10.09.2020
आज के लोकरंग में चर्चा होगी .... छत्तीसगढ़ के लोक पर्व नगमत की, एक कस्बा जांजगीर के नगर के रूप में परिवर्तित होने के लोक अनुभवों की और सोन नदी के कछार के उन लहलहाते खेतों की ....!
श्री सतीश कुमार सिंह एक सजग नागरिक बोध के कवि है , जो वर्तमान में शिक्षक और लेखन के प्रारम्भिक दौर में कुशल पत्रकार भी रह चुके हैं।
इनकी कविताओं / नवगीतों में लोकजीवन के अनेकों दृश्य बिम्ब सहजता से प्राप्त होते हैं।
इनका कविता संकलन " सुन रहा हूं इस वक़्त " की कविताएं ग्रामीण जीवन व उससे जुड़े सरोकारों से लबरेज़ हैं ,जिसमें समय और समाज का रचनात्मक द्वंद प्रतिरोधी चेतना के साथ उपस्थित है।
सतीश जी हिंदी कविता के कुछ गिने चुने रचनाकारों में एक हैं ,जिन्होंने अंचल की मिट्टी में पैर गीला कर स्थानीयता की अनुभूति जन्य अनुभवों को समझ कर अपनी वर्गीय चेतना और विश्व दृष्टि को विकसित किया है।
_लक्ष्मीकांत मुकुल
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छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा -
नगमत
सतीश कुमार सिंह
छत्तीसगढ़िया लोक समाज में विभिन्न परंपराओं की अद्भुत छटा देखने को मिलती है । यहाँ शैव , वैष्णव और शाक्त मत के अलावा सिद्धों और नाथों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है । हरियाली अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व " हरेली " को कृषि यंत्रों की पूजा के साथ गांव देहात में मंत्र दीक्षा की शुरूआत भी होती है और पुराने मंत्र साधक अपने स्थानीय गुरू के समक्ष अपने मंत्र की पुनरावृत्ति करते हैं जिसे जन समाज के लोग मंत्र लहुटाना कहते हैं ।
जब गाँवों तक विज्ञान की पहुँच नहीं थी तब खेती किसानी करने वाले लोग इसी लोक विश्वास और जड़ी बूटी आदि स्थानीय औषधियों से अपने आत्मबल के साथ मेहनत मजदूरी करते जाड़ा , घाम और बरसात को झेलते हुए अपने कर्म क्षेत्र में डटे रहते थे । उनके अवचेतन के भय को मंत्र पर उनकी आस्था सम्हाले रहती थी । चिकित्सा विज्ञान भी यह मानता है कि औषधि से भी अधिक औषधि पर विश्वास काम करता है । इस गहरी बात को छत्तीसगढ़ का लोक समाज गहराई से समझता रहा है । यही वजह है कि अपने आपको मंत्र से अभिरक्षित रखने के लिए इन लोक परंपराओं को गुरूमुखी साधना बनाकर उत्सव का रूप दिया गया है । हरियाली अमावस्या यानि हरेली के पाँचवे दिन नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है । इस दिन किसान अपने घरों और खेतों में नाग नागिन की पूजा करते हैं और उन्हें दूध लाई ( लावा ) का प्रसाद अर्पित करते हैं । खेतों में कीड़े मकोड़ों और चूहों को खाकर सर्प फसलों की रक्षा करते हैं । किसानों के मन में उनके लिए भी आभार की उदात्त भावना है जिनसे उसे विष का भय रहता है । वे फसलों की सुरक्षा के साथ अपने परिवार को भी इस आपात भय से बचाए रखने की प्रार्थना करते हैं । कहते हैं कि साँप न दूध पीते हैं और न लाई खाते हैं । उनका आहार कीट पतंग और छोटे मोटे जीव जंतु ही है पर मनुष्य तो जो खाता है वही उसे अपनी भावनाओं के साथ समर्पित करता है । यह भावप्रधान जगत अद्भुत है जहाँ व्यष्टि से समष्टि तक एक मांगलिक अवधारणा की अविच्छिन्न परिपाटी है । इसी नागपंचमी पर्व पर नगमतिहा गुरू अपने शिष्यों को पीढ़ा - पाठ देते हैं जो सर्पमंत्र की दीक्षा कहलाती है ।
नागपंचमी पर मेरे शहर जांजगीर की पुरानी बस्ती के कहरापारा में " नगमत " का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है । यह परंपरा छत्तीसगढ़ के बहुत से गांवों और कस्बों में अब भी जीवित है । इस दिन " सपहर " मंत्र की दीक्षा नए शिष्यों को नगमत गुरू प्रदान करते हैं। पीढ़े पर नाग नागिन और गुरू के चित्र को वर्तमान पीढ़ा गुरू लेकर बैठता है । यहाँ पीढ़ी या पीढ़ा से आशय पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे परिपाटी से भी है इसलिए इसे पीढ़ा - पाठ कहा जाता है ।
