शनिवार, 19 मार्च 2022

हमने कार चलाना सीखा / सुभाष चंदर

( हास्य कहानी )


हमारा अपने बारे में काफी पुख्ता किस्म का ख्याल है कि हम टेक्निकल मामलों में बहुत ज्यादा एक्सपर्ट टाइप के बन्दें हैं और ऐसे कामों को काफ़ी जल्दी सीख जाते हैं। मसलन बल्ब बदलना सीखने में हमने सिर्फ़ आठ दिन लिये। इस अवधि में हमने केवल तीन बार बिजली के झटके खाये, पाँच बल्ब तोड़े और जमीन पर तो सिर्फ़ दो बार ही गिरे। उसमें भी हमारा सिर्फ़ एक ही दांत टूटा, दूसरा सिर्फ़ हिल कर ही रह गया। ऐसा ही रिकार्ड हमारा वाहन चलाना सीखने के बारे में है। हमने साइकिल चलाना बमुश्किल डेढ-दो साल में सीख लिया था। स्कूटर चलाना सीखने में हमें जरूर तीन साल और चार स्कूटर लगे थे। चौथे साल में चौथे स्कूटर को कबाड़ी को देने के बाद हमें स्कूटर चलाना भी आ गया। आज हालात ये हैं कि हम अपने घर से दफ़्तर तक बे नागा स्कूटर से ही जाते हैं। दो किलोमीटर की दूरी तय करने में हम बमुश्किल एक घन्टा खर्च करते हैं। जबकि पैदल चलने में हमें चालीस मिनट लगते हैं। पर हम स्कूटर पर ही चलना पसंद करते हैं क्योंकि सयाने कहते हैं कि अपने वाहन की सवारी का मज़ा ही अलग होता है। 

इधर कुछ दिनों से हम कार चलाने के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे तो इसके पीछे कई कारण थे। पहला ये कि मन्नू की मम्मी हमको सुबह-शाम दोनों टाइम याद दिलाती हैं कि उनकी दोनों बहनों के पति हमसे बेहतर हैं क्योंकि वे अपनी कार चलाते हैं और अपनी पत्नियों यानी हमारी सालियों को घुमाते हैं। उनकी बहनें रोज यहां-वहां घूमने की कहानियां सुनाती हैं और आखिर में ये कहना नहीं भूलती कि जीजाजी कब तक इसे टुटहे  स्कूटर पर तुम्हें घुमाते रहेंगे, कार से कब चलेंगे। अपनी कार में चलने का तो मज़ा ही अलग है वगैरहा .... वगैरहा। दूसरा पुख्ता कारण यह था कि हमारे दफ्तर में, हमारे बराबर के सभी अफसरों के पास कार थी, एक हम ही स्कूटर से आते थे। उसके कारण हमारा स्टैडर्ड का पारा उनके मुकाबले डाऊन आ रहा था। तीसरा सबसे चुभने वाला कारण यह था कि पड़ोस वाली मिसेज़ शर्मा ने भी कार खरीद ली थी और वह घड़ल्ले से हमारे सामने से कार से गुज़रती थी और हमें स्कूटर की सवारी करते देखकर, हमारी तरफ जैसी मुस्कान वो फेंकती थी, उससे हम जरूरत से ज्यादा घायल हो जाते थे। यह आखिरी कारण हमें काफ़ी भारी पड़ रहा था। सो हम कार खरीदना चाहते और उसे जल्द से जल्द चलाना सीखना भी चाहते थे। एक दिन हमने इस सम्बंध में, अपने दोस्त वर्माजी से बात की। सारा दुखड़ा सुनाया। सारे कारण गिनाये। बीवी और साथी अफसरों के तानों वाली बात से तो वह खास प्रभावित नहीं हुए पर मिसेज़ शर्मा की तीखी मुस्कान वाली बात उन्हें भी चुभ गयी। सुन्दर स्त्री वह भी दूसरे की, किसी भी कारण से मित्र को देखकर मुस्कराये तो मित्र के पेट में दर्द होना स्वाभाविक है। सो उन्होंने अपने दर्द के इलाज के लिए ठोस कदम उठाया और हमें बिन मांगी सलाह दी कि हमें एक पुरानी कार खरीद लेनी चाहिए। हमने पूछा – पुरानी क्यों, नयी क्यों नहीं ? उन्होंने फर्माया –,'' पुरानी कार से ही सीख लो। दो-चार जगह ठुक भी गयी तो दर्द कम होगा। डेंट-पेंट भी पुरानी कार का सस्ता पड़ेगा।' बात हमारी समझ में आ गयी। 

