आँख का पानी
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आजादी के वर्षों बाद भी,
हम अपने गाँव में,
कभी सड़क ढुढ़ रहे,
कभी नल तो,
कभी पानी ,
क्या यहीं है,
देश की स्वतंत्रता,
आजादी की कहानी।
आजादी के वर्षों बाद ,
यह दुनियाँ,
कहाँ से कहाँ पहुँच गयी,
और हम ढुढ़ रहे,
गाँव की गलियों में,
छोटा सा प्रकाश,
हम आज भी लाचार,
क्योंकि यहाँ हाँफ रही जवानी।
हम आज भी उलझे हैं,
रोती,कपड़ा,मकान में,
हम नहीं देख रहे,
आँख खोलकर ,
अपने आसपास,
और दुनियाँ जहान में,
आज भी हम कर रहे,
अपनी अपनी मनमानी।
किसे है चिंता यहाँ,
अपने देश के विकाश की,
कोई यहाँ जाति का,
विकास कर रहा,
तो कोई धर्म,
तो कोई पार्टी का,
क्योंकि लोगों में खत्म हुआ,
आँख का पानी।
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आलेख / आजादी के दीवाने
तुम मुझे खुन दो,मैं तुम्हें आजादी दूँगा :--सुभाष
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में देश के प्रमुख क्रांतिकारियों में सुभाष चन्द्र बोस की भूमिका काफी अग्रणी रही है।
23 जनवरी 1897 को तत्कालीन एकीकृत बंगाल प्रांत (जिसमें पश्चिम बंगाल,उड़ीसा व बिहार भी शामिल था) के कटक में जन्में सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिभा बाल्यकाल से ही देखते हीं बनती थी।
कायस्थ कुल में जन्में सुभाष के पिता जानकी नाथ बोस कटक में अपने समय के नामी वकील थे,बाद में जानकी नाथ सरकारी बकील भी हुये। बाद में ये बंगाल बिधान सभा के सदस्य भी रहे। माता प्रभावती के पुत्र अपने 14 भाई बहनों में दुसरे स्थान पर थे ।1919में में सुभाष ने बी ए की परीक्षा कलकता विश्व विद्यालय से पास की।
इनके पिता जानकी नाथ की इच्छा थी की सुभाष आई सी एस ( इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा पास कर भारतीय प्रशासनिक अधिकारी बने, परंतु सुभाष की इच्छा कुछ और थी।
सुभाष ने अपनी पिता की इच्छा का सम्मान करते हुये तैयारी शुरु की और मात्र 24 वर्ष की उम्र में 1920 में अपने चौथे रैंकिंग से आई सी एस की परीक्षा पास की परन्तु इनका मन तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ओर जा चुका सो इन्होने 22 अप्रैल 1921 को आई सी एस से त्याग पत्र देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कुद पड़े।
सुभाष की आई सी एस की नौकरी छोड़ने की घटना ने भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी थी,जिसकी चर्चा दूर दूर तक होने लगी थी।
आई सी एस छोड़कर सुभाष जिस विमान में आ रहे थे उसी विमान में महाकवि रविन्द्र नाथ टैगोर भी आ रहे थे। टैगोर ने इन्हें गाँधी जी से मुलाकात की सलाह दी।
16 जुलाई 1921 को मुंबई में इनकी मुलाकात गांधी जी होती है। इस मुलाकात के माध्यम से सुभाष ने गाँधी जी से आन्दोलन की रणनीति और सक्रिय कार्यकर्म की स्पष्ट जानकारी चाहते थे क्योंकि गाँधी जी आन्दोलन के सर्वोच्च नेता थे।सुभाष की गाँधी जी से पहली मुलाक़ात बहुत अच्छी नहीं रही।
गाँधी जी से मुलाकात के बाद सुभाष देशबंधु चितरंजन दास से मिलने के लिए कोलकता गये पर उनकी मुलाकात नहीं हुई। कुछ समय पश्चात इनकी निर्णायक मुलाकात देशबंधु से हुयी।पहली मुलाकात में हीं ये देशबंधु से काफी प्रभावित हुये ,मानो इन्हें लगा की मुझे मेरा गुरु मिल गया हो। देशबंधु ने अपने नये सहयोगी सुभाष को दिल से लगाया। 1921 में देशबंधु के सहयोग से सुभाष को बंगाल प्रांत कांग्रेस कमेटी तथा राष्ट्रीय सेवा दल का प्रचार प्रधान बनाया गया। इसके अतिरिक्त नये खुले नेशनल कांग्रेस का प्रिंसिपल बनाया गया।
