने घर-ठांव के लिए साथ-साथ थे।

पूरब में सूरज अभी उगा नहीं था, लेकिन उजाला उभर रहा था जैसे सूरज का यह संदेश हो कि इतनी लंबी-लंबी पैदल यात्राओं को यह दुनिया कभी भूल नहीं पाएगी, हमेशा याद करेगी। आप बढ़ते रहिए, मैं रास्ता दिखाऊंगा।

हवाएं भी चलने लग गईं जैसे कह रही हों, हम आप सबको थकने नहीं देने, ताकत और ठंडक देने के लिए साथ हैं। पुल हिल डुल नहीं सकता था, लेकिन जैसे वह भी कह रहा था, ‘यह सड़क आप सबको अपने-अपने घर-ठांव तक पहुंचाए। मेरी सौ सौ दुआएं…।’


संपर्क सूत्र : संपादक, ‘परिकथा’, 96, फर्स        nb  n


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