हमने बैंक से पैसे निकलवाये और उसी दिन कार बाज़ार से एक बढिया कार खरीद ली। कार वाकई बढ़िया थी क्योंकि पुरानी थी। मतलब ओल्ड इज़ गोल्ड की कसौटी पर खरी उतर चुकी थी। 98 मॉडल की मारूति जेन। कार तो खरीद ली पर असली समस्या बाकी थी यानी कार चलाने की ट्रेनिंग। वर्माजी ने यहाँ भी दोस्ती निभाई बोले -,'' यार कार चलाना तो बहुत आसान है, समझ लो, स्कूटर से भी आसान। ना बैलेंस बनाने की जरूरत। ना किसी से टकराने पे चोट लगने का डर। डरेगा तो सामने वाला।' हमें दिल ही दिल में तसल्ली हुई। पर अभी असली सवाल सामने था। सो हमने उसे वर्मा जी के हुजूर में पेश किया -,'' यार वो सब तो ठीक है पर हमें कार चलाना सिखायेगा कौन ? वर्मा जी बोले –,''हम सिखायेगें और कौन सिखायेगा ? हमने पूछना चाहा कितने साल में, फिर याद आया – कार चलाना स्कूटर चलाने से भी आसान है सो जल्दी सीख जायेंगे। सो प्रश्न में संशोधन कर लिया, तो तुम हमें कितने महीनों में कार चलाना सिखा दोगे ? वर्मा जी हो हो करके हंसे, बोले–,'' कितने महीनों में, अरे, सुबह सिखायेंगे, दोपहर तक प्रेक्टीस करना, देखना शाम को मार्केट में कार चलाते हुए दीखोगे।'

हमारी प्रसन्नता का पारावार न रहा। पर दोस्तों के सामने खुशी प्रदर्शित करना, वो भी वर्माजी जैसे मुफ्तखोरों के सामने, कितना नुक्सानदेह साबित हो सकता है, वह हम जानते थे। सो हमने खुशी छिपाई और सीधा सा सवाल दिखा दिया -,'' अच्छा ये बताओ, सिखाने की फीस क्या लोगे ?' वर्माजी हंसे, बोले–,'' क्या बात करते हो यार, भला तुमसे फीस लूंगा। तुम तो बस अनारकली बार में पार्टी दे देना बस। वो भी तब जब ठीक से चलाने लगो, अब खुश।' मैंने खुश होने से पहले हिसाब लगाया। अनारकली बार का दो बंदों का खर्चा ज्यादा से ज्यादा 700 रुपये। कार ड्राइविंग स्कूल की फीस 1500 रुपये। नेट 800 रुपये की बचत। इस बचत ने मुझे खुश होने का अवसर दिया। सो मैं खुश हो लिया। पार्टी का वादा कर लिया। इसके बाद वर्माजी ने कार स्टार्ट की और घर तक ले आये। कहना ना होगा कि मैं चुप-चाप वर्माजी के पैरों की हरकतें देखता रहा। वर्मा जी समझ गये कि मैं कार चलाने के फंडे सीख रहा हूँ। ज्यादा सीख गया तो पार्टी मारी जायेगी। इस डर से उन्होंने मिसेज़ शर्मा की बात छेड़ दी। मैं अटक गया और काफ़ी देर तक पहली मुस्कान और मेरे कार चलाने के बाद आने वाली संभावित मुस्कान में भटक गया। इतनी देर में घर आ गया। वर्मा जी कार घर छोड़कर चले गये। वर्माजी गये, श्रीमती जी आ गयीं। श्रीमती जी पहले गाड़ी देखकर खुश हुईं। फिर कुशल मैकेनिक की सी दृष्टि से गाड़ी का नख-शिख परीक्षण करने लगीं, उसके लगभग दस मिनट बाद उन्होंने मुंह बिचकाते हुए घोषणा की–,'' पक्की बात है, लुट कर आये हो। शोरूम वाले ने नयी बताकर तुम्हें पुरानी गाड़ी भिड़ा दी।' उससे पहले कि वह मेरी नासमझी की शान में कसीदे पढ़ती और बात का तोड़ कुछ ऐसी बात पर करतीं, हाय राम, इस नासमझ आदमी से शादी करके मेरे तो भाग्य ही फूट गये वगैरहा। मैंने सारा खेल पहले ही भांपकर उनके इन्सपेक्शन की बात को हल्का कर दिया। बोला -,'' देवी जी, यह गाड़ी मैंने पुरानी ही खरीदी है। मुझसे ही पूछ लेतीं तो इतनी देर इंसपेक्शन ना करना पड़ता।'' श्रीमती जी को अपनी मेहनत खराब होने का क़ाफ़ी दुःख हुआ। फिर भी वह बोली -,'' पर क्यों खरीदी पुरानी कार। मेरी तो नाक कटा दी। अब हम क्या इस खटारा कार से चलेंगे। छाया, सीमा, रीता सब क्या कहेंगी- लो आ गयी पुरानी कार वाली। बेइज्जती कराके रख दी।' वह अभी और टमकोले सुनाने वाली थीं कि हमने उन्हें कारण समझा दिया कि हमने पुरानी कार क्यों खरीदी। हमारे बताये कारण से वह संतुष्ट हो गयी। उसके बाद वह कार की पूजा के लिए हल्दी-रोली लेने चली गयी। हम भी निश्चिंत होकर दोस्तों को खबर सुनाने चले गये।