जब 1921में ब्रिटिश सरकार के प्रिंस का भारत आगमन हुआ तब कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा देश में हड़ताल व बन्द का आयोजन किया गया। बंगाल में आन्दोलन को संचालित करने में सुभाष ने अद्भूत नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। इसी आन्दोलन में देशबंधु व सुभाष सहित कई नेताओं की गिरफ्तारी हुयी,जिसमें इन्हें छह मास की सजा दी गयी।
जब सुभाष व देशबंधु जेल में थे तब गाँधी जी ने 1922 में चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया जिससे दोनो काफी दुखी हुये।
दिसम्बर 1922 को बिहार के गया में आयोजित कॉंग्रेस का अधिवेशन में देशबंधु को अध्यक्ष बनाया गया,जिससे कांग्रेस में गतिरोध पैदा हो गया।
देशबंधु गुट परिवर्तन के हिमायती थे जबकि गाँधी जी का गुट किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहता था।
1923 में सुभाष देशबंधु के सहयोग से अंग्रेजी दैनिक पत्र फॉरवर्ड का प्रकाशन शुरु किया जो देखते ही देखते देश का प्रमुख अंग्रेजी दैनिक समचार पत्र बन गया।
1924 के कलकता नगर निकाय के चुनाव में देशबंधु की स्वराज पार्टी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया फलस्वरुप देशबंधु कलकता नगर निगम के मुख्य महापौर एवं सुभाष मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने।
स्वराज पार्टी के बढ़ते हुये प्रभाव को रोकने के लिए एवं दोनों के मनोबल को तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने एक चाल चली और क्रांतिकारी षड्यंत्र की योजना बनाने के जुर्म में मांडले जेल ( रंगून) भेज दिया गया ताकि वहाँ वह निर्वासित जीवन जी सके।
इसके बाद तो सुभाषचंद्र बोस का जेल यात्राओं,अंग्रेज अत्याचारों व प्रताडनाओं का सिलसिला शुरू हुआ।स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान इन्हें ग्यारह बार जेल जाना पड़ा।इसके अलावा अंग्रेज सरकार द्वारा इन्हें लम्बे समय तक नजरबंद भी रखा गया था लेकिन ये अपने इरादों से कभी भी टस से मस नहीं हुये।
1939 में महात्मा गांधी जी से मतभेद के कारण इन्हें कॉंग्रेस छोड़ना पड़ा।
1939 में कॉंग्रेस के रामगढ अधिवेशन के दौरान समझौता विरोधी कॉन्फरेंस आयोजित कर बड़ा जोशीला भाषण दिया। ब्लैक होल स्मारक को देश के लिए अपमान बताकर उसके बिरुद्ध बड़ा आन्दोलन छेड़ दिया जिस कारण गिरफ्तार कर इन्हें जेल भेज दिया गया,जहां इन्होने जेल में हीं भुख हड़ताल शुरु कर दिया जिस कारण अंग्रेजों को इन्हें जेल से छोड़ना पड़ा।
सन 1941 में कलकता की अदालत में मुकदमें की पेशी के दौरान ये भेष बदल कर काबुल,फिर वहाँ से जर्मनी चले गये जहाँ वे हिटलर से मिले। सुभाषचंद्र बोस ने सर्वप्रथम जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की,फिर जर्मनी से गोताखोर नाव द्वारा जापान पहुंचे जहाँ जापान के सहयोग से 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द फौज का गठन किया। जिसके झंडे का प्रतीक चिन्ह बाघ था।
सुभाष चन्द्र बोस का मानना था की अंग्रेजों को अंग्रेजों के दुश्मन से मिलकर एवं उनपर हमला कर आजादी प्राप्त की जा सकती है । 5 जुलाई 1944को आजाद हिन्द फौज की सेना के साथ वर्मा पहुंचे।यहीं पर उन्होनें पहली बार यह नारा दिया था कि तुम मुझे खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।
