निकट : बांग्ला साहित्य पर केंद्रित अंक / सुभाष नीरव
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इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय भाषाओं का साहित्य बहुत समृद्ध और अमीर रहा है। इसकी झलक अनुवाद के माध्यम से हिन्दी पाठकों को मिलती रही है। हिन्दी की छोटी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता जो समय समय पर भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद के जरिये अपने पाठकों से रू-ब-रू करवाती रहती हैं। कोई भी व्यक्ति सभी भाषाओँ को नहीं सीख सकता है। उसे अन्य भाषाओं के साहित्य को पढ़ने, जानने-समझने के लिए अनुवाद पर ही आश्रित रहना पड़ता है। मैंने स्वयं विश्व का क्लासिक साहित्य ही नहीं, अपितु भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद के माध्यम से ही पढ़ा है। अनुवाद की महत्ता को समझते हुए बहुत सी पत्र पत्रिकाएं अनूदित रचनाएं अब स्थायी तौर पर नियमित छापने लगी हैं। पर दूसरी भाषाओं का साहित्य अभी हिन्दी पाठकों के सम्मुख टुकड़े टुकड़े रूप में आता है। ऐसे में हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं ने भारतीय भाषाओं के साहित्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित कर बड़े काम भी किये हैं जिससे हिंदी के साहित्यप्रेमी पाठक को किसी भाषा का साहित्य एक स्थान पर समग्र रूप में पढ़ने को उपलब्ध हो जाता है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका 'कथादेश' ने 'उर्दू कहानी विशेषांक' और 'पंजाबी कहानी विशेषांक' प्रकाशित किये जो हिन्दी पाठकों द्वारा बड़े पैमाने पर सराहे और पसंद किए गए। इससे पहले 'सारिका' पत्रिका भी ऐसा करती रही। 'मंतव्य'और 'हिन्दी चेतना' ने भी 'पंजाबी कहानी' पर केंद्रित विशेष अंक प्रकाशित किये।
ऐसा ही बेहद महत्वपूर्ण काम कथाकार कृष्ण बिहारी जी ने किया। उन्होंने अपनी पत्रिका 'निकट' का अक्टूबर-दिसम्बर 2020 अंक बांग्ला साहित्य पर केंद्रित कर उसे पूजा विशेषांक के रूप में हिन्दी के विशाल पाठकों को उपलब्ध करवाया। यह बहुत ज़रूरी और दस्तावेजी अंक हिन्दी के वरिष्ठ लेखक श्याम सुंदर चौधरी के अतिथि संपादन में आया है। श्याम सुंदर चौधरी हिन्दी-बांग्ला के साहित्यप्रेमियों में एक जाना-माना नाम हैं। वह हिन्दी में वर्षों से कहानियां लिख रहे हैं, अनेक कहानी संग्रह उनके प्रकाशित हो चुके हैं, वह फ़िल्म पत्रकारिता से भी जुड़े रहे हैं। सिनेमा पर इनके अनेक लेख अंग्रेजी-हिन्दी में छपते रहे हैं। इस सबके के साथ साथ उनका एक मजबूत पक्ष वर्षों से अनुवाद के रूप में हमारे सामने आता रहा है। वह हिन्दी से बांग्ला और बांग्ला से हिन्दी अनुवाद क्षेत्र में एक बड़े और समर्थ अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। अनुवाद की अनेक किताबें उनके खाते में चढ़ चुकी हैं। इनकी इसी प्रतिभा को देखते हुए शायद कृष्ण बिहारी जी ने इन्हें 'निकट' के बांग्ला साहित्य पर केंद्रित अंक का कार्य सौंपा होगा। और इस अंक को देख-पढ़ कर चौधरी की कार्य क्षमता और प्रतिभा का कायल होना पड़ता है। इस अंक में उन्होंने अपने दायित्व को बड़ी ईमानदारी से बखूबी निभाया है। श्याम सुंदर चौधरी ने इस अंक के लिए कहानियों, लघुकथाओं, साक्षात्कारों, कविताओं और अन्य रचनाओं का स्वयं चयन ही नहीं किया, बल्कि उन सबका स्वयं अनुवाद भी किया, जो निसंदेह चयन प्रक्रिया से कहीं अधिक श्रमसाध्य और दुष्कर कार्य है। बांग्ला के 13 कहानीकारों की कहानियां, छह लेखकों की लघुकथाएं, सात कवियों की कविताएं तो इस अंक में पढ़ने को मिलती ही हैं, इसके साथ साथ बांग्ला के प्रख्यात लेखक सुनील दास का श्याम सुंदर चौधरी द्वारा लिया गया एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार भी पढ़ने को मिलता है। बांग्ला साहित्य की बात हो और नाटक पर बात न हो, ऐसा नहीं हो सकता। 'नाट्य प्रसंग' इस अंक का ऐसा ही विशिष्ठ हिस्सा है।
रवींद्र नाथ टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, विभूतिभूषण बंधोपाध्याय, विमल मित्र, शचीन्द्रनाथ वंधोपाध्याय, वरेन गंगोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, झरा बसु, सुनील दास, तपन बंधोपाध्याय, असित कृष्ण डे, राणा चट्टोपाध्याय, दुर्गादास चट्टोपाध्याय की कहानियों, रवींद्रनाथ टैगोर, दुर्गादास चट्टोपाध्याय, प्रगति माइति, दिलीप चौधरी, रमेन्द्रनाथ भट्टाचार्य, कृपाण मोइत्रा की लघुकथाओं और गौरीशंकर वंधोपाध्याय, शंकर चक्रवर्ती, श्यामल कांति दास, तापस ओझा, गौतम हाज़रा और स्वरूप चंद की कविताओं से गुजरते हुए यह बात पुख्ता हो जाती है कि बांग्ला में विचार और संवेदना की दृष्टि से लिखा और लिखा जा रहा साहित्य बहुत विशिष्ट और उत्तम साहित्य है।
सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि श्याम सुंदर चौधरी ने बांग्ला में लिखी जा रही लघुकथाओं को भी अपनी चयन प्रक्रिया में तरजीह दी।
एक कमी इस अंक में मुझे जो खली, वह यह कि इस अंक में बांग्ला के युवा कथाकारों और कवियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर हुआ है। बांग्ला में नई पीढ़ी के लोग क्या और कैसा लिख रहे हैं, हिन्दी के पाठक को इसकी भी जानकारी इस अंक से मिलती तो अधिक बेहतर होता और अंक और भी अधिक मजबूत बन पड़ता।
अंत में, अतिथि संपादक के तौर पर चौधरी ने अपने संपादकीय में अनुवाद को लेकर बहुत महत्वपूर्ण और जायज़ प्रश्नों को उठाया है। ये प्रश्न नए हैं और ग़ौरतलब हैं। अनुवाद की पीड़ा को एक अनुवादक ही बेहतर समझता है। मैंने स्वयं कई मंचों से अनुवाद से जुड़ी पीड़ाओं को साझा किया है। आज भी अनुवादक के श्रम को वो मान-सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता, जिसका वह अधिकारी होता है। अभी भी साहित्य समाज में अनुवाद के श्रमसाध्य काम को दोयम दर्जे का समझ कर उसकी अवहेलना की जाती है। यही कारण है कि साहित्यिक अनुवाद क्षेत्र में समर्पित भाव से बहुत कम लोग आना पसंद करते हैं।
बहरहाल, इस महती कार्य के लिए निकट के संपादक कृष्ण बिहारी जी और श्याम सुंदर चौधरी, दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
-सुभाष नीरव
23 फरवरी 2021
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