राधेसाम जी का तमगा / आलोक यात्री
हुआ यूं के... एम.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा देने से पहले ही मैं एक्सिडेंटल जर्नलिस्ट हो गया। कॉलेज से लौटते हुए एक दिन प्रलयंकर अखबार के मालिक संपादक श्री तेलूराम कांबोज जी ने हाथ पकड़ कर मुझे भाई श्री विनय संकोची के हवाले कर दिया। जर्नलिज्म में सलीके से एडजेस्ट हो पाता उससे पहले ही प्रलयंकर से मेरा डेरा-तंबू उखड़ गया। मेरा नया ठिकाना बना लखनऊ। जहां मुझे देश की नामी गिरामी दवा कंपनी में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का ओहदा मिल गया। लखनऊ लखनऊ ठहरा। नवाबों का शहर। मेरी ननिहाल और पिताश्री की ससुराल। भला हम से बड़ा नवाब कौन था?
एक उल्ट बात यह हुई कि भाई संकोची जी लखनऊ से गाजियाबाद पहुंचे थे और मैं वहां से लखनऊ। संकोची जी अखबार में "कह संकोची सकुचाए" कॉलम लिखा करते थे। अखबार में छपने से पहले प्रूफ रीडिंग में ही मैं संकोची जी के सकुचाने का रसानंद ले लिया करता था। इस कॉलम के मुख्य पात्र फुल्लू जी थे और हैं। संकोची जी जिस खूबसूरती से कॉलम लिखते हैं मैं उनका आज भी कायल हूं। उत्सुकतावश मैं उनसे लिखे कॉलम की सच्चाई पूछता रहता था और संकोची जी लखनऊ के अमीनाबाद के एक नुक्कड़ के टी स्टॉल पर घटे घटनाक्रम को पूरी रोचकता से सुनाते थे। उनके किस्सों में ऐसी रोचकता होती थी कि फुर्सत में मैं अक्सर अमीनाबाद के उसी टी स्टॉल पर जा पहुंचता था। फुल्लू जी से मिलने की आस लिए।
फुल्लू जी तो नहीं मिले अलबत्ता अदब की दुनिया में मेरी खासी घुसपैठ हो गई। उन दिनों लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्ल्यूए) और इंडियन पिपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) बेहद सक्रिय थे। गाजियाबाद के तीन-चार बिगड़े नवाब लखनऊ में पहले से ही विराजमान थे। जिनमें दिनेश खन्ना और अनिल शर्मा भारतेन्दु नाट्य अकादमी में अभिनय के छात्र थे। अकादमी महानगर के मेरे ठिकाने से अधिक दूर नहीं थी। गाहे-बगाहे अकादमी जाना हो जाता था। यदाकदा राज बिसारिया जी और अनुपम खेर के दर्शन भी हो जाते थे।
अवध में उन दिनों अदब का एक से एक बड़ा नवाब मौजूद था। जिनमें भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर, मुद्राराक्षस, बीर राजा, कामतानाथ, लीलाधर जगूड़ी, के. पी. सक्सेना, शकील सिद्दीकी जैसे कई नाम शामिल थे। हां शिवानी जी भी। जिनके दर पर मत्था टेकने मैं यदाकदा चला जाता था। पत्रकार जगत भी वहां काफी समृद्ध था। शैलेष जी रविवार, मंगलेश डबराल जी अमृत प्रभात, जयप्रकाश शाही जी जनसत्ता और प्रदीप कपूर बिलिट्स में होते थे। हजरतगंज के काॅफी हाउस की शामें इन्हीं लोगों से गुलजार होती थीं। यहीं मेरी मुलाकात "रामलीला" (नाटक) की टीम से हुई। जिनमें से अब मुझे राकेश और मेराज का ही नाम याद है।
इन नवाबों की संगत में एक्सीडेंटल जर्नलिस्ट का मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का ताज डगमगाने लगा और तमाम कोशिशों के बाद भी फुल्लू जी मिलके ना दिए। हुआ यूं के... एक दिन भाई हेमंत कुमार का खत मिला। उन्होंने लिखा था कि हिन्ट छोड़ कर उन्होंने दैनिक सांस्कृतिक क्रांति अखबार ज्वाइन कर लिया है। गाहे-बगाहे अमृत प्रभात और स्वतंत्र भारत अखबार में मेरा लिखा छपने लगा था। हेमंत भाई ने उनके अखबार के लिए भी लिखने का आग्रह किया था। अखबार को जाने, देखे बिना लिखना फिजूल था। लिहाजा गाजियाबाद जाने के दौरान विवेकानंद नगर स्थित क्रांतिकारी अखबार के कार्यालय जा पहुंचा। जहां हेमंत जी के साथ वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र भारद्वाज जी भी विराजमान थे। भारद्वाज जी की अगुवाई में ही क्रांति होनी थी। दफ्तर के एक कोने में सबसे बड़ी मेज के पीछे बैठे शख्स से मेरा परिचय करवाया गया। अपना परिचय उन्होंने खुद ही दिया "राधेसाम गुप्ता छपरा वाले..."
