हवाएं शांत पड़ी सो रहीं हैं बिस्तर पर
और हम झेल रहे हैं घुटन
वो घुटन जिसकी कोई सीमा नहीं
आओ जाकर इन्हें जगाएं तो
इनसे कुछ छेड़छाड़ करे
जिससे ये करवटें बदलें
पहले ऊं ऊं भी करें
किंतु फिर बाद में ले अंगड़ाई
जाग उठ्ठें ये आंख मलती हुईं
और फिर इनके दुपट्टे फड़कें
इनके कांधों से फिसल
उड़ चलें चारों दिशाओं में
एक उन्माद सा बिखर जाए
दिल दिमाग देह की शिराओं में
जागना इनका बहुत ज़रूरी है
यह घुटन वरना मार डालेगी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 22 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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