साबर मंत्र ही स्थानीय बोली बानी में सपहर मंत्र के रूप में प्रचलित है । चूंकि यह साँप से संबंधित है इसलिए इसे सपहर मंत्र भी कहा जाता है । यानि साँप के विष को हरने वाला मंत्र सपहर , जिसकी अबूझ रचना में इस तरह ध्वन्यात्मकता और प्रवाह है कि इसके रचयिता लोक गुरूओं की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ता है । सपहर मंत्र के दौरान झांझ और मांदर की उत्तेजक थाप के साथ लयबद्ध रूप से गुरू महिमा को बखान कर गाये जाने वाले मंत्र की एक बानगी देखिए -
गुरूसत गुरूसत गुरे नीर
गुरूसाय रे शंकर गुरू लछमी
गुरू तंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन
गुरू बिन होमे ल
कोने देवय ओ नागिन
गुरू बिन होमे ल
इस मंत्र के गूढार्थ हैं जिसमें गुरू तत्व की प्रधानता है । गुरूसत यानि गुरू सत्य है , गुरे नीर- गुरू जल की तरह तरल है , गुरूसाय रे शंकर - गुरूशंकर है और प्रमुख है , गुरू लक्ष्मी गुरूतंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन - गुरू ही लक्ष्मी है और निराकार निरंजन को देखनेवाला तथा जाननेवाला है । उसके भीतर प्राणों का होम करने वाला नगमतिहा है । यह इस छोटे से मंत्र का अभिप्राय है जिसे मैंने अपनी दृष्टि से समझने का प्रयास किया है ।
इसके अलावा और भी कई मंत्र हैं जिसे आज के दिन गुरू के सामने पढ़कर उसके शब्द के अभ्यास को शिष्यगण जोर जोर से पाठ कर दुहराते तथा कंठस्थ करते हैं और पीढ़े पर बैठा गुरू कहीं कुछ कमी होने पर उसे वहीं दुरूस्त करवाते हैं । मंत्र का प्रभाव जब चढ़ता है तो साधक शिष्य को नाग भरता है और वह तंद्रा में आकर कीचड़ में सराबोर हो नाग की तरह मांदर की ध्वनि में लोटता है तब माना जाता है कि उसका सपहर मंत्र सध गया । इसके पश्चात गुरू उसे होम सुंघाते हैं और वह तंद्रा से जागृत होकर अपनी स्वाभाविक चेतना में वापस लौटता है ।
इन सारी क्रियाओं में मुझे शैव मत की छत्तीसगढ़ में प्रधानता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है । शिव पार्वती की ही लोक मे गुरूपद के रूप से महिमा है और उन्हें नगमतिहा साधक लोग विशेष तौर पर नागपंचमी के इस आयोजन में पूजते हैं । उनके अनगढ़ और अटपटे मंत्र को साबर मंत्र से जोड़ा जा सकता है । रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने साबर मंत्र की चर्चा करते हुए लिखा है -
अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रकट प्रभाव महेस प्रतापू ।
अर्थात जिसके अक्षरों में न मेल है न ही जिसका कोई अर्थ है और न जिसका जाप ही होता है फिर भी भगवान शंकर के प्रताप से इन साबर मंत्रों का प्रभाव है । इसके साथ ही नगमत की समाप्ति के बाद एक औषधि भी खिलाया जाता है जो गुरू अपने हाथों से अभिमंत्रित कर सबको प्रदान करता है । कहते हैं कि इसे खाने से साल भर विष का कोई प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता । मैं भी इसे प्रसाद स्वरूप ले लेता हूँ । यह इतना कड़ुवा होता है कि इसे मुँह में रखते ही थूकने को जी करता है । पर थूकने की सख्त मनाही होती है । कहा जाता है कि चबाकर निगल जाने पर ही इसका साल भर असर रहता है ।
बहरहाल ••जो कुछ भी है यह हमारे छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और विरासत का अमूल्य हिस्सा है और मुझे अपने इन सांस्कृतिक मूल्यों और उसके क्रियात्मक उपादानों से बहुत लगाव और प्यार है । इन ठेठ देहाती और मन के साफ सुथरे लोगों के बीच आत्मीयता का जो संस्पर्श पाता हूँ उससे भीतर बाहर तरोताजा हो जाता हूँ । नागपंचमी पर्व की शाम मैं इन्ही नंगमतिया साथियों के साथ गुजारता हूँ । एक दिन पहले वे मुझे नेवता ( आमंत्रण ) देते हैं । कुछ सालों से उनके बीच जा रहा हूँ और मांदर की धमक के साथ भाव से भरे नगमतिहा साधकों से गुरू की वंदना सुनते हुए आनंदित और विभोर हो जाता हूँ । आप भी कभी नागपंचमी पर मेरे शहर आइए •• आपको भी ले चलूंगा पुरानी बस्ती के नगमत के इस लोक आयोजन में । यह एक सुदीर्घ परंपरा का हिस्सा है । इसे हम छत्तीसगढ़ियों को सहेजकर भी तो रखना है ।
