शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

पंकज़ बिष्ट की दुनियां / राकेश रेणु

 दिल्ली आने के थोड़े समय बाद ही ‘समकालीन परिभाषा’ के प्रकाशन और फिर कुछ अंकों बाद आठवें दशक की कहानियों पर केंद्रित उसके विशेषांक की योजना बनी। साहित्य में मैं बाहरी आदमी था। आज भी कमोबेश यही स्थिति है।  छिटपुट पढ़ता था और दिनभर नौकरी के बाद उससे बहुत कम लिखना हो पाता था। एक किस्म का उत्साह और कुछ करने की ललक इस पत्रिका के प्रकाशन के फैसले का आधार बने। वही ललक और उत्साह इसके विशेषांकों की योजना के पीछे भी था।


    जब हमने ‘समकालीन परिभाषा’ के आठवें दशक की हिंदी कहानियों पर केंद्रित विशेषांक की योजना बनाई तो सबसे पहले उसमें कहानी के क्षेत्र में सुज्ञात लोगों से परामर्श लेने का निर्णय लिया। तब तक पंकज बिष्ट के पहले उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ को पढ़ चुका था। उन दिनों उनकी एक कहानी ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ की खासी चर्चा थी। विशेषांक के लिए चुनी गई कहानियों में यह भी शामिल थी। दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में आ रहे बदलाव और जनमानस में उपभोक्तावाद की ओर बढ़ते रुझान तथा भारतीय समाज व निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों पर उसके प्रभाव को इंगित करने वाली यह एक महत्वपूर्ण कहानी है। अपनी प्रभावोत्पादकता और चमत्कृत कर देने वाली अर्थ-व्यंजना के चलते यह कहानी आठवें दशक की 10 श्रेष्ठ कहानियां में से एक के रूप में चुनी गई और विशेषांक में स्वतंत्र आलेख के साथ प्रकाशित हुई। पंकजजी से व्यक्तिगत मुलाकात इस विशेषांक के प्रकाशन के कई वर्ष बाद, 1996 में, तब हुई जब प्रकाशन विभाग में तबादले पर दोबारा मेरी नियुक्ति हुई। इससे पूर्व ‘आजकल’ में उनके संपादन में मेरी कविताएँ प्रकाशित हो चुकी थी।


    पंकजजी ‘आजकल’ के संपादक थे और एक बहुचर्चित कथाकार- उपन्यासकार। उनका दीप्त व्यक्तित्व और गहरी सुलझी हुई बातें खासा प्रभाव डालने वाली हुआ करतीं। उनके कमरे में हिंदी के प्रायः सभी वरिष्ठ रचनाकार आया करते। यदा-कदा वहाँ जाने पर उनमें से कुछ से मिलना भी हो जाता। त्रिलोचन जी से हुई पहली भेंट मेरे लिए रोचक और प्रेरक थी। असगर वजाहत से भी वहीं पहली मुलाकात हुई।


     हिंदी पत्रकारिता के आरंभ से ही पत्रकारिता और साहित्य का एक तरह से चोली-दामन का साथ बना रहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र  से लेकर अब तक यह परंपरा अबाध रूप से चली आई है। पंकज बिष्ट की साहित्यिक पत्रकारिता को उसी अटूट श्रृंखला की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक मुक्ति के बाद पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से ‘समयांतर’ की निर्भीक और चुनौतीपूर्ण पत्रकारिता इस श्रृंखला की अगली कड़ी होते हुए भी कई मायनों में ‘आजकल’ की संपादकी से काफी अलग है। 


      ज्ञानरंजन और राजेंद्र यादव सरीखे कथाकारों ने कथा लेखन स्थगित होने अथवा करने के बाद साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा जबकि भारतेंदु, प्रेमचंद, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि की सुदीर्घ परंपरा में पंकज बिष्ट ने भी पत्रकारिता के साथ-साथ मंथर गति से ही सही, सर्जनात्मक लेखन जारी रखा। इन सभी रचनाकारों की तरह पंकजजी के रचनात्मक लेखन ने उनकी पत्रकारिता को और पत्रकारिता ने उनके कथाकार को पुष्ट किया होगा। ऊपर जिन साहित्यकारों-पत्रकारों की चर्चा की गई है उनमें और पंकज बिष्ट की स्थिति में फर्क यह है कि पंकजजी ने जो पत्रकारिता स्वैच्छिक अवकाश लेने के बाद की, वह मात्र साहित्यिक पत्रकारिता नहीं है। वह समाज को प्रभावित करने वाले विभिन्न  कारकों पर गौर करने वाली, उनका सचेत मूल्यांकन और गंभीर हस्तक्षेप करने वाली पत्रकारिता है जिसके ‘पीर बावर्ची भिश्ती खर’ स्वयं पंकज बिष्ट हैं।


      'समयांतर' की पत्रकारिता ने, उनकी संपादन दृष्टि और समाज के विभिन्न पक्षों- राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति के विविध पहलुओं पर उनकी चिंताओं और प्रखर टिप्पणियों ने उनकी एक जुझारू और क्रांतिकारी वैचारिक की छवि मजबूत की है। वे लेखन को राजनीतिक कार्य मानते हैं और यह कहते आए हैं कि हमारा हर शब्द हमारी पक्षधरता को बताता है। उनका कथा साहित्य इसे बार-बार पुष्ट करता है। वे रेखांकित करते हैं कि संकेतात्मकता और प्रतीकात्मकता से सामाजिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता इसीलिए वे कहते हैं कि ‘जो राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई है वह अपनी जगह है। उसकी तात्कालिकता को आप साहित्य और कलाओं की प्रतीकात्मकता से नहीं लड़ सकते। यह उस लड़ाई में सहायक जरूर हो सकती है। पर उस लडाई को लड़ना राजनीतिक तौर पर ही होगा’। अपने समय और समाज को बेहतर बनाने की यह इच्छा पंकज बिष्ट के समग्र लेखन और उनकी पत्रकारिता का भी अभीष्ट है। दोनों ही स्तरों पर उन्हें अभी यह काम जारी रखना है। 


      उन्हें 75वें जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!

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