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गोस्वामीजी जब जीवो का वर्गीकरण करते हैं तो पामर का उल्लेख नहीं करते।
इसमें व्यंग्य मानो यह है कि वे ऐसे जीव को मनुष्यही नहीं मानतेभागवत में जीव के चार प्रकार बताए गए हैं - पामर, विषयी, साधक और सिद्ध परंतु मानस में गोस्वामीजी ने जीव के तीन प्रकार ही बताए - विषयी, साधक और सिद्ध वैसे तो गोस्वामीजी पामर जीव का भी चरित्र प्रस्तुत करते हैं, पर जीव के तीन भेद करने में उनका व्यंग्य यह है कि पामर तो बिल्कुल जड़ ही है, उसे जीव कहना निरर्थक है।
पामर के प्रति उनके मन में इतना आक्रोश है कि उसे तो वे मृत अथवा जड़ की श्रेणी का मानते हैं, जीव की श्रेणी में उसकी गणना तकनहीं करतेविषयी का हर्ष और विषाद वैसा ही है जैसे रावण के जीवन में मंदोदरी को पाकर हर्ष और अक्षय को खोकर विषाद होता है।
अब साधक के जीवन में विचार करके देखें कि क्या उसके जीवन में भी हर्ष-विषाद होता है साधन भी हर्ष-विषाद से मुक्त नहीं होता, पर उसके जीवन में इनका सदुपयोग है। विशेषी व्यक्ति का हर्ष-विषाद मन से जुड़ा रहता है, परंतु साधककी वृत्तियां मन से ऊपर उठकर बुद्धि में प्रविष्ट हो चुकी हैं। ऐसी स्थिति में हर्ष विषाद की वृत्तियाँ साधक में होते हुए भी वह मन से न होकर बुद्धि से होती है और साधक उसे विषयी से भिन्न दिशा में प्रयोग करता हैहर्ष विषाद की वृत्तियोंकावास्तविक कल्याणकारीसदुपयोग क्या है ?
उनकी सार्थकता कहां है ? गोस्वामीजी कहते हैं कि मन तो केवल विषय को ग्रहण करता है और हर्ष-विषाद का भोग करता है, परंतु उसमें निर्णय करने की क्षमता नहीं होती कि किस विषय को ग्रहण करें और किसे नहीं। यह क्षमता बुद्धि में है। बुद्धि में विचार होता है, विवेक होता है।
अतः इन वृत्तियों को मन से उठाकर बुद्धिगत करना ही उसे कल्याण की दिशा में मोड़ना है। विषयी में विवेक नहीं होता, वह विचार नहीं करता, परंतु साधक विचार करता है। इस हर्ष-विषाद की वृत्ति को कहां लगाना चाहिए ?
क्षणभंगुर वस्तु को पाकर हर्ष होगा, तो वह हर्ष भी क्षणभंगुर होगा और नाशवान वस्तु के नाश होने पर विषाद होगा तो वह विषाद भी हमें विनाश की ओर ले जाएगा। साधक इस पर विचार करके अपने इस हर्ष-विषाद की वृत्तियोंको विवेकपूर्वक ऐसी वस्तु से जोड़ने की चेष्टा करता है, जहां वे सार्थक हो जाती हैं।
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