( देखिए आयोजन के कुछ सुलभ चित्र •••)
सतीश कुमार सिंह
पुराना काॅलेज के पीछे बाजारपारा, जांजगीर
मोबाइल नंबर - 94252 31110
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जांजगीर, कल आज और कल
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सतीश कुमार सिंह
अपने शहर में रहकर स्मृतियों को खंगालना और यहाँ से बाहर रहकर उसकी यादों में जीना दोनों में बहुत अंतर है । कई बार पास रहते हुए ढेर सारी चीजें छूट जाती हैं और दूर रहकर सबकुछ झलकने लगता है । जब अपने शहर पर कुछ लिखने बैठा हूँ तो कुछ इसी तरह के पशोपेश से दो चार हो रहा हूँ । काॅलेज के दिनों में उपेंद्रनाथ अश्क का पढ़ा हुआ उपन्यास " शहर में घूमता आईना " याद आ रहा है जिसका पात्र अपने नगर से बाहर रहकर लंबे अंतराल के बाद लौटता है और इस दौरान इतना कुछ बदल गया होता है कि वह हर जगह भौंचक हो जाता है । लेखक इस पात्र को आइने की तरह शहर भर में घुमाता है और वह अपने कस्बेनुमा शहर की गलियों , मुहल्ल्लों तथा अपने वाकिफकारों से दो चार होते हुए उनके जीवन के उथल-पुथल तथा बदलाव को दर्ज़ करते चलता है । मगर मैं अपने इस शहर में तकरीबन तीस वर्षों से रह रहा हूँ और पीछे लौटकर अपने हिस्से के अनुभवों के साथ उन परिवर्तनों पर निगाह जमाने में लगा हूँ जिसका कहीं न कहीं मैं भी एक अंग रहा हूँ ।
अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ की हैसियत एक पिछड़े हुए क्षेत्र की थी और यहाँ के प्रति लोगों की धारणाएं भी अलग अलग तरह से रहीं । वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला तब बिलासपुर जिले का एक राजस्व अनुविभाग था और उस समय यहाँ पदस्थ एसडीएम की हैसियत किसी कलेक्टर से कम नहीं होती थी । जब यह जिला 25 मई 1998 को अस्तित्व में आया तब जांजगीर और चांपा नगर के जनमत और माँग को वरीयता देते हुए दोनों शहर को मिलाकर इसे जांजगीर- चांपा जिले के रूप में प्रशासनिक तौर पर गठित किया गया । इसके पहले कलेक्टर हुए डाॅ. व्ही एस निरंजन जो अपनी अधिवार्षिकी पूरी कर चुके हैं । वे बताते हैं कि अपने हाथों से फीता काटकर इस जिले को एक छोटी टेबल और कुर्सी लगाकर इसके अधो संरचना को विकसित करने में यहाँ के स्थानीय निवासियों का मुझे भरपूर साथ मिला । " डाॅ. निरंजन का लगाव यहाँ से इसलिए भी ज्यादा था कि वे अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों में यहाँ एसडीएम के रूप में पदस्थ हुए थे ।
यहाँ के पुरावैभव और सांस्कृतिक विरासत की अगर बात करें तो सबसे पहले 12 वीं शताब्दी में बने विष्णु मंदिर की चर्चा आती है । छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग में उपसंचालक, इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता राहुल कुमार सिंह अपने एक आलेख में इस नगर के इतिहास को जांजगीर के विष्णु मंदिर की पृष्ठभूमि में तथा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक सामग्री के आधार पर आदिम युग अथवा कम से कम मध्य पाषाण युग से संबद्ध करते हैं । उनका मानना है कि कबरा पहाड़ और सिंघनपुर में आदिम युग के चित्रित शैलाश्रय से इस बात की तसदीक होती है । उनके मुताबिक अभिलिखित प्रमाणों में जाजल्लपुर नगर रतनपुर राज्य के हैहय वंशीय राजा जाज्वल्यदेव प्रथम ( ईस्वी सन 1090 - 1120 ) ने बसाया था । अपभ्रंशवश इसी जाजल्लपुर का नाम कालांतर में जांजगीर हो गया । जिला मुख्यालय से तकरीबन 49 किलोमीटर की दूरी पर महानदी के तट पर स्थित नगर शिवरीनारायण भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । यहाँ के मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर को लेकर जो दंतकथाएं प्रचलित हैं उसका जिक्र बेगलर ने भी किया है जिसके अनुसार शिवरीनारायण और जांजगीर के मंदिर निर्माण को लेकर प्रतिस्पर्धा थी । कहा जाता है कि भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले बनेगा उसमें वे प्रवेश करेंगे । शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूर्ण हुआ और नारायण उसमें प्रविष्ट हुए । इसके बाद जांजगीर के मंदिर को उसी हालत में अधूरा छोड़ दिया गया । आज भी शिवरीनारायण के नर - नारायण मंदिर की बड़ी मान्यता इस क्षेत्र में है जहाँ की माघी पूर्णिमा मेला अंचल में प्रसिद्ध है । जांजगीर के विष्णु मंदिर से संबंधित इन दंतकथाओं में पाली के मंदिरों को भी जोड़ा जाता है । इस किवदंती में यह कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण छमासी रात में हो रहा था यानि तब रात छ: महीने की हुई थी जब शिवरीनारायण , जांजगीर और पाली के मंदिर भी इसी रात में बनाए जा रहे थे । जब जांजगीर के विष्णु मंदिर के शिखर को स्थापित करने की तैयारी हो रही थी तभी पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया और मंदिर अधूरा रह गया । कुछ लोग मानते हैं कि इसके पार्श्व में स्थित शिव मंदिर ही इसका शिखर है । इसी तरह से इस अधूरे विष्णु मंदिर के सामने जो भीमा तालाब है उसे भी लेकर लोक में अनेक कथाएं चर्चित हैं जिसमें कहा जाता है कि महाभारत के बलशाली पात्र भीम ने इस जगह पर पाँच बार फावड़ा चलाकर खुदाई की थी इसीलिए इस तालाब का नाम भीमा तालाब हुआ । विष्णु मंदिर जहाँ पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है वहीं भीमा तालाब का सौदर्यीकरण स्थानीय प्रशासन के द्वारा किया जा रहा है । जांजगीर जिले के अतीत को लेकर ढेर सारी कहानियां हैं । उन सबकी चर्चा करने में एक पूरा ग्रंथ तैयार किया जा सकता है । मैनें संक्षेप में इसके पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासत की बातों को रेखांकित करने का प्रयास किया है ।
इसके वर्तमान पर जब हम नजर डालते हैं तो यह आज भी अपने कस्बाई संस्कारों और सरोकारों के साथ प्रगति की ओर अग्रसर है । यहाँ के लोगों में राजनीतिक जागरूकता के साथ साथ आपसी संबंधों में गांव गंवई के लोगों जैसी एक आत्मीयता और समावेशी उदारता स्पष्ट दिखाई पड़ती है ।
तकरीबन 92 प्रतिशत सिंचित रकबा वाले इस जिले में धान का बम्पर उत्पादन होता है । राजस्व रिकार्ड के अनुसार कुल 913 ग्रामों में आबाद ग्रामों की संख्या 905 है । 9 विकास खंड , सक्ती , मालखरौदा , डभरा , बम्नीहडीह , पामगढ़, बलौदा ,अकलतरा , जैजैपुर और 13 तहसीलों जांजगीर , अकलतरा , बलौदा , चांपा , सक्ती , पामगढ़,डभरा ,नवागढ़, मालखरौदा , जैजैपुर, बम्हनीडीह , बाराद्वार , अड़भार में विस्तारित जांजगीर चांपा में लगभग 52 उद्योग स्थापित हैं । अभी हाल ही में प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बम्हनीडीह, बाराद्वार तथा अड़भार को नया तहसील बनाने की घोषणा की है । वनक्षेत्र यहाँ मात्र 4.11प्रतिशत है जो राज्य में सबसे कम है । प्रदेश में सबसे गर्म स्थान चांपा को माना जाता है जहाँ ग्रीष्म ऋतु में लू के तेज झकोरे चलते हैं । यहाँ के कोतमीसोनार में स्थित मगरमच्छ पार्क एक महत्वपूर्ण परियोजना है जो एक शानदार पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है । पूरे देश में यह मगरमच्छ परियोजना सातवें स्थान पर है । भौगोलिक दृष्टि से इसकी सीमाएं उत्तर में कोरबा , दक्षिण में रायपुर , पूर्व में रायगढ़ और पश्चिम में बिलासपुर को छूती हैं जहाँ औसत वर्षा लगभग 1273.6 व समान वर्षा 1300 एमएम है । जिले में चांपा कोसा , कांसा और कंचन के रूप में प्रसिद्ध है जहाँ कोसा उद्योग को यहाँ के बुनकर समुदाय के कारीगरों ने निर्यात कर कौशेय वस्त्रों के व्यापार को वर्तमान में विश्व स्तर पर पहुंचा दिया है । वहीं उत्कल प्रांत से आए हुए कसेर समाज के लोग यहाँ कांसे के बर्तन बनाते हैं जिसकी अपनी अलग पहचान है । चांपा में कांसे के बर्तन बनाने के लिए 18 से 20 भट्ठियाँ ( कारखाने ) हैं जहाँ कांसे के बर्तन तथा शुद्ध कांसे के सम्मिश्रण को गलाया जाता है । यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य है जिसे टोलियों में किया जाता है । इसी तरह यहाँ स्वर्णकार समाज के द्वारा सोने चांदी के आभूषण की डिजाइनिंग पूरे देश में प्रसिद्ध है ।