5 जुलाई 1943 को सिंगापुर स्थित टाउन हाल के सामने नेता जी ने सुप्रीम कमांडर के रुप में आजाद हिन्द फौज की सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर वर्मा के रंगून होते हुए थल मार्ग से कोहोमा व इम्फाल के मैदानी क्षेत्रों में पहुंचकर ब्रिटेन की कौमनवेल्थ सेना से जमकर मुकाबला किया।यहीं पर अपने अनुयायियों को जय हिन्द का नारा दिया था। कहा जाता है कि इनकी आजाद हिन्द की सेना में 40000 लोग थे
21अक्टूबर 1943 में आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की।उनके अनुयायी प्रेम व आदर से उन्हें नेता जी कहते थे
4 फरवरी 1944को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा हमला बोल दिया था और कोहिमा,पलेल सहित भारतीय प्रदेशों पर कब्जा कर लिया।
6 जुलाई 1944को रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गाँधी के नाम से जारी प्रसारण में उन्होनें गाँधी जी से शुभ कामना माँगते हुये कहा था कि "हमें मालुम है कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी नहीं मानेगी ।
मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आजादी चाहिये तो हमें खुन की दरिया से गुजरने के लिये तैयार रहना चाहिए
अगर मुझे उम्मीद होती तो आजादी पाने का एक सुनहरा मौका हमें हमें अपनी जिन्दगी में मिलेगा तो शायद मैं घर छोड़ता हीं नहीं। मैनें जो किया है अपने देश के लिए किया है।
भारत की स्वतंत्रता की आखिरी लड़ाई शुरु हो चुकी है। आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर स्वतंत्रता के लिये लड़ रहें हैं। हे राष्ट्रपिता। भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्घ में हम आपका आशीर्वाद व शुभकामना चाहते हैं।
18 अगस्त 1945 को नेता जी हवाई जहाज से मंचूरिया कि तरफ जा रहे थे। इसके बाद 18 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि ताईहोकू हवाई के पास विमान दुर्घटना में नेता जी कि मृत्यु हो गयी। लेकिन देश व दुनियाँ के इतिहासकारों में नेता जी की मृत्यु को लेकर संशय है।
इस प्रकार देश की आजादी के लिये मर मिटने वाले एक दीवाने का दुखद अंत हो गया।
परंतु इतना तो तय है कि आजाद हिन्द फौज के गठन के बाद अंग्रेजों के भारत से पाँव उखड़ने के दिन शुरु हो गये थे।
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जय हिन्द जय भारत
अरविन्द अकेलाA
अरविंद अकेला: आलेख
आजादी के दीवाने
लोकप्रिय क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में देश के लोकप्रिय क्रांतिकारी सरदार शहीद भगत सिंह का नाम बड़े हीं आदर,गर्व एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। वे भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक हैं,युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं।
भारत की आजादी के दीवाने भगत सिंह का जन्म तत्कालीन पंजाब(अब पकिस्तान में) के लायलपुर जिला के बंगा गाँव में 28 सितम्बर 1907 को एक जाट परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किसन सिंह जबकि माता का नाम विद्यावती कौर था।
जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ था उस समय इनके दो चाचा सरदार अजीत सिंह एवं सरदार स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों से लोहा लेने के जुर्म में जेल में थे। सुखद संयोग यह था की जिस दिन सरदार भगत का जन्म हुआ था उसी दिन भगत सिंह के दोनो चाचा जेल से रिहा हुये थे। इसी कारण भगत सिंह की दादी ने भगत सिंह का नाम भागो वाला रख दिया था जिसका अर्थ भाग्यशाली होता है।
भगत सिंह की प्रारंभिक शिक्षा अपने हीं बंगा गाँव में हुयी, इसके बाद 1916-17 में उन्हें पढ़ने के लिए लाहौर के डी ए वी स्कूल में भेज दिया गया।
भगत सिंह का जन्म देशभक्त परिवार में हुआ था। यहीं कारण है कि उन्हें बाल्यकाल में हीं शूरवीरों व बहादुर क्रांतिकारियों की कहानियां सुनायी जाती थी जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। विद्यालय काल में ही इनका सम्पर्क विद्या प्रसाद एवं लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों से हो गया था।यही कारण था कि इनके मन देशभक्ति की भावना जागने लगी एवं अंग्रेजों से लोहा लेने की इच्छा प्रबल होने लगी।
13 अप्रैल 1919को पंजाब के अमृतसर के जलियाँ वाला बाग में वैशाखी पर्व के दिन अंग्रेज सरकार के जनरल डायर द्वारा हजारों निहत्थे भारतीयों को भूंज देने एवं 379 लोगों के मारे जाने की घटना ने इन्हें झकझोर कर रख दिया था।
इन सब घटनाओं के मध्य में 1920 में हो रहे गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन की घटना ने इनके जोश को चरम पर पहुँचा दिया था। देशभक्ति के लिए इनका खुन उबाल मारने लगा था।
उपरोक्त घटनाओं ने गाँधी जी के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था जिस कारण इन्होने अपनी पढ़ाई को बीच में हीं छोड़ दिया था।भारत की आजादी के लिए अपने सम व्यस्क लोगों को लेकर नौजवान भारत सभा की स्थापना की। राम प्रसाद बिस्मिल की फाँसी की घटना से ये इतने क्रोधित हुये कि चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड गये।
भगत सिंह देश के उन युवाओं की श्रेणी में थे जो देश की आजादी में गांधीवादी विचारधारा में विश्वास नहीं रखते थे बल्कि लाल,बाल,पाल के बताये गये मार्गों पर चलने में विश्वास रखते थे। ये आपनी ताकत पर विश्वास करते थे ।
अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआत में भगत सिंह को गाँधी जी पर श्रद्धा थी परंतु 1922 के शुरुआत में चौरा चौरी घटना में हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन को बन्द कर दिया गया तबसे इन्हें गाँधी जी से मोहभंग हो गया। कहा जाता है कि भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में एक अलग तरह की शिक्षा ली।इसके बाद ये सक्रिय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे।
1927 में साईमन कमीशन आयोग के पुनर्गठन एवं साईमन कमीशन के भारत आने के विरोध में देश भर में जगह जगह हिंसक और अहिंसक प्रदर्शन हुये। उस दौर के राष्ट्रवादी लाला लाजपत राय का पुलिस लाठीचार्ज में घायल होने एवं मौत की घटना ने भगत सिंह एवं उनके साथियों में गुस्से की आग सुलग उठी।इसके बाद उन्होने पुलिस अधीक्षक जेम्स स्काट को मारने की योजना बनायी परंतु पहचानने में गलती होने के कारण जेम्स स्काट के बदले जॉन पी सैंडर्स को गोली मार दी।
शिवराम राजगुरु, सुखदेव,एवं चंद्रशेखर आजाद की मदद से भाग निकले। पकड़े जाने के डर से अपनी बाल दाढ़ी कटवा कटवा कर एक खास किस्म की हैट फेडोरा पहन ली।