रात को जब हम लौटे तो श्रीमती जी का मूड बहुत रोमांटिक था। आते ही मुस्कराई, फिर गलबहियां डालकर बोली–,'' क्यों आर्यपुत्र, आप कितने महीनें में गाड़ी चलाना सीख जाओगे ? देखो, इस बार स्कूटर की तरह सालों का प्रोग्राम मत बनाना। जल्दी सीख जाना, मुझे अपनी सारी सहेलियों के घर जाना है अपनी गाड़ी से। समझ रहे हो ना।' मैं समझ गया कि श्रीमती जी मेरी सीखने की क्षमता पर अंगुली उठा रही हैं। सो मैं थोड़ा पिनककर बोला–,'' बेगम, डायलॉग मत मारो। देखना हम कल शाम ही लौंग ड्राइव पर चलेंगे। सीधे दिल्ली के इंडिया गेट।' तैयार रहना। 

अब चौंकने की बारी श्रीमती जी की थी –,''ये क्या कह रहे हो जी, कल... इत्ती जल्दी.... धत्... मज़ाक कर रहे हो ? उनके स्वर में संशय था। मैं बोला–,'' मेरी बात पर विश्वास करो। वर्माजी बता रहे थे। कार चलाना बहुत आसान है। बस सुबह वर्माजी सिखायेंगे। दोपहर को थोड़ी प्रेक्टीस होगी। शाम तक तो ड्राइविंग में परफेक्ट हो जाऊँगा। बस तुंम तैयार रहना। ठीक छह बजे। और हाँ .... डिनर भी बाहर ही करेंगे। मेरे  स्वर में विश्वास था।

ऐं..... सच्ची जी.... हे राम... फिर तो मज़े आ जायेंगे। सुनो जी... दोपहर को ब्यूटी पार्लर हो आऊँगी। आखिर... अपनी गाड़ी मैं बैठ के जाना है। अब तो कार वाले हो गये है, स्टैंडर्ड तो मैनटेन करना पड़ेगा ना।'' श्रीमती जी के स्वर में उल्लास था और कार मालकिन के लायक ठसक भी।

उसके बाद श्रीमती जी गुनगुनाती हुई घर के काम निपटाने लगीं और हम कल्पना में उन सभी दुश्मनों को निपटाने लगे जो हमें स्कूटर पर देखकर तानों की गोलियाँ बरसाया करते थे। सोचते-सोचते ही हमें नींद आ गयी। उस रात सपने में हमने अपने आपको जब भी देखा, कार की ड्राइविंग सीट पर ही देखा। हर बार हम सपने में गाड़ी चला रहे होते थे और हमारी बगल की सीट पर कभी मिसेज़ शर्मा हमें निहार रही होतीं थीं तो कभी दफ्तर की मिस ब्रिगेंजा। अलबत्ता श्रीमतीजी भी किसी सपने में नज़र आई हो, ऐसा हमें याद नहीं आया। वैसे भी नये ड्राइवर के साथ शुरू में तो बीवी ना ही रहे तो बेहतर है, वरना एक्सीडेंट के चांस बढ़ जाते हैं। रात भर में हमारी नींद कई बार उचटी। हर बार अच्छे सपनों को रिवाइंड करते हुए हम सो गये।