इस स्थान के सांस्कृतिक विरासत , कृषि और पुरातात्विक महत्व को रेखांकित करने के लिए प्रत्येक वर्ष जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेला का आयोजन किया जाता है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हांकित किया गया है । सन् 2002 में छत्तीसगढ़ के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष स्व. राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने 12 वीं शताब्दी के प्राचीन विष्णु मंदिर के प्रांगण में इसका उद्घाटन 7 जनवरी 2002 में किया था । तब छत्तीसगढ़ राज्य धीरे धीरे आकार ले रहा था । आज यह महोत्सव पूरे देश में अपनी अलग छाप छोड़ने में सफल रहा है । जिले के इस प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन में उन्नत कृषि यंत्रों की प्रदर्शनी, देश के कृषि वैज्ञानिकों की संगोष्ठी तथा पशु मेला सहित जिले के विकास प्रदर्शनियों के मेला स्थल पर लगे स्टालों को देखकर जांजगीर के विकास यात्रा की पूरी बानगी दिखाई पड़ती है । विविधताओं से भरे जांजगीर चांपा जिले के विकास को गढ़ने में यहाँ के जिलाधिकारियों की तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर स्थानीय जनप्रतिनिधियों की विशिष्ट भूमिका रही है ।
पुराना काॅलेज के पीछे , जांजगीर
जिला - जांजगीर-चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668
मोबाइल नं - 7000196453
94252 31110
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[अपने हिस्से में मैं
एक नदी मांगूगा •••
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सोन नदी के साथ कुछ इस तरह से मेरा बचपन जुड़ा रहा कि अब भी कभी कभी उसकी धार में उतरकर उसी खिलंदड़ेपन को तलाशता हूँ जो बाल्यकाल में स्मृतियों में संरक्षित रह गया था । इसके तट पर हमारी खेतीबाड़ी रही है जिसे चोरिया खार और केरहाचाकर के नाम से जाना जाता है । मेरे परदादा रूद्र सिंह को तलवा गाँव की मालगुजारी मिली थी । उनके दो बेटों जनक सिंह और केवल सिंह में उनकी मृत्यु के बाद यह मिल्कियत बँट गई थी । मेरे दादा जनक सिंह को ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते चोरिया खार और केरहाचाकर की जमीनें जेठासी में मिलीं थीं जो सोन नदी के तट पर बेहद उपजाऊ जमीन के रूप में जानी जाती थी । उनकी मृत्यु के बाद उनके पाँच बेटों में यहाँ की खेती बँट गईं जिसमें मेरे पिता का भी हिस्सा था जिनका मैं अकेला वारिस हूँ । यहाँ सोन नदी के आसपास छोटे झाड़ के जंगल हैं और कुछ सिदार आदिवासी परिवार हैं जो हमारे पुरखों की खेती की देखभाल करते थे और उसे जोंत - बोकर अपनी आजीविका चलाते । वे सोन नदी में जाल डालते , धीर और चोरिया ( मछली पकड़ने का देसी उपकरण ) लगाकर मछली पकड़ते तो बाबूजी के साथ मैं भी साथ जाता था । 10 -11 साल की उमर में सोन नदी के पानी में उन्हीं आदिवासियों ने मुझे तैरना सिखाया और उनके बच्चों के बीच मैं हिल मिलकर रहा । वे मेरा नाम नहीं लेते सब मालिक के बाबू कहते थे और आज भी बचे हुए बुजुर्ग और बचपन में साथ खेले साथी भी यही कहते हैं । कई बार बाबूजी से जिद कर मैं उनके बीच रूक जाता था और वे बड़े विश्वास से अपने इकलौते बेटे को उनके बीच छोड़ दिया करते थे । माँ बहुत नाराज होती थी तो उन्हें बाबूजी समझाते थे कि रहने दो उनके बीच उसे मेरे बाद वही तो सब सम्हालेगा । हमारे आदिवासी मुख्तियार के यहाँ तुलसी मंजरी के बारीक चावल के साथ मांगुर , पढ़िना , केवई , सरांगी , रोहू , मिरकल , गिमना मछली बनता था और तरह तरह के जंगली भाजियों के साथ , ठेलका और टिंडे की सब्जी , बनरमकेलिया ( भिंडी की जंगली प्रजाति ) के तरकारियों का स्वाद मिलता था । सोन नदी में अपने साथियों के साथ तैरकर भोजन करने आता और गुलेल लेकर सोन नदी के तट के जंगलों में मस्ती करते सूरज डूबने तक घूमता रहता । इस नदी में घुला हुआ मेरा बालमन अब भी डुबकियां लगाने को मचलता है और जब यहाँ काम के सिलसिले में जाना होता है तो मैं तड़के ही नहाने के सामान के साथ निकल जाता हूँ और स्नान और भोजन कर ही लौटता हूँ ।