अगले साल भगत सिंह के मन में यह नाटकीय विचार आया कि क्यों नहीं केंद्रीय विधान मण्डल में बम विस्फोट कर अंग्रेज सरकार के मन में दहशत पैदा की जाये। जिससे किसी निर्दोष की जान नहीं जाये।
[8/10, 11:52] A अरविंद अकेला: आलेख
आजादी के दीवाने
वतन पर मरने वालों का बाकी यहीं निशाँ होगा
लोकप्रिय क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में देश के लोकप्रिय क्रांतिकारी सरदार शहीद भगत सिंह का नाम बड़े हीं आदर,गर्व एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। वे भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक हैं,युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं।
भारत की आजादी के दीवाने भगत सिंह का जन्म तत्कालीन पंजाब(अब पकिस्तान में) के लायलपुर जिला के बंगा गाँव में 28 सितम्बर 1907 को एक जाट परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किसन सिंह जबकि माता का नाम विद्यावती कौर था।
जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ था उस समय इनके दो चाचा सरदार अजीत सिंह एवं सरदार स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों से लोहा लेने के जुर्म में जेल में थे। सुखद संयोग यह था की जिस दिन सरदार भगत का जन्म हुआ था उसी दिन भगत सिंह के दोनो चाचा जेल से रिहा हुये थे। इसी कारण भगत सिंह की दादी ने भगत सिंह का नाम भागो वाला रख दिया था जिसका अर्थ भाग्यशाली होता है।
भगत सिंह की प्रारंभिक शिक्षा अपने हीं बंगा गाँव में हुयी, इसके बाद 1916-17 में उन्हें पढ़ने के लिए लाहौर के डी ए वी स्कूल में भेज दिया गया।
भगत सिंह का जन्म देशभक्त परिवार में हुआ था। यहीं कारण है कि उन्हें बाल्यकाल में हीं शूरवीरों व बहादुर क्रांतिकारियों की कहानियां सुनायी जाती थी जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। विद्यालय काल में ही इनका सम्पर्क विद्या प्रसाद एवं लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों से हो गया था।यही कारण था कि इनके मन देशभक्ति की भावना जागने लगी एवं अंग्रेजों से लोहा लेने की इच्छा प्रबल होने लगी।
13 अप्रैल 1919को पंजाब के अमृतसर के जलियाँ वाला बाग में वैशाखी पर्व के दिन अंग्रेज सरकार के जनरल डायर द्वारा हजारों निहत्थे भारतीयों को भूंज देने एवं 379 लोगों के मारे जाने की घटना ने इन्हें झकझोर कर रख दिया था।
इन सब घटनाओं के मध्य में 1920 में हो रहे गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन की घटना ने इनके जोश को चरम पर पहुँचा दिया था। देशभक्ति के लिए इनका खुन उबाल मारने लगा था।
उपरोक्त घटनाओं ने गाँधी जी के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था जिस कारण इन्होने अपनी पढ़ाई को बीच में हीं छोड़ दिया था।भारत की आजादी के लिए अपने सम व्यस्क लोगों को लेकर नौजवान भारत सभा की स्थापना की। राम प्रसाद बिस्मिल की फाँसी की घटना से ये इतने क्रोधित हुये कि चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड गये।
भगत सिंह देश के उन युवाओं की श्रेणी में थे जो देश की आजादी में गांधीवादी विचारधारा में विश्वास नहीं रखते थे बल्कि लाल,बाल,पाल के बताये गये मार्गों पर चलने में विश्वास रखते थे। ये आपनी ताकत पर विश्वास करते थे ।
अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआत में भगत सिंह को गाँधी जी पर श्रद्धा थी परंतु 1922 के शुरुआत में चौरा चौरी घटना में हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन को बन्द कर दिया गया तबसे इन्हें गाँधी जी से मोहभंग हो गया। कहा जाता है कि भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में एक अलग तरह की शिक्षा ली।इसके बाद ये सक्रिय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे।
1927 में साईमन कमीशन आयोग के पुनर्गठन एवं साईमन कमीशन के भारत आने के विरोध में देश भर में जगह जगह हिंसक और अहिंसक प्रदर्शन हुये। उस दौर के राष्ट्रवादी लाला लाजपत राय का पुलिस लाठीचार्ज में घायल होने एवं मौत की घटना ने भगत सिंह एवं उनके साथियों में गुस्से की आग सुलग उठी।इसके बाद उन्होने पुलिस अधीक्षक जेम्स स्काट को मारने की योजना बनायी परंतु पहचानने में गलती होने के कारण जेम्स स्काट के बदले जॉन पी सैंडर्स को गोली मार दी।
शिवराम राजगुरु, सुखदेव,एवं चंद्रशेखर आजाद की मदद से भाग निकले। पकड़े जाने के डर से अपनी बाल दाढ़ी कटवा कटवा कर एक खास किस्म की हैट फेडोरा पहन ली।
अगले साल भगत सिंह के मन में यह नाटकीय विचार आया कि क्यों नहीं केंद्रीय विधान मण्डल में बम विस्फोट कर अंग्रेज सरकार के मन में दहशत पैदा की जाये। जिससे किसी निर्दोष की जान नहीं जाये।
भगत सिंह चाहते थे कि इस बहरी सरकार को अपनी आवाज सुनायी जाये। भगत सिंह व क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए दिल्ली के अलीपुर रोड स्थित तत्कालीन ब्रिटिश सभागार में दोनो ने बम के साथ पर्चे भी फेंके। बम फेकने के बाद वे दोनों वहाँ से भागे नहीं बल्कि अपनी गिरफ्तारी भी दी।
भगत सिंह व उनके साथियों पर मुकदमा भी जेल रहते हुये ही चला।
बहुत दिन सर फरार चल रहे क्रांतिकारी राजगुरु गिरफ्तार कर लिये गये और जेल में लाये गये।
भगत,सुखदेव व राजगुरु को फाँसी की सजा सुनायी गयी 23 मार्च 1931 की आधी रात तीनों को फाँसी दे दी गयी। जबकि फाँसी की सजा की तारीख 24 मार्च की सुबह मुकर्रर की गयी थी लेकिन जनता के आक्रोश व बगावत से डरी अंग्रेज सरकार ने 23 मार्च की मध्य रात्रि में हीं इन तीनों वीरों की जीवन लीला समाप्त कर दी।
इस प्रकार मात्र 23 साल 5 माह और 23 दिन की आयु में हीं भगत सिंह हँसते हँसते सबसे विदा हो गये। लगभग दो साल की जेल यात्रा के दौरान भगत सिंह ने जेल में कई लेख ,आलेख व किताबें लिखी। उन्हीं में से उन्होनें "मैं नास्तिक क्यों हूँ। इस किताब से संबंधित कुछ लेख तत्कालीन समय के पत्र में प्रकाशित हुये थे जिसके बाद कुछ लोंगो ने महसूस किया कि वे कम्युनिष्ट विचार धारा से तालुकात रखते हैं ।
देश की आजादी में सरदार भगत सिंह का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा।
पुरा देश उनके बलिदान का ऋणी रहेगा,क्योंकि उन्होनें अल्प आयु की अपनी जिन्दगी देश सेवा के लिये कुर्बान कर दी इसलिये भारत पकिस्तान की जनता इन्हें आजादी के दीवाने के रुप में जानती है,मानती है
अंत में मैं उनके चरणों में जगदंबा प्रसाद मिश्र की लिखी इन पंक्तियों को समर्पित करना चाहता हूँ--
" शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले,
वतन पर मरने वालों का बाकी यहीं निशां होगा"।
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जय हिंद
अरविन्द अकेला
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