ओशो—एक बच्चा अपनी मां को प्रेम करता है। और मां खुश होगी कि बच्चा मा को प्रेम करता है। और वह बच्चे को कितना प्रेम करती है,
लेकिन बच्चे के मन में मां के प्रेम की जो तस्वीर बनती चली जायेगी, मां भी नहीं सोच सकती। बच्चा भी नहीं सोच सकता कि अंतत: यही प्रेम उसकी जिंदगी को भी उपद्रव में डाल सकता है। अगर बच्चे के मन में अपनी मां की तस्वीर पूरी तरह बैठ गयी तो वह जिंदगी भर पत्नी में अपनी मां को खोजेगा। जो नहीं मिल सकता है। और वही जिंदगी भर फ्रस्टेश्न में जिएगा। जिंदगी भर तनाव और परेशानी में रहेगा। क्योंकि खोज रहा है मां को। उसको मां जैसी पत्नी चाहिए वैसी पत्नी कहां मिल सकती है? वह एक ही औरत थी और मां को पत्नी बनाया नहीं जा सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। अब वह अपनी मां को खोज रहा है, मां के गुण खोज रहा है। मां की तस्वीर उसको कहीं भी मिलेगी। उसको कोई पत्नी कभी सुख नहीं दे पायेगी। हर पत्नी कभी सुख नहीं दे पायेगी। हर पत्नी के साथ मुसीबत खड़ी हो जायेगी। क्योंकि वह मां की एक इमेज एक धारणा मन में बैठ गयी थी। अब बचपन में सीखी गयी एक धारणा जीवन भर उसका पीछा करेगी। वह कभी शांत नहीं हो सकता।
एक धुँधली धारणा है भीतर इस लिए हर आदमी जानता है कि मुझे कैसी पत्नी चाहिए। और स्त्री जानती है, कि मुझे कैसा पति चाहिए। और हर स्त्री जानती है कि मुझे कैसा पति चाहिए। और हम उसकी तलाश में रहते है। लेकिन वह कभी मिलने वाला नहीं है। क्योंकि लड़की के मन में अपने पिता की तस्वीर और लड़के के मन में अपनी मां कि तस्वीर है। और वह कहीं भी मिलने वाली नहीं है। एक सक व्यक्ति दोबारा पैदा ही नहीं होते। अब बचपन में बैठ गयी तस्वीर जिंदगी भर पीछा करती है। और सारी जिंदगी को खराब कर देती है। बचपन में अगर गलत सीमाएं बीठा दी जाएं तो जिंदगी भर उनको भूलना मुश्किल है।
एक बच्चा पैदा होता है और मां के प्रति जो इतना बड़ा प्रेम है, उसका पहला कारण यह है कि उस मोमेंट आफ एक्सपोजर में पहले मां ही उसका उपलब्ध होती है। तब उसका मन खुदा होता है। और मां की तस्वीर भीतर चली जाती है। लड़की के मन में भी मां की तस्वीर चली जाती है। और जिंदगी भर में मनुष्य के प्रेम और दांपत्य में बाधा डालने वाला एक कारण यह भी है। क्योंकि जो तस्वीर भीतर चली गयी है लड़के के मन में अब जिंदगी भर वह इसी तस्वीर को खोजता रहेगा। पहले मां के प्रेम में इसको पायेगा और परिपक्व कर लेगा, फिर वह मजबूत हो जायेगी। जब सेक्सुअल मेच्योरटि आती है। पहली यौन की दृष्टि से व्यक्ति परिपक्व होता है, तब फिर मोमेंट आप एक्सपोजर आता है। जिसको लोग कहते है, लव एट फर्स्ट साइट। वह कुछ भी नहीं है। वह वहीं मोमेंट आफ एक्सपोजर है। वह वही का वही मामला है, जैसे उस मुर्गी को प्रेम हो गया गुब्बारे से। वह मुर्गी का बच्चा गुब्बारे के पीछे घूमने लगा। वह लव एट फर्स्ट साइट, वह पहली नजर है प्रेम की, खुल गया मन और वह गुब्बारा भीतर बैठ गया है। जब यौन की दृष्टि से व्यक्ति पहली दफे परिपक्व होता है, तब फिर उसका मन खुलता है। और जो पहली तस्वीर भीतर बैठ जाती है, भीतर प्रवेश कर जाती है। और गहरा प्रवेश कर जाती है। लेकिन अगर इन दोनों तस्वीरों में भीतर संघर्ष हो जाए तो वह व्यक्ति कभी भी शांति से जी न पायेगा। और इन दोनों तस्वीरों में संघर्ष हो जाता है।
दांपत्य जीवन से पीड़ा कैसे हटे?