मुझे याद है 1982 के आसपास का वह भीषण अकाल हमारे क्षेत्र में जब सूखा पड़ा था तब पानी की बूँद के लिए लोग तरसते थे । गाँव में पीने के पानी के लिए टैंकर आता था । बाबूजी ने सोन नदी के एक गहरे स्थान को बँधवा दिया था जिसे सब दहरा कहते थे । जब हमारे गाँव के सारे तालाब सूख गये थे तब इसी दहरा में नहाने के लिए मेरे गाँव से 4 बजे सुबह बैलगाड़ी से परिवार के लोग नहाने जाया करते थे । गाँव से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित सोननदी के इस दहरा ने तब सबको आश्रय दिया था ।
नदी हमारे जीवन की सांस्कृतिक सभ्यता की धारा के साथ हमें कठिन क्षणों में शरण देने वाली भी है और जब वह प्राकृतिक आपदाओं में घिरकर अपनी सीमाओं से पार चली जाती है तो अपने भीतर सबको समो भी लेती है । सोन नदी हमेशा नियंत्रित रही और इसने हम पर सदा ही अपना प्यार लुटाया । सोन नदी की सोच की लहरों में बहते मुझे मेरे नवगीत का मुखड़ा याद आ रहा है -
सागर के जल से
प्यास कहाँ बुझती है
अपने हिस्से में
मैं एक नदी मांगूगा
सतीश कुमार सिंह
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[9/10, 10:44 AM] लतिका वैष्णव: लोक पर्व नगमत के विषय में बहुत अच्छी जानकारी मिली है ज्ञानवर्धन के लिए सादर आभार 🙏💐💐
[9/10, 11:22 AM] +91 6265 543 562: इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति होती है कि वह अपने को जाने _पहचाने । पूर्वजों के द्वारा अपनाई गई संस्कृति को समझे और उसका चिंतनमनन कर आज के परिप्रेक्ष्य में उसका संवर्धन करे ।
सतीश सिंह जी ने आज बहुत विस्तार से और सारगर्भित रूप में
जांजगीर-चांपा का इतिहास सूत्र पटल पर रखा है । पढ़कर बहुत सी नई जानकारियां प्राप्त हुई ग्यान का संवर्धन हुआ है ।
ऐसी दुर्लभ जानकारी के लिए सतीश जी को साधुवाद देना चाहूंगा और सूत्र का भी आभार तो बनता ही है । धन्यवाद ।
[9/10, 11:46 AM] +91 88716 65060: जांजगीर-चांपा जिले के अतीत और वर्तमान पर आपने बहुत अच्छा लिखा है । किसी भी स्थान का इतिहास अपने आप में बहुत सारी चीजें समेटे होता है । राजाओं और राजवंशों का इतिहास अलग चलता है तथा जन का इतिहास अलग से होता है। विडंबना यह कि हम तक केवल राजाओं और राजवंशों का इतिहास ही पहुंचता है ।जनता का इतिहास या तो लोक कथाओं में लोकगीतों में मिलता है अथवा वह किंवदंतियों में मिलता है । परंतु इतिहास केवल कहानी किससे और किंवदंतियों में नहीं होता उसके पुरातात्विक प्रमाण मिलने जरूरी होते हैं। किसी स्थान का इतिहास लिखने के लिए वहां के पर्याप्त पुरातात्विक प्रमाण उपस्थित न होने की स्थिति में अनुमान के आधार पर भी काम चलाया जाता है परंतु यह अलग-अलग लोगों के अलग-अलग होते हैं । इन मंदिरों का शिल्प देख कर अच्छा लगा । मंदिर के अधूरा रहने के कुछ और कारण भी रहे होंगे सबसे प्रमुख कारण तो सत्ता परिवर्तन अथवा आर्थिक कारण ही होता है । संभव है ऐसा कुछ इस बात का कोई लिखित अभिलेख भी उपलब्ध हो ।
[9/10, 1:14 PM] राजकिशोर राजन: लोकरंग आज मन भर पढ़ने का मन कर रहा है।जांजगीर से शुरू कर सोन नदी के कछार तक विस्तृत यह रंग अद्भुत है।सातीश कुमार सिंह की कविताई की चर्चा से ले कर सोन नदी की मछलियों और गुलेल तक की चर्चा तन मन को विभोर करनेवाला है।
बहुत बहुत बधाई लक्ष्मीकांत मुकुल जी।आज छत्तीसगढ़ और बिहार एकमेक हो गया है।
बधाई।🌹
