2013 से सीरियसली साहित्य का सफ़र शुरु हुआ था... उसी साल पहला कहानी संग्रह आया था.
उसके पहले तीन किताबें आईं थीं जो कथेतर थीं.
पहली कहानी -2009 में लिखी. हंस में छपी. फिर कुछ दिन का विराम.
कहानियाँ लिख लिख कर रखती रही. कभी छपने भेज देती थी. कहीं से कोई कहानी लौटी नहीं. ज़्यादा पत्रिकाओं में भेजी भी नहीं. छपने की बहुत ख़्वाहिश इसलिए नहीं कि हम तो दूसरों को छापते रहे पच्चीस साल.
खुद भी छपते रहे. देश के नामी अख़बार, बेल पोर्टल और पत्रिका में काम किया. जो चाहिए.. सब हासिल किया. साहित्य की ओर लौटना था. कॉलेज के दिनों से साहित्यिक संस्था “ साहित्य कुंज “ चलाती थी. उस समय के साथी गवाह हैं. हमारी संस्था से जुड़े कई साथी आज स्थापित लेखक हैं.
हाँ तो...
कहानी लिखने लगी...गति तेज रखी. लोग अपनी किताबों और कहानियों की संख्या दिखाते थे, गिनाते थे. मुझे लगता था... उम्र इतनी हुई, कुछ न लिखा. गहरी हताशा होती थी. अपने नाकारेपन पर कोफ़्त.
फिर तेज दौड़ना शुरु किया...
सब काम छोड़ कर ...
पत्रिका बंद होने के बाद भी डिजीटल संपादक के रूप में साल भर काम किया. वहाँ मन न लगा. तब से खाली...
स्वतंत्र पत्रकारिता करती हूँ. लखनऊ के एक सांध्य अख़बार में रिपोर्टिंग करती हूँ. भारत सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार हूं. यानी पी आई बी accredited.
कम को नसीब. इसके लिए पूरा करियर लगता है.
मैंने हासिल किया... लगातार काम करते हुए.
आज ये सब बताने का मन हुआ कि अब मुझे लगता है...
मुझे थम कर काम करना चाहिए. बहुत दौड़ लिए. हाँफ नहीं रही हूँ. वे हाँफ रहे हैं. देखने वाले हाँफ रहे. पाठक नहीं.
लोग मेरी दौड़ से परेशान हैं. इतना जल्दी जल्दी कैसे लिख लेती है. क्यों लिखती है... जाने क्या लिखती है...
एक चित्रकार हज़ारों पेंटिंग बनाता है... उसे आप किसी एक पेंटिंग या एक सीरिज़ के लिए याद करते रहते हैं.
यूरोपियन चित्रकारों और महान भारतीय चित्रकारों को आँख मूँद कर याद करिए...
पिकासो, दाली, मातिस, वॉन गॉग... गोयथे... सूजा, हुसैन, रजा ... तैयब, बेंद्रे, स्वामीनाथन, अमृता शेरगिल, आरा, रवि वर्मा, यामिनी राय... कितने नाम गिनाऊँ.
जो कला रसिक हैं... वो मेरी बात समझ सकते हैं. क्यों हम बीथोवन की सिंफ़नी -9 को याद करते हैं जबकि उसकी अन्य सिंफ़नी भी उतनी ही महान है.
गायकी याद करिए. हज़ारों गीत गाने वाले गायकों की आवाज़ कुछ गानों में ही रुह बन कर बस जाती है.
वे सब बेहतर देने की कोशिश करते हैं.
मैं भी!
मैं गति धीमी तो कर लूँ... मगर क्या आने वाले कल में मेरे जीवित होने या काम करने की गारंटी कोई लेगा?
मुझे नहीं पता कि कल हूँ या नहीं. कल मैं लिख पाने लायक़ बचूँगी या नहीं. उम्र बढ़ रही है.... ढलान की तरफ़ रोज़ उतरती हूँ. किसी पहाड़ी स्त्री से पूछिए जब वह पीठ पर घास और लकड़ी का गट्ठर लाद कर ढलान से नीचे उतरती है तब कैसा महसूस करती है.
मैं कुछ ऐसा ही महसूस करती हूँ....
मेरी पीठ पर कोई बेताल चढ़ा हुआ है. आँखें जंगल और नदी हुई पड़ी हैं. ऊंगलियां तड़पती हैं... अपनी
भाषा में कलप उठती हूँ ...
मैं थम जाती हूँ... गति कम करती हूँ... तो रोज शव साधना करना पड़ता है.
मर जाती हैं कहानियाँ.
बहुत शोध करके बैठी हूँ... बहुत कंटेंट हैं...
गति भी तेज थी...
अब थाम ली लेखन की वल्गा.
लोग मानते हैं कि बहुत लिखने वाले औसत लेखन भी करते हैं.
फिर कहूँगी कि महानायकों की फ़िल्में याद करिए. तीन सौ फ़िल्में करते हैं तब तीन भूमिका अविस्मरणीय रह जाती है.
आप मेरी चिंता न करिए.
तीन किताब , तीन कहानी या तेरह बातें भी बच गईं तो सार्थक जीना मरना.
वैसे भी मेरे विचार बदल गए है-
जी रही हूँ ... इसलिए लिख रही हूँ.
जीएंगे तो रचेंगे. रचने के लिए ज़िंदा नहीं हूँ.
मैं हर पल ज़िंदगी का रस सोखती हूँ. न मेरा रंग उधार का न किसी साहित्य के निर्मल बाबा की कृपा.
वे कृपाएँ अटकी हुई हैं.
किसी और पर बरसें.
हम तो लिख कर आनंद लेते. मेरे लिए यही अनुष्ठान है.
आइए .. ख़ुश होते हैं. 🌹😍
ये नीचे तस्वीर में कहानी संग्रह हैं. बारी बारी से किताबों की तस्वीरें डाली जाएँगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें