हुआ यूं के...शम्मा हर रंग मे जलती है सहर होने तक / आलोक यात्री
पिताश्री के चचा ग़ालिब के साथ मुब्तिला होने का वाकया तो मैं सुना ही चुका हूं। जिस पर आप सभी ने दिल खोलकर प्रतिक्रिया दी है। लेकिन इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आदरणीय श्री गोविंद गुलशन जी ने दी है।
आदरणीय श्री गुलशन जी की शोधपरक टिप्पणी न सिर्फ इस ग़ज़ल के मर्म को समझने में सहायता करती है बल्कि पिताश्री के ग़ज़ल में मुब्तिला होने की वजह भी बताती है।
मैं भाई गुलशन जी की यह महत्वपूर्ण टिप्पणी आप सभी से इस उम्मीद में साझा कर रहा हूं कि सोच का, किसी ख्याल का विस्तार कैसे होता है
बहुत बहुत आभार गुलशन जी 🙏🙏
📎📎 गुलशन जी की टिप्पणी...
रात आधी हो चली थी, नींद पता नहीं क्यूँ ख़फ़ा-सी थी और तो और कोई ग़ज़ल का मिसरा भी उस वक़्त ज़ेहन में नहीं आ रहा था। सो मोबाइल के अलावा कोई और सहारा वक़्त गुज़ारने के लिए नहीं था। इसलिए यू ट्यूब पर बर्फ़ीले पहाड़ों पर आध्यात्मिक यात्राओं की वीडियो देखने का मन बनाया। वीडियो देखने की शुरूआत की तो तीन बजने को हो आए। अचानक एक पथरीले पहाड़ की ऐसी वीडियो सामने आ गई जिसने मुझे देखते रहने के लिए मजबूर कर दिया। एक शख़्स पेचकस और छोटी हथौड़ी से उस पथरीले पहाड़ को तोड़ रहा था। साथ में दो पानी की स्प्रे की बोतलें भी रखी हुईं थीं। जिनका इस्तिमाल खुदी हुई जगह पर स्प्रे करने के लिए कर रहा था। एक खुदी हुई जगह जैसे ही उसने पानी का स्प्रे किया तो एक काँच नुमा पत्थर दिखाई दिया। उस शख़्स ने फ़ौरन से पहले एक छोटी टॉर्च निकाली और जलाकर उस काँच नुमा पत्थर पर रख दी। जिसके बाद अंदर तक नीले रंग की रौशनी फैल गई। अब उस शख़्स के हाथ बड़े एहतियात से अपने हुनर को अंजाम देते जा रहे थे। खुदाई होते रहने से उस काँच नुमा पत्थर का आकर बड़ा होता जा रहा था। फिर जैसे ही दोबारा पानी का स्प्रे किया तो उस शख़्स की आँखों की चमक पहले से ज़्यादा बढ़ चुकी थी। अस्ल में वो काँच नुमा पत्थर ब्लू शैफ़ायर था।
मेरी ख़्वाहिश तो यही थी कि मैं इस वीडियो को अंजाम तक देखूँ। मगर एहतियात से काम लेने की हद भी होती है। इन्तिज़ार जानलेवा होता जा रहा था। पत्थर अपनी कसावट पहाड़ के भीतर बनाए हुए था मुझे कब नींद ने अपने आग़ोश ले लिया मुझे नहीं पता...
ये ज़मीं और आस्माँ ग़ायब
सो गए हम तो कुल जहाँ ग़ायब
(गोविन्द गुलशन)
सुबह देर से आँख खुलना तय था। सोशल मीडिया पर दुआ-सलाम के बाद मेरा ज़ेहन रात वाली ब्लू शैफ़ायर की वीडियो पर फिर से पहुँचा तो मिर्ज़ा ग़ालिब साहब की ग़ज़ल का मतला याद हो आया
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
ये मतला भी ऐसा है जिसे समझने के लिए एक उम्र कम पड़ जाए। बहुत से दानिशवर ग़ालिब साहब को समझने की कोशिशें करते रहे हैं और कोशिशें जारी भी हैं।
एक दो जगह पढ़ने में ये बात भी सामने आई कि इस ग़ज़ल की रदीफ़ "होने तक" गाई तो गई है मगर ग़ालिब साहब के दीवान में "होते तक" ही है
ऐसे भी "होने तक" और "होते तक"में सिर्फ़ एक नुक़्ते का फ़र्क है
गोविन्द गुलशन
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