प्रश्न :-नारद, वशिष्ट और भारद्वाज आदि ऋषि थे या मुनि थे ?
उत्तर :- ऋषि शब्द को समझने के लिए वैदिक शब्द ऋक् का निहित भावार्थ समझना होगा ।
ऋ =ऋ वर्ण का प्रतीकार्थअसीम,अनन्त अनादि शून्य क्षेत्र होता है । वेद विज्ञान के आधार पर रचित श्रीदुर्गा सप्तशती ग्रंथ में ऐकार्णवीकृते विष्णुपद वर्णित किया है।
क् = वर्ण का प्रतीकार्थ असीम -अनादि शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कारक ब्रह्मांड का शून्य क्षेत्र होता है।
अतः ऋक् का अर्थ है असीम -अनादि शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कारक ब्रह्मांड का प्रथम प्रकट शून्य क्षेत्र है जिसे वेद विज्ञान में ब्रह्मा कहा गया है । इसीलिए वैदिक वर्णमाला के क वर्ण का प्रतीक अर्थ ब्रह्मा होता है । या यूं कहें कि क वर्ण ब्रह्मा भाव का वाचक है ।
इस विवेचना से ऋषि शब्द का अर्थ हुआ कि जो वैज्ञानिक असीम -अनादि शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति के कारक ब्रह्मांड के आधार प्रथम प्रकट शून्य क्षेत्र की उत्पत्ति और उसमें ब्रह्मांड के उत्पन्न होने के कारण तथा उस क्षेत्र में चल रही स्वचालित गतिविधियों को समझता है और इनमें से किसी भी है विषय पर अपनी शोध के आधार पर विज्ञान परक आविष्कार करता है वह वैज्ञानिक ऋषि होता है ।
वेदों,अरण्यक एवं ब्राह्मण ग्रंथों में ऋषि शब्द ऐसे ही वैज्ञानिकों और विज्ञान के विद्वानों के लिए प्रयुक्त हुआ है।
मुनि शब्द में प्रयुक्त वर्णों के अनुसार स्थिति इस प्रकार है ।
मु= उ की मात्रा सहित म वर्ण का प्रतीकार्थ निरंतर सृजनशील महत्त्व ब्रह्म प्रकृति होता है।
नि र् इ की मात्रा सहित न वर्ण का प्रतीकार्थ अदृश्य रूप में सक्रिय पुरुषतत्व (basic being element of the universe) होता है।
इस विवेचना के अनुसार मुनि शब्द का अर्थ है कि सृजनशील प्रकृति और अदृश्य रूप में सक्रिय सजीव पुरुष तत्व की समझ रखने वाला विचारशील व्यक्ति मुनि होता है !
दक्षिण भारत में वैदिक युग के बाद वैदिक ज्ञान परंपरा के ही विकसित वेदांत दर्शन के वैचारिक धरातल पर लिखित उपनिषदों और पुराणों में मुनि शब्द का प्रयोग बहुत हुआ है।
उक्त विवेचनाओं के अनुसार ऋषि वैज्ञानिक होता है और मुनि अपने विवेक और अपनी ज्ञान संपदा से ब्रह्मांड के स्वरूप और इसके अंदर की समस्त गतिविधियों के साथ जैविक संपदा के संबंन्धों को अध्यात्म ( स्वभाव ) ज्ञान की विधि से समझने वाला महामानव होता है।
इस अंतर के अनुसार वैदिक युग के नारद, वशिष्ट और भारद्वाज सहित समस्त ऋषिगण वैज्ञानिक थे और कपिलदेव की अध्यात्म विचारधारा आधार पर सृष्टि और उससे स्वयं के संबंध को समझने की विचार शैली परआधारित चिंतनशील महामानव मुनि थे । मुनि परंपरा के प्रवर्तक कपिल मुनि थे और श्रीसुखदेवजी महाराज मुनि परंपरा के ही सनातन धर्म रक्षक महामुनि थे।
कालांतर में जैन मत के वेद विरोधी अनेक चिंतक हुये जिन्हें मुनि कहा गया । आज भी जैन मत के सभी साधुओ को मुनि कहा जाता है ।
इस पोस्ट को लिखने के लिए मैं काफी समय से विचार कर रहा था । हो सकता उत्तर वैदिक साहित्य के अरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में मुनि शब्द मिल जाए । उस कृति को वैदिक गुरुकुल ज्ञान परम्परा और उत्तर वैदिक
युग की विकसित ज्ञान परंपरा के संधि काल का ग्रंथ मानना चाहिए ।
सभी मित्रों से निवेदन है कि इस पोस्ट के सभी कथन केवल मेरे चिंतन पर आधारित है। इसकी शास्त्रीय पुष्टि मेरे पास नहीं है । जो विद्वान इसकी आलोचना करना चाहिए उनका में स्वागत करूंगा ।
सनातन धर्म ध्वजवाहक
पंडित शंभू लाल शर्मा " कश्यप "
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