कभी कभी लघुकथा भी ( श्री राजेश मांझवेकर जी के अतिथि संपादन में पत्रिका सत्य की मशाल में )
लॉकडाउन में बस
सुभाष चंदर
वह तीन दिनों से लॉक डॉउन में फंसा हुआ था। कहीं से उड़ती उड़ती खबर मिली कि बस अड्डे से बसें उसके राज्य की तरफ जा रही हैं। वह किसी तरह पुलिस से बचता बचाता बस अड्डे पर पहुंच गया । वहां जाकर पता लगा कि मजदूरों को लेकर तीन बसें जा चुकी थीं ।चौथी बस जाने वाली थी। बस पर जिस शहर का नाम लिखा था, वह जगह उसके इलाके से से लगभग 200 किलोमीटर थी ।पर मन में सोच थी कि एक बार किसी तरह अपने प्रदेश में ,अपने लोगों के बीच पहुंच जाएं बस।आगे तो पैदल भी पहुंच जाएंगे।सो वह आगे बढ़ गया।बस के पास ही एक तरफ मजदूरों के नाम, पते, मोबाइल नंबर वगैरह नोट किए जा रहे थे।एक नेता टाइप आदमी सब नोट कर रहा था। उसके बाद ही मजदूरों को बस में बिठाया जा रहा था। लाइन लगी थी , वह भी उसका हिस्सा बन गया । जब उसका नंबर आया तो उसने भी अपना नाम, गांव, जिला बताया तो वह नेता भड़क उठा। बोला ," माइक पे एनोंस हो रहा है और बस पे इतना बड़का बड़का अच्छरों में सहर का नाम लिखा है। फिर तुम आए काहे लाइन में।ये बस तुम्हारे सहर नहीं जाएगी।" पर वह नहीं माना। चिरौरी करने लगा ।हाथ जोड़कर बोला ," मालिक , हमें भी ले चलो। हम आगे पैदल ही चला जाऊंगा । हमरा मेहरारू बहोत बीमार है।हमारा जाना बहुत जरूरी है।" पर वो नेता टाइप उसकी दलीलों से प्रभावित नहीं हुआ। वह तब भी उसकी खुशामद करता रहा।हारकर नेता ने उसे एक हट्टे कट्टे आदमी के हवाले कर दिया। वह आदमी उसे एक कोने में ले गया और बोला ,क्यों बे ,यहां क्या खैरात बंट रही है।अबे ,ये तो नेताजी के चुनाव क्षेत्र की बसें हैं ।इसमें वो ही जाएंगे जिनके पास वोट हैं। एक मजदूर 100 को बताएगा।बसों में 1000 मजदूर भेज दिए तो लाख वोट पक्के।बेटा ,ये भविष्य का इन्वेस्टमेंट है।रहा तू तो तुझे ले चलने से क्या फायदा।ना तू वोट देगा ,ना किसी को वोट देने को बोलेगा।फिर तुझे क्यों ले जाएं" । फिर हंसकर बोला ,"आया हिसाब समझ में।"
उसको सचमुच हिसाब समझ में आ गया। उसने स्वीकृति में सिर हिलाया और चुपचाप वहां से सिर झुकाए निकल गया ।
शुक्रिया जी
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