बुधवार, 17 जून 2020

शोध लेख अनुस्यूत / डाक्टर बहादुर मिश्रा





*अनुस्यूत बनाम अनुस्युत*

यह विषय मेरी प्राथमिकता सूची में नहीं था। एक दिन मैं पी-एच्.-डी. संचिका निबटा रहा था। एक विश्वविख्यात विश्वविद्यालय के ख्यात प्राचार्य का प्रतिवेदन पढ़ रहा था। उसमें एक स्थल पर ‘अनुस्युत’ का प्रयोग देखकर हतप्रभ रह गया; क्योंकि छात्र और शिक्षक- दोनों रूपों में उनकी यशस्विता असंदिग्ध रही है। पहले सोचा कि दूरभाष पर ही उनका भ्रम-निवारण कर दूँ। फिर विचार आया कि ‘पोस्ट’ ही डाल देता हूँ। इससे अन्य पाठक भी लाभान्वित हो जाएँगे। अन्यत्र इसके अनियंत्रित प्रयोग देख-देख कुढ़ ही रहा था कि उक्त महाशय की इस भाषिक विच्युति ने एतद्विषयक विमर्श के लिए तत्क्षण विवश किया। यह शब्द-विमर्श उसी चिन्ता की प्रसूति है।
   अनु+षिवु(तन्तुसन्ताने) >सिवु (आदेश)> सि (व् >ऊ) सि+ऊ (यण् सन्धि)= स्य् +ऊ = स्यू+ क्त > त = अनुस्यूत का अर्थ होता है-- अच्छी तरह सिला हुआ/ गज्झिन बुना हुआ/ सुशृंखलित/ सुषक्त/ नियमित तथा अबाध रूप से सटा-सटाकर बुना हुआ/well woven/well fabricated/well knitted ।

