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*चाह का अर्थ क्या होता है?*
*चाह का अर्थ होता है, जैसा मैं हूं वैसा ठीक नहीं.. कुछ और होना चाहिए।*
थोड़ा और धन!
थोड़ा और पद!
थोड़ा और ध्यान!
थोड़ा और सत्य!
थोड़ा और परमात्मा!
*लेकिन थोड़ा और होना चाहिए।*
**जैसा है उस में मैं संतुष्ट नहीं।*
*चाह का अर्थ है असंतोष।*
तुमने एक शांत झील में कंकड़ फैंका।
तो लहरे उठती हैं।
तुम कोहिनूर हीरा फेंको,
फिर लहरे उठती हैं।
पानी को क्या फर्क पड़ता है?
*चाह पत्थर की तरह गिरती है तुम्हारे भीतर।*
*फिर चाह सोने की हो, या स्वर्ग की ।*
*इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर चाह संसार की हो कि परलोक की।*
इस से कोई फर्क नहीं पड़ता।
चाह पत्थर की तरह गिरती है
तुम्हारे चित पर।
चित्त कंप जाता है।
और चित के कंपन के कारण
सत्य खो जाता है।
सत्य को चाहना हो तो
सत्य को चाह मत बनाना।
चाह से जो मुक्त हो जाता है,
उसे सत्य मिलता है।
इसे धैर्या पूर्ण समझोगे तो
सीधी सीधी बात है।
*चाह के कारण तनाव पैदा होता है।*
तनाव भरे चित्त में परमात्मा की छवि नही बनती।
चाह के कारण तरंगे उठ आती हैं।
तरंगों के कारण सब कंपन पैदा हो जाता है।
*कंपते हुए मन में परमात्मा की छवि नही बनती।*
*ठीक से समझो तो कंपता हुआ मन ही संसार है।*
शांत बैठो।
कुछ समझने की भी वासना नही।
शांत बैठो ... निशतरंग ।
क्या पाने को बचा।
चाह संसार है।
*संसार या परमात्मा*
*दोनो चाह है।*
जिसके पास अन्यथा की कोई मांग नही।
जिसकी कोई चाह नहीं।
जो अभी जीता है, यही जीता है
वर्तमान में।
*जिसके लिए जैसा है वैसा होना स्वर्ग है।जहां है वही मोक्ष है।*
*ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक है।*
*कल जो आएगा... आएगा।*
*अभी जो है उसे भोगता है।*
*बड़े आनंद और अनुग्रह से भोगता है।*
🏵️🏵️🏵️ *ओशो* 🏵️🏵️🏵️
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