सोमवार, 8 जून 2020

पाती / सीमा सिंह




कहानी शीर्षक,......"पाती"(पत्र)

बूंदी का मासूम बचपन गांव के गलियारों से होता हुआ मेड़ों में अटखेलियां करते करते कब बसंत बहार  रूपी अल्हण जवानी के आगोश में समाता गया यह, तो शायद खुद उसे भी इसका भान नहीं।पर उसके बचपन से जवानी के सफर का साथी शंकर आज भी उसकी परछाई बन उसके साथ रहता।
मैट्रिक का रिजल्ट आज आने वाला था।शंकर अपना परिणाम देखते ही खुशी से उछल पड़ा। दिल उसका बल्लियों उछलने लगा।आज तो वह अपने दिल की बात बूंदी को बता कर ही रहेगा।बचपन से ही शंकर का दिल बूंदी के लिए ही तो धड़कता आया है।यह बात अलग है कि यह बात कभी उसके जुबां पर आ न सकी।
इधर बूंदी का दिल कभी पढ़ाई लिखाई में रमा ही  नहीं।या यूं कहें घर की जिम्मेदारियों ने ऐसा उलझाया कि फिर तो  इस ओर वह मुड़ ही न सकी।
शंकर अपना रिजल्ट हाथ में लिए  बूंदी के घर की ओर चल पड़ा। दिल में अरमानों की बारात ,शहनाइयां बजा रही थी।वह बूंदी के दिल की बात जानने को बेचैन था।कि अचानक काकी ने आकर उसके मुंह मिठाई से भर दिया।
यह हुआ क्या?? वह सकपकाया सा  अपने सपने से बाहर आने की कोशिश कर ही रहा था और काकी थी कि, बस बोले ही जा रही थी ,बड़ा बढ़िया रिश्ता आया है बूंदिया के लिए।फौज में है लड़का।खूब खुश रखेगा अपनी बुंदिया को....
शंकर तो मानो जमीन की गहराइयों में दफन हो गया।कानों में अजीब सी आवाज़ से उसका सिर फटा जा रहा था।उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था ,वह बड़ी हिम्मत जुटा बूंदी की ओर देखा जो  अपने होने वाले पति के ख्यालों में मग्न शंकर के आने से अनजान अपने ही ख्यालों में मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
शंकर समझ चुका था बूंदी अब किसी और की हो चुकी है।शायद बूंदी के हृदय में शंकर के लिए कुछ और ही स्थान रहा होगा या फिर कुछ स्थान था भी या नहीं यह शंकर के लिए अबूझ पहेली बन कर रह गया।।।
दिन बीतने लगे। बूंदी अपने ससुराल चली गईं।इधर शंकर अपने गांव में ही पोस्ट आफिस में डाकिए की नौकरी कर लोगों के सुख दुख का साक्षी बन गया पर बूंदी अभी भी उसके जेहन में कहीं न कहीं आज भी थी।
साल बीतते बीतते बूंदी अपने मायके आ गई। आज उसकी गोद भराई की रश्म थी।शंकर ने भी गांव के लोगों से ही सुना।
फिर वो दिन भी आ गया जब बूंदी के घर नये मेहमान का आगमन हुआ। शंकर भी मिलने पहुंचा।और जाता भी क्यू न वह तो वही है भले ही बूंदी परायी हो गई हो।
इस पर बूंदी ने मिलते ही शंकर पर सवाल दागा, कब शादी कर रहे हो शंकर???? कब तक अकेले यहां वहां भटकते रहोगे?शादी कर लो जिन्दगी संवर जाएगी।और शंकर बस मुस्कुरा कर रह गया।
कुछ दिनों बाद बूंदी  शंकर के पास आई ।इधर कई
महीने बीत गए गए बूंदी के घरवाले की कोई पाती न आई थी। इसलिए शंकर भी उसके घर न गया था।जाता भी तो किस लिए? बूंदी के आग्रह में उसने उसके पति के लिए पत्र लिखना शुरू किया।।।।कभी उसके शब्दों को पत्र में लिखता कभी उसकी भावनाओं को ।
पत्रो का सिलसिला  शुरु हुआ तो बूंदी भी खूब खुश दिखने लगी।कभी उसके घरवाले की पाती आती तो कभी कभी वो मनीआर्डर से पैसा भी भेजता।। गांव के अधिकांश लोगों की तरह बूंदी के  हर पाती की आंख और जुबान शंकर बनता पर क्या मजाल जो किसी की भी बात इधर से उधर हो।
समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ चला। बूंदी अब गांव के लोगों के लिए "बुंदिया "हो चली थी उधर "शंकर" गांव वालों के लिए "डाक बाबू"। बुंदिया के बालों में फैली चांदनी उसकी उम्र का हिसाब रखती।इधर डाक बाबू भी अब उम्र के कई पड़ाव पार कर चुके थे।आज भी बुंदिया जब तब उसे विवाह के लिए कहती रहती। डाक-बाबू  बस हंस के रह जाते। कहते भी तो क्या ????
इधर कई दिनों से गांव वालों ने डाक-बाबू को नहीं देखा। बुंदिया की भी इधर कोई पाती नहीं आई तो डाकबाबू को उसने भी न देखा।तो सोची घर जा कर ही चिठ्ठी लिखवा लेगी।घर पहुंच ने पर डाक-बाबू को आवाज दी किन्तु कोई उत्तर न पा वह अन्दर गई।डाक-बाबू चिरनिंद्रा में विलीन हो चुके थे।घर में सामान के नाम पर कुछ पाती बुंदिया के नाम थी पर भेजने वाले के नाम की जगह ख़ाली पड़ी थी।एक पत्र जो अब तक पीला पड़ चुका था वह सेना की बटालियन की तरफ से उस के मांग के सिन्दूर के उजड़ने की खबर का साक्षी था ,जो उस समय आया था जब बुंदिया के गोद का लाल काल का ग्रास बना था।
अगले दिन गांव वालों को बुंदिया के न रहने की खबर आई।अब पाती का सिलसिला जो बन्द हो चला था।

शब्द प्रयास
सीमा सिंह

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