 निवेदन कर दूँ कि ‘अनुस्यूत’ मूलतः बुनकरी-क्षेत्र (weaving field) का शब्द है। भाषा में यह वहीं से चलकर आया है। जब शब्दों, वाक्यों,महावाक्यों (प्रोक्तियों) या अनुच्छेदाें में तनिक भी बिखराव न हो, अर्थात् भाषा की सभी इकाइयाँ परस्पर सम्बद्ध हों, संग्रथित हों या सुगुम्फित हों, तब अनुस्यूति की स्थिति बनती है।
   ‘अनुस्यूत’ का ‘अनु’, जैसा कि आप जानते हैं, पूर्व प्रत्यय, अर्थात् उपसर्ग (prefix) है। इसका अर्थ पीछे या पश्चात्/ साथ-साथ/ पास-पास/ के बाद/ भाग (हिस्सा)/ आवृत्ति इत्यादि होता है। यहाँ ‘पश्चात् और पास-पास’ वाला अर्थ अभीष्ट होगा। इसमें क्रमिकता के साथ-साथ अनवरतता का भाव भी अन्तर्भुक्त है। ‘अनुस्यूत’ के सन्दर्भ में लगातार एक धागे के पीछे बिल्कुल सटाकर दूसरा, दूसरे के पीछे तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा धागा इसतरह टाँकना, सीना, बुनना या गूँथना कि दो धागों के बीच से हवा भी न निकल पाए। इससे न केवल सुदृढ़़ता आती है, बल्कि सुघरता भी। इसतरह, ‘अनु’ उपसर्ग यहाँ क्रिया की बारम्बारता के साथ-साथ संहिता, संपृक्तता या सघनता का भी अर्थद्योतन करता है; यथा- अनुकरण, अनुसरण, अनुधावन, अनुरणन, अनुगुञ्जन, अनुश्रवण, अनुवर्तन इत्यादि।
   ‘षिवु’ दिवादिगणीय परस्मैपद धातु है, जिसका अर्थ सिलाई करना होता है। ‘षिवु’ का पूर्वार्ध ‘षि’ ‘धात्वादेः षः सः’ (अष्टा.: 6/1/62) से ‘सकार’ आदेश होकर ‘सिवु’ बन गया, जिसका धात्वर्थ ‘सिवु तन्तुसन्ताने’ (4/2, प. सीव्यति) होता है। (द्रष्टव्य: संस्कृत-धातुकोषः ; सं.- युधिष्ठिर मीमांसक; पृ. 131) अगले चरण में यह ‘सिवु’ 'उ' लोप से  ‘सिव्’ बन जाता है, फिर ‘सिऊ’। प्रश्न है, ‘सिऊ’ का परार्ध ‘ऊ’ कहाँ से आ गया? उत्तर होगा- ‘श् ऊठ् आदेश विधिसूत्रम्’ के अन्तर्गत ‘छ्-वोः’ शूडनुनासिके च ‘‘(अष्टा.: 6/4/19) सूत्र के अनुपालन से। आखिर क्या कहता है यह सूत्र? सूत्र कहता है कि ’’च्छ् व इत्येतयोः स्थाने यथासंख्य श् ऊठ् इत्येतौ आदेशौ भवतोऽनुनासिकादौ प्रत्यये परतः, क्वौ झलादौ चविक्ति’’, अर्थात् अनुनासिक, क्वि तथा झलादि कित्   डि्.त्  प्रत्ययों के परे रहते ‘च्छ्’ एवं ‘व’ के स्थान पर यथासंख्य करके शूठ् ‘श’ और  ‘ऊठ्’ आदेश होते हैं। उदाहरणार्थ - वकारस्य ऊठ् स्योनः। वकारस्य क्वौ अक्षद्यूः आदि। ‘यथासंख्यमनुदेशः समानाम्' परिभाषा से ये आदेश क्रमशः होते हैं। दूसरे शब्दों में, ‘छ्’ का ‘श्’ तथा ‘व्’ का ‘ऊठ्’ आदेश होता है। चूँकि, यहाँ ‘सिव्’ वकारान्त है, इसलिए इसमें ‘ऊठ्’ प्रत्यय लगेगा। ‘ऊठ्’ से ‘ठ्’ का लोप होकर ‘ऊ’ शेष रह जाता है। आगे ‘यण्’ स्वर सन्धि बनाने में सहायता करने वाले सूत्र ‘इको यणचि' (अ.; 6/1/77) से ‘सिऊ’ = स्य्+ऊ = स्यू में परिणत हो गया।
    ‘अनुस्यूत’ ने अबतक कई कठिन चरण पार कर लिये हैं। यहाँ तक आते-आते ‘अनुस्यू’ मात्र बन पाया । अब उसे ‘त’ की प्राप्ति करनी पड़ेगी, अतः उसे भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय ‘क्त’ का आवाहन करना होगा। लीजिए, ‘अनुस्यू’ ने आवाहन किया नहीं कि ‘क्त’ उससे सटकर खड़ा हो गया। फलस्वरूप, ‘अनुस्यू + क्त = ‘अनुस्यूक्त’ तो हो गया, किन्तु ‘अनुस्यूत’ नहीं बन पाया। इसके लिए उसे एकबार पुनः विनती करनी होगी। और विनती किससे? ‘क्त’ के ‘क्’ से - ‘‘मुझे, सुघर और जनप्रिय रूप् देने के लिए हे ‘क्’ महोदय! ‘त’ का साथ छोड़ दीजिए।’’ ‘क्’ ने उसका कहा मानकर ‘त’ को स्वतन्त्र कर दिया, ताकि ‘अनुस्यू’ के साथ जुड़कर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके।
 जिसतरह मोती स्वयं को छिदवाकर किसी का गलहार बनता है, उसीतरह ‘अनुस्यूत’ भी कई चरणों की ठुकाई-पिटाई के बाद भाषा-प्रेमियों का लाड़ला बनता है।
 अब मैं कुछ प्रयोग सामने रख रहा हूँ, ताकि किसी के मन में कोई संशय न रह जाए। देखिए -
* ‘‘ऊतं स्यूतमुतं चेति त्रितयं तन्तु सन्तते’’ - अमरकोषः (रामाश्रमी भाष्य); पृ. 383
*  स्यूतः प्रसेवके ; वही
*  स्यूत प्रसेवौ ; वही; पृ. 310
* ‘‘स्यूतं स्यूतं पुनरपि च यच्छीर्यते धार्यमाणं
    गात्रे क्लृप्तं कथमपि तथाऽच्छादने नालमेव।
    धृत्वा देहे हिममयमितं श्वेतकार्पासवस्त्रं
    पृथ्वी शेते विकलकरणा निर्धना गेहिनीव।। (राधावल्लभ त्रिपाठी)
(दरिद्र गृहिणी की तरह व्याकुल इन्द्रियों वाली धरती ठंढे सफेद सूती वस्त्र को धारण कर सो रही है। बार-बार सीये जाने (स्यूतं-स्यूतं) के कारण वस्त्र धारण करने पर फटा जा रहा है। फलस्वरूप, वह न तो अंग ढँकने के काम आ रहा है और न ही ओढ़ने के काम।
 छंद का प्रारंभ ‘स्यूतं-स्यूतं’ से हुआ है। उनमें ‘अनु’ उपसर्ग लगा दीजिए तो ‘अनुस्यूतं अनुस्यूतं’ की सृष्टि हो जाएगी।
 इदमित्थं, सिद्ध हुआ कि ‘अनुस्यूत’ ही साधु प्रयोग है, न कि ‘अनुस्युत’। अतः, ‘अनुस्युत’ के प्रयोग को निन्द्य मानते हुए सदा और सर्वत्र ‘अनुस्यूत’ का ही प्रयोग किया जाना चाहिए।

        घर से जब भी निकलें, मुखावरण/मुखच्छद/नासावरण/नासाच्छद  पहनकर ही निकलें।

 - बहादुर मिश्र
 21 मई, 2020

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