मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

गीताश्री की नौ कविताएं

 गीताश्री  की कुछ कविताएं 

============================

पत्थर पर चोट करता है पत्थर 



पत्थर पर चोट करता है पत्थर
दोनों टूटते हैं थोड़े थोड़े
दोनों चनक जाते हैं कई जगह से
चोट करने वाला पत्थर क्यों नहीं समझता
कि चोट करने से पहले ही टूट जाती है
उसकी लय
उसके भीतर का जीवन
जिसमें जंगल उगाने की अपार ताक़त और संभावनाएँ होती हैं
सूखा और निर्मम पत्थर
सिर्फ़ चोट करना जानता है
स्थिर , अपने भाग्य से जूझता हुआ
निश्चेष्ट पत्थर
एक दिन पूरा जंगल आयात कर लेता है.
उसकी सुरक्षा वाहिनियों में तैनात हो जाते हैं
कई कई ऐरावत
अपनी सूँड़ों में भर कर आबे जम जम
छिड़कते हैं वृक्षों पर
पत्तों का हरापन धूप का उधार है
मेघों के ज़रिये चुकाता है जंगल
हर बरस , बरस बरस कर ... !!


2

खुद को थोड़ा छोड आई हूँ वहाँ /थोड़ा तुम संभाल लेना /


मैं खुद को थोड़ा छोड आई हूँ वहाँ /थोड़ा तुम संभाल लेना /
कुछ ले आई हूँ अपने साथ / जैसे कोई स्त्री ले जाती है अपने साथ लोकगीतों की कॉपी/  ब्याह के बाद

उसका सबकुछ दूसरे तय करते हैं / कॉपी ले जाना वो खुद तय करती है / कि दर्ज होता है उसका समय /उसका उत्सव और उल्लास/ थोड़े दुख - दर्द...थोड़ा शुरु होने से पहले खत्म हो गया प्यार/ कोर्स की सबसे सुंदर कॉपी में / गीत लिखती रहती थी...
जिसमें थोड़ा तुम्हें रखा है, पूरा अपने को !
तुम्हें विद्या क़सम !!
मोरपंख निकाल लेना. अब वो कभी डबल नहीं होंगे.
हेमा मालिनी के चित्र वाली कॉपी में दबाए रहना सूखे फूल
वे सदियों रंग छोड़ते रहेंगे पन्ने पर.
उन पर लिख लेना क़र्ज़ों का हिसाब
जो उम्र भर न चुकाए जा सकेंगे
कुछ कर्ज चुकाए नहीं जा सकते

3

यात्राएँ कम हुईं मगर पाँव चलते रहे



यात्राएँ कम हुईं मगर पाँव चलते रहे
किसी अनजाने , अनदेखे प्रदेश तक जाने वाली ट्रेन की टिकट ना मिली
ना ही कोई वाहन चालक वीराने के सफ़र पर जाने को तैयार हुआ
मेट्रो स्टेशन पर खड़े खड़े मैंने इंजीनियरों को सलाम भेजा
कि
ट्रैफिक से बचा दी जान
ठंडी हवा उपलब्ध कराई और
मुफ़्त की कितनी व्यथा-कथाएँ सुनवाईं
यात्राएँ कम हुईं तो क्या
पाँवों में गति तो वैसी ही बनी रही
हर पहिये के साथ गति और तेज़ होती रही
कई बार लगा
मैं पहिये में बदल गई हूँ
और मेरी देह पर सीट बेल्ट कसा हुआ है
न दौड़ने दे रहा है न लुढ़कने
बस
अब मेरी दो आँखें दूर से देखती हैं
सपनों की कब्र पर घास - सी उगी हुई मैं
कभी भी नोंच कर फेंकी जा सकती हूँ
मेरी जड़े इतनी कमजोर
कि कॉफीन तक भी न पहुँच सकी
सारी उम्र इसी भरम में रहे
कि घासों की भी जड़े होती हैं
नोंचने के बाद भी मिट्टी में सुगबुगाती रहती हैं
अब तो जड़ समेत उखाड़ने का हुनर
सीख गई है दुनिया
मिट्टी का सारा तेवर बदल गया है ...l 