सुबह आठ बजे हमारे ड्राइविंग कोच वर्माजी आ धमके। हम तो तैयार थे ही। हमने श्रीमती जी से भी कहा कि वह भी हमारे साथ बैठ लें। कुछ देर हम ड्राइविंग सीखेंगे फिर वर्माजी को विदा करके, उन्हें कार में बिठाकर गुल्लू की चाट खिलाकर लायेंगे। हमने क़ाफ़ी इसरार किया पर श्रीमती जी तैयार नहीं हुई। उन्हें हम पर कुछ ज्यादा विश्वास नहीं था। पर हमारे तीनों बच्चों वीनू, विन्नी और मन्नू को हम पर पक्का भरोसा था कि हम घन्टे-दो घन्टे में कार चलाना सीख जायेंगे और इसके बाद वे अपनी कार में बैठकर आईसक्रीम खाने जायेंगे। हमने भी उनसे वादा कर लिया।

अब गाड़ी चलाना सीखने का टाइम आ गया। वर्माजी ने गाड़ी स्टार्ट की। फिर ड्राइविंग सीट पर बैठकर हमें कोचिंग देने लगे। पैरों की तरफ क्लिच है, बीच में ब्रेक और दांयी तरफ एक्सीलेरेटर है। बांये तरफ गीयर है। पहले क्लिच दबाना है। फिर गाड़ी पहले गियर में डालनी है, तब एक्सेलेरेटर देना है – धीरे-धीरे।

उन्होंने दो-तीन बार ऐसा करके दिखाया। हमसे पूछा कि समझ गये। हमें भी लगा कि यह तो बड़ा आसान है, सब समझ में आ गया। हमने हाँ कर दी। अब उन्होंने हमें ड्राइविंग सीट पर बिठा दिया। हम थोड़ा घबराये, ब्लड प्रेशर थोड़ा बढ़ गया। वर्माजी समझ गये। उन्होंने फिर रिकार्ड बजाया–,'' चिन्ता मत करो। गाड़ी चलाना टू व्हीलर चलाने से आसान है। बस एक्सीलेटर का ध्यान रखना, उसको ज्यादा मत दबाना। स्टेरिंग सभालने में घन्टे भर में परफेक्ट हो जाओगे। 

हमें भी उनकी बातों पर विश्वास हो आया। हमने गाड़ी बंद करके फिर से स्टार्ट की। फेफड़ों में हवा के साथ कॉन्फीडेंस भरा। उसके बाद आस-पास का जायजा लिया। आसपास यानी कॉलोनी की सड़क पर कोई नहीं था। हमारी गाड़ी थी, हम थे, वर्मा जी थे, बच्चे थे और लगभग आठ-दस फीट की दूरी पर एक खंभा था। अब हमें इत्मिनान हो गया। पहली बात तो हम सब समझ गये थे फिर भी कोई गलती हो जाती तो वर्मा जी थे ही। उनके हाथ हैंडब्रेक पर थे। कुछ भी गलत होने की स्थिति में वह हैंडब्रेक ऊपर खींच देते। गाड़ी रुक जाती। मतलब खतरे की संभावना ना के बराबर थी। हमने वर्मा जी की तरफ़ आँखों आँखों में देखा। वर्मा जी आगे बढ़ने का इशारा किया। साथ ही एक बार फिर समझाया -,'' एक्सीलेरेटर को बहुत हल्के से दबाने पर ध्यान देना। बाकी सब समझ ही गये हो। अब भगवान का नाम लेकर गाड़ी आगे बढ़ाओ। उन्होंने हिम्मत बढ़ाई फिर बच्चों ने भी नारा लगाया-,'' पापा गाड़ी बढ़ाओ, हम आपके साथ हैं। 

