तमाशा / जयनंदन
कोई मायने नहीं रखता
घुप्प अन्हरिया रात के आगे रंग काला
चोर के आगे ताला
और बेईमान के आगे केवाला।
उघारे कमजोर बदन को
कैसे छोड़ेगा पूस का पाला
गैंता-कुदाल का वह वंशज
जिसकी हथेली में है दरार और पैरों में छाला
कब तक माटी पर टिका रहेगा गंदी हवा पीकर
जब रोज उसके आगे से छिन रहा है निवाला।
हर कोई मीरा तो नहीं हो सकता
जो जिंदा रहे पी-पीकर जहर का प्याला।
अब इस तमाशा को बंद करना चाहता है ग्वाला
चतुराई से बांस के सहारे खड़ा करके
मरे हुए पशुओं के कंकाल में लगाकर मसाला
यह साबित करने के लिए कि इस इलाके में
उम्दा, नायाब और बेहतरीन है उसकी गौशाला।
एक राक्षस के उदय से गांव के कल पर
भयानक कत्लेआम है मचने वाला
क्योंकि उसका प्रिय शौक है पहनने का
भोले किसानों के मुंड की माला।
थके हुए, टूटे हुए, हारे हुए और निचुड़े हुए
माटी-पुत्रों का कौन होगा रखवाला
जबकि पहरेदार और चोर की दूरी मिट गयी है
और उसके हाथों में थमा दिया गया है
बहुमत से एक चोख और पैना भाला।
(1989 में लिखी)
सटीक कविता
जवाब देंहटाएं21 वर्ष पहले लिखी गई व्यवस्था पर उंगली उठाती रचना आज भी मौजू है क्योंकि स्थितियां आज भी बदतर होती जा रही है
इसमें कोई संदेह नहीं कि जयनंदन की यह कविता मानवीय संवेदनाओं को जगाने में और जनमत को आमजनों के पक्ष में खड़ा करने में पूरी तरह सक्षम है। चौकीदार और चोर का गठजोड़,वह भी बहुमत से, भारतीय राजनीति के काले पक्ष की ओर इशारा करती बेहतरीन पंक्तियां हैं।
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