अब सारा दांपत्य जीवन सड़ गया है। सारा दांपत्य दुःख की सूली से भरा हुआ है। सब सूली पर लटके हुए है। लेकिन कोई भीतर उतर कर देखने की फिक्र में नहीं है। कि कारण क्या है। लड़के के मन में मां का चित्र बैठ जाए वह तो ठीक है। लेकिन लड़की के मन में मां का चित्र बैठ जाये तो कठिनाई हो जाती है। जरूरी है कि लड़की के मन में बाप का चित्र बैठे। लेकिन हमारी जो व्यवस्था है उसमे सब बच्चों को मां पालती है। बाप तो किन्हीं को पालता नहीं है। आने वाले भविष्य में लड़कियां बाप के निकट ज्यादा पाली जानी चाहिए। लड़के मां के निकट ज्यादा पाले जाने चाहिए। तभी हम दांपत्य जीवन से दुःख और पीड़ा और कलह को हटा पायेंगे। अन्यथा नहीं हटा पाएंगे। इसलिए आज तक पाँच हजार वर्षों में जितने विवाह के प्रयोग हुए, सभी असफल हो गये। क्योंकि प्रयोग ऊपर से होते है। भीतर कुछ और गहरी जड़ें है। जो हमारे ख्याल में भी नहीं है। लड़की के मन में भी अगर मां का चित्र बैठ जाये तो बहुत खतरा है। खतरा यह है कि हो सकता है, वह किसी पुरूष को कभी ठीक से पूरा प्रेम न कर पाये। वह पहले क्षण में जो तस्वीर बैठ गयी है, वह तस्वीर खतरनाक हो सकती है। पहली तस्वीर लड़की के मन में पुरूष की ही बैठनी चाहिए। वह एक ही पुरूष की नहीं बैठनी चाहिए। वह भी उचित है कि और ज्यादा पुरूषों की बैठे। ताकि कोई निश्चित तस्वीर न हो। और निश्चित तस्वीर की खोज जिंदगी में शुरू न हो जाएं।
अगर यह हो सके तो हम दांपत्य के दंश को, कलह को दुःख को, सफ्रिंग को अलग कर सकते है। अन्यथा नहीं कर सकते। लेकिन इस सब पर कोई ध्यान नहीं है। और एक आदमी अशांत हो गया है। एक-एक आदमी पीड़ित हो गया है। एक-एक आदमी अपनी अशांति और पीड़ा के लिए तरकीबें खोजता फिरता है। वह पूछता है। मैं शांत कैसे हो जाऊं। जब कि अशांति के कारण इतने गहरे है। इतने सामूहिक है, और इतने अतीत से जुडे है। कि उस एक व्यक्ति के सामर्थ्य के बहार की बात है उन्हें पहचाना। कि वह उस के बारे में कुछ कर पाये। वह करीब-करीब विवश, भाग्य के हाथों में बंधा हुआ अनुभव करता है। कुछ भी नहीं कर पाता है, तड़पता है, परेशान होता है और मर जाता है।
क्या हम कभी एक ऐसे समाज का चिंतन करेंगे?
करना पड़ेगा। करना अत्यंत जरूरी है। अन्यथा मनुष्य का भविष्य नहीं है कोई। अब हम उस जगह आ गये है। जहां मनुष्य जो बीमारियां अतीत में पाली थी। वह अपनी पूर्णाहुति पर पहुंच गई है। और हो सकता है, वह पर्दा गिरने के करीब हो। यह पूरा आदमी का समाज नष्ट हो जायेगा ऐसा होता है। पानी गर्म करते है तो एक डिग्री पर पानी भाप नहीं बनता है। दस डिग्री पर भी नहीं बनता, नब्बे डिग्री पर भी नहीं बनता। निन्यानवे डिग्री पर भी नहीं बनता। भांप तो सौ डिग्री पर ही बन सकता है। कि यह गलती है आखरी डिग्री की। जिसकी वजह से यह पानी भांप बन गया है। यह निन्यानवे डिग्री जो अतीत में इकट्ठी थी उनका ख्याल भी न आये।
आज आदमी की जिंदगी में जो सब तरफ से रोग प्रगट हो गये है। हिंसा है, वैमनस्य है। युद्ध है, ये सारे के सारे आजा पैदा नहीं हो गये है। कोई यह न समझे कि रामराज्य का इसमें कोई हाथ नहीं है। कोई यह न समझे कि क्राइस्ट के जमाने का इस में कोई हाथ नहीं है। हम तो आखिरी डिग्री भर जोड़ रहे है पानी के भाप बनने में, और कुछ नहीं कर रहे है। यह जो पिछले पाँच हजार सालों से, जैसा आदमी बनाया है। वह आखिरी जगह पहुंच गया है। जहां आखिरी डिग्री जुड़ जाए तो सब भाप बन जाए। और हम भाव बनने करीब खड़े हो गये है। इसलिए बहुत चिंता की बात भी है, चिंतन की भी, विचार की भी, सोचने की भी, खोजने की भी।
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