4
तुम्हारे पानी पर मेरी पर्ण कुटी



तुम्हारे पानी पर मेरी पर्ण कुटी
तैर रही थी
उसके भीतर एक शय्या थी
कुछ सिलवटें भी,
फटी हुई मच्छरदानियों के भीतर 
अपनी कुछ ऊंघती हुई नींदें छोड़ गया था
बार बार लौटने के लिए 
मेरे सपनों को मत्स्यगंध की आदतें हैं
और जल-जंतुओं के संगीत की लत
इन सबको नींदों के सिरहाने छोड कर
रोज़ जाता हूँ
जल-प्रांतर में
लौटता हूँ किसी उम्मीद से भरा
कि
नींदों से निकल कर अग्नि
मेरे चूल्हों में सुलगने लगी होगी
मेरा तैरता हुआ घर कुछ और दूर खिसक आया होगा
उसकी ज़मीन से
उसे मालूम हो कि
रेत पर बने घर से बेहतर होते हैं
पानी पर तैरते घर !


5


मेरे पास नहीं है तर्कों का ज़ख़ीरा



मेरे पास नहीं है तर्कों का ज़ख़ीरा
बस एक लगाव है और संवेगों का झोंका
जो मेरे बालमन पर छाया रहा ...
मैं न किसी को ख़ारिज करने के अपार वाकजाल बुन सकती हूँ
और न मैं इतना श्रम करुंगी कि कोई नष्ट हो जाए मेरे शब्दों से, मेरे सोचने भर से
कुछ लोग शब्द-वीर हैं यहाँ
इसी काम पर लगाए गए हैं या स्वत: लग गए हैं
उन्हें तीर-तलवार मुबारक !
हम तो भावलोक के प्राणी !!
अपने बचपन की कुछ छवियों को दिल से लगाए जी रहे अभी...
एक चेहरा जिसमें स्त्री अस्मिता का गहरा बोध कराया था
जिसके नाम पर हमें हर रोज़ लड़की होने का महत्व समझाया जाता था
वो नाम जिसने भारतीय समाज की वंश परंपरा की अवधारणा की जड़े हिला दी थी
और बेटियाँ भी हो सकती हैं वारिस
इसको स्थापित किया था...
उसे कभी नहीं भूली
उसके भीतर का लोहा हम सब सचेतन स्त्रियों में उतरता रहा..l 

6



: वो मेरे संसार में घुसा

वो मेरे संसार में घुसा
मेरी निंदा करता हुआ
वह मेरा भी प्रेम पात्र बनना चाहता था
उसमें मेरे स्नेह का अमृत चखने का उतावलापन था
उसे लगता था - हाय, ये अमृत बूँदे मेरे नसीब में क्यों नहीं
मुझे उसकी निंदाएँ बड़ी उकसाती थी
जो अक्सर करती हैं प्रेरक का काम
मुझे लगता था
मैं सही राह पर हूँ और मैं उनसे बहुत ताक़त बटोर लेती थी
मेरा हर अगला पल बेख़ौफ़ और निष्कंटक हुआ जाता था
कि
एक दिन वह घुस आया मन के सघन वन- प्रांतर में
अपने हिस्से का रस माँगते हुए
मैं वंचित रही उस रस से
जिससे चख कर मैं ताक़त बटोरती थी
अब वह मेरा प्रशंसक है
और अपने किए और लिखे पर माथा धुनता है
अपनी उन कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा है
जिसे उसने अपने आकाओ के इशारे पर किया था
कुछ मेरी अनदेखी ने उकसाया था.