[9/10, 7:15 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: लोक रंग हमेशा की तरह आज भी चित्रों, तस्वीरों और सतीश के कलम से खिला हुआ है । जिसे अपने अंदाज में मुकुल जी ने प्रस्तुत किया है । पहले तो दोनों साथियों को मन से आभार! समृद्ध लेख और समृद्ध लोक परंपरा ,लोक जीवन, लोक गाथाओं, लोक इतिहास से जोड़ने के लिए ! जांजगीर में लगातार जाता रहा हूँ ! बहुत से महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन हमने वहां किये हैं और कई बार सतीश, विजय राठौर भैया, नरेन्द्र दादा के बुलावे पर जांजगीर पहुंचता रहा हूँ ! छत्तीसगढ़ में जांजगीर नगर अपनी राजनीतिक चेतना के साथ सक्रिय साहित्यिक गतिविधियों के लिए अलग से रेखांकित किया जाता है। यहाँ साहित्य - संस्कृति की अपनी पुख्ता ज़मीन है । और आज सतीश के नगमत लेख से लोक समाज की विभिन्न जीवंत परंपराओं से भी परिचित हुआ ! यह सही है कि गांवों में लोक चेतना ,लोक विश्वास ,लोक आत्मबल हमसे अधिक सशक्त है वे लोग आज भी इस मोबाइल ,कम्प्यूटर युग में बिना घड़ी के आसमान को देख कर आपको सही समय बता देंगे ..और बहुत सी औषधि तो वह जंगल जाकर ले आयेंगे और आपका बुखार - सर्दी और बिमारी रफा - दफा... बस्तर के जंगल में बड़ी बड़ी लाल चीटियाँ मिलती है जो सबसे घने पेड़ रहती है जिसे यहाँ के निवासी अपने शरीर में कटवाकर 102, 103 बुखार उतरवा लेते हैं ! वहीं इस चिंटी को पिस कर चटनी के रूप में भी खा भी लेते हैं जिसे हल्बी "चापड़ा चटनी " कहते हैं ! मैं यह सब सतीश के इस महत्वपूर्ण लेख के सन्दर्भ में बता रहा हूँ जिसमें सांप के विष को हरने की प्रथा को जांजगीर में सपहर मंत्र कहा जाता है ! यह अद्भुत शिष्य - गुरू पंरपरा है जो गुरू अपने हाथों से अभिमंत्रित करके सबको प्रदान करता है इसे खाने से साल भर विष का कोई प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता... जांजगीर शहर की स्मृतियों को भी सतीश ने बहुत अच्छे से बुना है । और अपने हिस्से की नदी में भी सतीश ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए समृद्ध लेखन किया है । कुल मिलाकर आज का लोकरंग मन को जोड़ता है । बहुत बधाई सतीश, मुकुल जी...
👌👌😊
[9/10, 8:19 PM] भास्कर चौधरी: आज के लोकरंग के सरोवर में डुबकी लगाकर अपने आप को तरोताज़ा महसूस कर रहा हूँ। दिनों बाद बिना किसी व्यवधान के भाई सतीश सिंह के तीनों लेख मनोयोग से पढ़ पाया। सचमुच लोकरंग का ज्ञान बहुत गहराई की मांग करता है। मुझे हमेशा से यह बात सालती रही है कि उम्र के इक्कावन वर्ष बीत जाने के बाद भी लोक से गहरे जुड़ने की मेरी आकांक्षा अधूरी ही रही है और मैंने अपना अधिकांश समय छोटे शहरों या क़स्बों में बिताया है...। सतीश भाई ने नगमत परम्परा के बहाने छत्तीसगढ़ के समृद्ध लोकजीवन पर बेहतरीन लिखा है। सपहर मंत्र, जड़ीबूटियों, औषधियों और नागपंचमी के अवसर पर नाग-नागिन की तरह मिट्टी में लथपथ होकर मादर की थाप पर गीत और नृत्य के दृश्य के बारे में सोच कर मन रोमांच से भर उठता है। उसी तरह जांजगीर, कल आज और कल लेख से आज के जांजगीर की समृद्ध विरासत और सजग वर्तमान को आसानी से समझा जा सकता है। नरेन्द्र दादा के जांजगीर को भाई सतीश, विजय राठौर भैया, नागवंशी जी और बहुत सारे अग्रज और युवा साहित्यकार और कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव व समर्पण से बेहतर भविष्य की ओर ले जा रहे हैं यह तय है।
तीसरे लेख 'अपने हिस्से में / मैं एक नदी मांगूंगा' में सोन नदी और आदिवासी साथियों से जुड़े बेहद आत्मीय अनुभवों ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी और दिल किया कि बस सतीश को गले लगा लूं और उनका हाथ पकड़कर उन आदिवासी दोस्तों के बीच ले चलने का आग्रह करूँ ... मछलियों और तरकारियों के ज़िक्र से मुंह में पानी आ गया सचमुच।
आज प्रस्तुत लेख, चित्र और उस पर बातचीत सब कुछ बेहद दिलचस्प और मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए आँखें खोलने वाले रहे। लक्ष्मीकांत मुकुल जी और सतीश भाई को साधुवाद।
विजय भैया का आभार।
[9/10, 9:04 PM] सतीश कुमार सिंह : लतिका जी आपका हार्दिक धन्यवाद । आप स्वयं एक ऐसे परिवार से जुड़ी हैं जिन्होंने बस्तर के लोक समाज से हम सबका परिचय कराया है ।
[9/10, 9:06 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने सही कहा भरत जी कि इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है । इसको जितना खंगालेंगे कुछ न कुछ नया ही मिलता है । आनका बहुत-बहुत धन्यवाद 🌹