हुआ यूं के... बातचीत के दौरान कंपोजिटर एक प्रूफ ले कर भारद्वाज जी की ओर बढ़ा। लेकिन "इ का..." कहते हुए राधेसाम जी ने उसे बीच में लपक लिया। जवाब भारद्वाज जी ने दिया "मेरे विजिटिंग कार्ड का प्रूफ है।"
"इ का लिखे हो नाम के बाद..." राधेसाम जी ने पूछा
"बीई..." भारद्वाज जी ने कहा
"बीई का होत है...?" राधेसाम जी ने कौतूहल से पूछा
"इंजीनियरिंग की डिग्री है..." भारद्वाज जी ने सहजता से जवाब दिया।
"और ई ब्रेकिट मा...?" राधेसाम जी ने फिर पूछा
"ये... मैकेनिकल... माने मैकेनिकल इंजीनियर..." जितेन्द्र भाई ने उत्साह से बताया
"इ का... जन रल...?" राधेसाम जी ने अटकते हुए एक प्रश्न और उछाला।
"यह है डिप्लोमा इन जर्नलिज्म..." भारद्वाज जी ने गदगद भाव से कहा
"और इ का ब्रेकिट मा... गोल्ड..." राधेसाम जी की प्रश्नावली लंबी होती जा रही थी।
"यह... गोल्ड मेडलिस्ट... गोल्ड मेडल मिला था हमें यूनिवर्सिटी का जर्नलिज्म में...." जितेन्द्र भाई के इस रहस्योद्घाटन से मैं खुद अचंभित था। उनकी इस मेधा, प्रतिभा से मेरा साक्षात्कार पहली बार हुआ था।
राधेसाम जी भारद्वाज जी से मुखातिब होते हुए बोले "हमारा भी विजिटिंग कार्ड बनाओ... लिखेओ... राधेसाम गुप्ता..."
"जी... राधेश्याम गुप्ता..." लिखते हुए भारद्वाज जी ने दोहराया
"नहीं... राधेसाम गुप्ता...बीई..."
भारद्वाज जी ने कलम रोक कर अटकते हुए पूछा "बीई... कहां से किए...?"
"छपरा से... अब का तुमका डिगरी दिखाएबे... आगे लिखेओ... डिप्लोमा इन जनरलीजम... ई तमगे वाली बात भी लिखेओ ब्रेकिट मा..."
इमला लिखवा कर राधेसाम जी उसी टेबल पर जीमने लगे। चाय पीते हुए मेरा कॉलम लिखना मुकर्रर हो गया। "बात बेबात की..."। तो... हुआ यूं के... फुल्लू जी तो नहीं मिले अलबत्ता अपने काॅलम के लिए मुझे नायक "अझेल जी" जरूर मिल गया।
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