मंगलवार, 16 जून 2020

काश ....... हम पंछी होते..... / लेखक का नाम नहीं दर्ज था.




काश हम पंछी होते !


उषाकाल में जब आकाश धीरे-धीरे आलोकित हो रहा हो ,पक्षियों की गुंजार सुनने का अनुभव बहुत आनंद दायक होता है.
ऐसे समय में ,छत के एक कोने में बैठ अपने हाथ पैर हिलाते(योगासन)समय मेरी दृष्टि बार  बार मुँडेर की ओर जाती है जहां कटोरा भर दाना पानी रखना मेरी बरसों से चली आरही दिनचर्या है. वहाँ एक एक दो दो पक्षियों को क्रमशः आता देख मेरा मन होता है कहूँ-
              राम राम गौरय्या !
               राम राम मैना रानी !
               राम राम मिट्ठू मियाँ!
पर वो कब सुनेंगे? चोंच भर पानी पिया ,उड़े और पेड़ पर बैठ कर चहचहाने लगे.
आज भी मेरी दृष्टि वहीं लगी थी, पहले दो कबूतर आए ,बैठकर सशंकित हो इधर-उधर गर्दन मटकायी,पानी पिया और उड़ गए.मैना आयी  मुँडेर पर इधर-उधर फुदकी फिर फुदक कर कटोरे पर बैठी ,चोंच भर पानी पिया और उड़ गई. कुछ देर बाद आया कौआ,उसकी उड़ान सीधी कटोरे पर उतरी .पानी पीने के बाद गर्दन उठा कर देखा और मालुम नहीं कैसे
उसकी दृष्टि सीधी मेरे पर आकर रुक गई.
धृष्ट एकटक मुझे देख रहा था मानो कह रहा हो -उड़ाओगी ?उड़ा कर देखो .
मैं बुदबुदायीं-मैं क्यों उड़ाऊँगी भय्या ?तुम सब निशंक हो दाना पानी लो इसलिए मैं दूर कोने में बैठी हूँ.कल तो बंदर के छोटे बच्चे ने कटोरा हाथ में उठा ,मुँह अंदर डाल कर पानी घुटक लिया था.मैंने उसे भी नहीं रोका .
कौआ निरन्तर मुझे देख रहा था,मैं निस्पंद उसे देख रही थी.तभी तन के किसी अणु में स्थित अदृश्य मन ने कहा -ईश्वर ने भी धन धान्य,जल पवन से भरा यह धरती नुमा कटोरा सब के लिए समान रूप से रखा है फिर मानव समाज......?
ना ना नहीं मैं यह नहीं कहना चाह रही कि उस बेला मेरे अंदर ज्ञान का संचार हुआ.ऐसे स्वर तो यदा कदा हर व्यक्ति के मन में उठते हैं.इस स्वर को सुन कर व्यक्ति अपनी करनी पर कुछ समय के लिए मुख मलिन कर के बैठ जाता है .लेकिन कब तक ?
हम पंछी थोड़े ही हैं.
हम मानव जाति के ज्ञानवान प्राणी ,समय के उच्च शिखर पर बैठे हैं.हम जानते हैं -
             यह गोरा है-वह काला
              यह अमीर है -वह गरीब
               यह राजा है -वह प्रजा
                 यह बुद्धिमान-वह मूर्ख
                   यह सफल है -वह असफल
                  यह तेरा है -यह मेरा
ऐसी बहुत सी बात हम जानते हैं,केवल वह बात हम नहीं जानते जो हमें जाननी चाहिए .अपने ज्ञान के भार से दबे हम !
काश कि हम पंछी होते !      सहज ज्ञान से भरे ,प्रतिस्पर्धा से दूर ,अपने डैनों की सामर्थ्य पर विश्वास करके (नैराश्य तथा आपदस्थिति में भी ) खुले  आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरते .

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