[9/10, 9:12 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने बहुत महत्वपूर्ण बात कही शरद भाई राजवंशों का इतिहास और जन इतिहास में बहुत अंतर होता है । वस्तुतः जन से ही किसी राजवंश का इतिहास बनता है पर वे नेपथ्य में डाल दिए जाते हैं । हमारी कोशिश उस जन इतिहास को ही उसके लोक संदर्भों के साथ सामने लाने की होनी चाहिए । सत्ता का चरित्र हर कालखंड में एक जैसा ही रहा है इसीलिए यह विभेद एक बड़ी खाई की सीमा तक जा पहुंचा है । बहुत बहुत आभार 🌹🙏
[9/10, 9:15 PM] Lakshmi Kant Mukul: लतिका वैष्णव जी
भरत स्वर्णकार जी
शरद कोकास जी
राजकिशोर राजन जी
विजय सिंह जी
भास्कर चौधरी जी
आप सभी को हार्दिक धन्यवाद
लोक रंग के आज के पोस्ट पर अपनी सार्थक विमर्श / टिप्पणियां प्रकट / साझा करने के लिए।
सतीश भाई को भी Thanks ,
जिनके लोकधर्मी लेखन के इंद्रधनुषी रंगों से आज का लोक रंग प्रखर हुआ।
[9/10, 9:17 PM] सतीश कुमार सिंह : लोक की इस व्याप्ति को एक ही रंग और रेखा में आप जैसा जन प्रतिबद्ध कवि ही समझ सकता है राजन जी । आपका बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏🌹
[9/10, 9:24 PM] सतीश कुमार सिंह : बस्तर का जो परिदृश्य है उसमें आपके रचनात्मक सरोकार की आभा है विजय भैया । जांजगीर और जगदलपुर के आयोजनों का सिलसिला और उसकी यादें भी एक तरह से हमारी धरोहर हैं जिसमें एक तरफ लाला जगदलपुरी जैसे साहित्य नेतृत्वकर्ता और दूसरी तरफ दादा नरेंद्र श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की पीढ़ियाँ सृजनरत हैं । आपने दोनों जगह के रचनात्मक सरोकारों को बहुत सही परिप्रेक्ष्य में समझा है और उस पर लिखा है । हार्दिक धन्यवाद भैया 🌹🙏
[9/10, 9:28 PM] सतीश कुमार सिंह : बहुत-बहुत धन्यवाद भास्कर भाई । यह कोरोना संकट टल जाए तो किसी दिन आपको साथ लेकर चलूंगा इस लोक संसार में । यहाँ जो सादगी और सहजता है उससे आप जैसा कवि सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता । बहुत-बहुत धन्यवाद इस आत्मीय टिप्पणी के लिए 🙏🌹
[9/10, 9:28 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: आप सब से निवेदन
🛑🛑
आज सतीश ने जांजगीर शहर को लेकर " कल आज और कल" के माध्यम से जांजगीर शहर को जीवंतता से बुना है। आप सब भी अपने शहर, गांव, जनपद, महानगर जहां आप रहते हैं या अपने शहर को छोड़ कर और कहीं नौकरी कर रहे हैं तो हम चाहते हैं आप अपने शहर के बारे में लिखें और फोटोग्राफ हो तो और अच्छी बात! इसी बहाने हम एक दूसरे के शहर, गांव, जनपद, नगर की संभावनाओं ,संस्कृति ,रीति रिवाज, साहित्यिक गतिविधियां ,उपलब्धियों ,एतिहासिक सामाजिक तथ्यों आदि से जो आप अपने शहर को लेकर महसूस करते हैं उससे आपके बहाने हम जुड़ पायेंगे तो लिखिये और लिख कर मुकुा जी को वाट्सअप कर दीजिये ताकि हम गुरूवार को आपके शहर ,गांव, नगर से जुड़ सकें
विजय सिंह
सूत्र
[9/10, 9:33 PM] सतीश कुमार सिंह: यह तो आपकी सदाशयता है मुकुल जी जो इतने अच्छे संयोजन के साथ लोकरंग को एक नई चमक देते हैं और हर बार नये कलेवर के साथ पटल पर उसे प्रस्तुत करते हैं ।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार मेरे लेखों को सुसंगत ढंग से पेश करने हेतु 🌹🙏
[9/10, 9:35 PM] भास्कर चौधरी: 🙏🙏🙏
कुछ देर पहले ही लक्ष्मीकांत जी से भी बात हुई, वे भी बेहद उत्सुक हैं जांजगीर आने के लिए...
[9/10, 9:36 PM] सतीश कुमार सिंह : यह एक सार्थक दिन होगा जब हम इस दिन हमसे जुड़े साथियों के गाँव शहर से परिचित होंगे । मुकुल जी इसकी जिम्मेदारी लें हमारा आग्रह है । धन्यवाद विजय भैया इस जरूरी पहल के लिए ।
[9/10, 9:39 PM] सतीश कुमार सिंह,: स्वागत है मुकुल जी का । बस आवागमन की सुविधाएं बन जाए तो मिलने जुलने का सिलसिला बन पड़े भास्कर भाई।
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