7



 मेरे पास भी थी झगड़ने के लिए बेहतर शब्दावलियाँ




मेरे पास भी थी झगड़ने के लिए बेहतर शब्दावलियाँ
मैंने उन्हें बिसरा दिया
मैंने कुछ कोमल शब्द चुन लिए
उनसे ही करती रही अपना बचाव उम्रभर
मेरे पास भी थी कुछ क्रोधित भाव भंगिमाएँ
दाँत की किटकिटाहटे
थप्पड़ों की गूँजे
उन पर क़ाबू पा कर
हथेलियों को नम कर लिया
दाँतो को खुला छोड़ कर
फेंफड़ो में रुमानियत भर ली
सारे हथियार पिछली सदी में छोड़ आई
मानो
जब सभ्यता की अटारी पर खड़ी मैं
भविष्य को पुकार रही थी...


8


एक भावुक मूर्ख का बयान




एक भावुक मूर्ख का बयान

भावुकता ने चाँद में प्रियतम का चेहरा
वो भावुकता ही थी जिसने चाँद में रोटी देखा
और विलाप कर उठी थी
भावुकता ने पानी को नीला रंग दिया
और फूलो को खिलते देखा
भावुकता ने हवा को संदली, मरमरी बनाया...
उसी ने बर्फ़ से आग और ताप से ठंडक माँगी
कुछ भी कर सकती है भावुकता
उसी में ताक़त है कि पत्थर में आकार खोज दे
रेखाओं में लिपियाँ
चाहे उन्हें पूज दे
चाहे उन्हें ढाँप दे
भावुकता खोजती है रेत में पानी
और सुनती है जंगल में सीटियाँ
भावुकता झोंपड़े में सो जाती है सुख की नींद
खटिया की रस्सी बिछौना बना कर
वही थामे रखती है हाथ उस स्त्री का
जो उधार चुकाने के लिए गहने गिरवी रखने को दे देती है
बंकिम मुस्कान के साथ ...
भावुकता में कह उठती है महाकवि पदमाकर की नायिका -
लला, फिर अइयो खेलने होरी ...
यह भावुकता है कि कोई बरबाद जिनियस अपनी प्रेमिका को थमा देता है
अपनी दुर्लभ पांडुलिपियाँ
कुछ अधूरे क़िस्से , कुछ प्रेम , कुछ पाप - पुण्य
यह भावुकता ही है कि संपतिविहीन स्त्री
जीवन भर घर के परदे से लिपट कर बिसूरती रहती है
विलाप नहीं करती
भावुकता ही है जो भीतर से ईमानदार बनाए रखती है
अपने कहे पर टिकाए रखती है
जो अपनी ज़ुबान का मोल जानती है
प्रतिबद्धता का पाठ पढ़ाए रखती है..!

9



जब मेरे पास रोने की कोई वजह नहीं होती


जब मेरे पास रोने की कोई वजह नहीं होती
सबकुछ ठीक चल रहा होता है
ठीक उसी वक़्त
कोई आता है
पूरा तनाव उड़ेल कर चला जाता है

जिस वक़्त मैं पेट पकड़ कर हँसना चाहती हूँ
हवा के साथ उड़ कर आई रुईयों को फूँक कर उड़ा देना चाहती हूँ
ठीक उसी वक़्त
कोई बाल्टी भर पानी उँडेल कर चला जाता है

जब जब मैं रस्सी कूद या कित कित खेल रही होती हूँ
डंडे से गुल्ली को मार कर दूर फेंक रही होती हूँ
कि कोई अचानक प्रकट होकर
खेल के सारे नियम बता कर
सारा खेल ध्वस्त कर जाता है



जब भी असावधान होती हूँ
ये सोच कर कि आधी रात का पहर है
सारी बेचैन और दुष्ट आत्माएँ आराम फ़रमा रही होंगी

कि एक तेज़ चीख़ मुझे दहला  देती है  l
-----–========------========================


( गीताश्री की नौ कविताएं )

-----------------------==========




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...