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आजकल व्यक्ति कुछ विचार करता है और उसे उत्तम मानकर आगे प्रचारित कर देता है,भले ही वह विचार उसके व्यक्तिगत हित से ही संबंधित हो और शेष समाज से उसका कोई सरोकार न हो। व्यक्ति अपने विचार पर पुलकित होता है,प्रसन्न होता है और उसे दूसरों को सुनाने चल पड़ता है। वह दूसरों की प्रतिक्रिया भी नहीं सुनता,बस अपने में मग्न रहता है। यह आत्ममुग्धता है।केवल अपने लिए सोचना स्वार्थ के दायरे में आता है। विचार तब तक सुविचार या उत्तम विचार नहीं बनता जब तक कि वह पूरे समाज के लिए हितकर न हो।
हमारे मनीषियों ने केवल अपने बारे में विचार करने की प्रक्रिया को स्वार्थ बताया है। जब तक हमारा विचार समष्टि से नहीं जुड़ता,परोपकार से नहीं जुड़ता,तब तक वह केवल स्वार्थपरता है। ऐसा विचार जिसे हम आगे कार्य रूप में परिणत न करें,अपने क्रियाकलापों के माध्यम से उसे औरों तक न पहुंँचाएंँ और जिसकी सुगंध स्वतः औरों तक न पहुंँचे, कोरा बुद्धि-विलास है। हमें इससे बचना चाहिए।
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