अब हिम्मत आई, फिर भी एक्स्ट्रा हिम्मत के लिए हमने हनुमान चालीसा का मन ही मन जाप भी शुरू कर दिया। कान्फीडेन्स लेवल काफी बढ़ गया। अब हमने गाड़ी बंद करके फिर स्टार्ट की। पहले क्लिच दबाई, गीयर डाला, यहाँतक सब सही था, पर जैसे ही एक्सीलेरेटर पर पैर रखा। गाड़ी तेज़ी से भाग ली। जाकर सामने खड़े खंम्बे से टकराई। हम घबरा गये। इधर वर्माजी चिल्ला रहे थे। एक्सीलेरेटर से पैर हटाओ- ब्रेक दबाओ। हमें घबराहट में कुछ समझ नहीं आ रहा था। जितना वह चिल्लाते, उतना ही हम जोर से एक्सीलेरेटर दबाते। घबराहट में हम जोर-जोर से चिल्लाने लगे- वर्मा बचाओ, हम मर जायेंगे। ऐसा कहकर हमने घबराकर वर्माजी के हाथ पकड़ लिये। अब वर्मा भी शोर मचाने लगे – अबे छोड़ो, हाथ तो छोड़ो। पर हम होश में हों तो छोड़े। हमने ना उनके हाथ छोड़े ना एक्सीलेरेटर दबाना छोड़ा। हम जितनी ताकत से चिल्ला रहे थे, उतनी जोर से एक्सेलेरेटर दबा रहे थे। खंभे में एक टक्कर लगी – दो- दस – बारह पता नहीं टक्कर पे टक्कर लगती रही। पूरी गाड़ी में चिल्ल-पों मची हुई थी। वर्माजी चिल्ला रहे थे, अबे मेरे हाथ छोड़ो, एक्सीलेरेटर से पैर हटाओ, वरना खंभा गिर जायेगा। हम सब मर जायेंगे। उधर बच्चे चिल्ला रहे थे, रो रहे थे। उधर हम धड़-धड़ बजते दिल से बचाओ-बचाओ चीख रहे थे। पर आँखें बंद करके एक्सेलेरेटर पर जोर लगाये जा रहे थे। 

कार लगातार खंभे पर टक्कर मार रही थी। खंभा हिल रहा था। उधर वर्माजी अपना हाथ छुड़ाने को जोर लगा रहे थे। साथ-साथ हमें गलिया रहे थे पर हम कार से खंभे को उखाड़ने के काम में लगे थे। तभी जोर की आवाज़ हुई और खंभा उखड़कर कार की छत पर गिरा। कार का शीशा चटख गया। छत पिचक गयी। बच्चे, हम, वर्मा जी और बालकनी में खड़ी श्रीमती जी सभी जोरों से चीखे। इस कोलाहल और खंभे के पतन से फायदा ये हुआ कि हमारे हाथों ने वर्मा के हाथ छोड़ दिये। वर्मा ने जल्दी से हैंड ब्रेक लगाये। गाड़ी रुक गयी। वर्माजी चीखते हुए पहले खुद बाहर निकले, फिर बच्चों को बाहर निकाला, उसके बाद हमसे बाहर निकलने को कहा। पर हमें कुछ सुनाई नहीं दे रहा था, हम तो एक्सीलेरेटर से पिछले जनम की दुश्मनी निकालने पर आमादा थे। हारकर दुबे ने हमें खींचकर बाहर निकाला। बाहर आते ही हम नीचे गिर गये और बेहोश हो गये। कुछ देर बाद मुंह पर पानी के छींटे मारकर हमें होश में लाया गया पर हम गाड़ी की हालत देखकर फिर से बेहोश होते-होते बचे। खंभे ने कार की छत पिचका दी। आगे का शीशा टूट गया था। दरक से पिछला शीशा भी चटख गया। गनीमत थी कि पुरानी गाड़ी थी, सो मजबूत थी। खंभा कार की छत तोड़कर अन्दर नहीं घुसा था, वरना हम सारे हॉस्पीटल में पड़े होते। हमने कांपते स्वर में ऊपर वाले को धन्यवाद दिया। उसके बाद वर्माजी को गलियाया कि उन्होंने समय पर हैंड ब्रेक लिए होते तो इतना नुक्सान न होता। 

वर्माजी ने हमें बहुत समझाया कि हमने उसके हाथ पकड़ लिये थे, वो हैंड ब्रेक कैसे लगाते। पर बात हमने ना तब मानी, ना आज मानी। बाद में हमने हिसाब लगाया कि उस दिन हमने लगभग पांच मिनट गाड़ी चलाई थी और आठ-दस फीट का सफर तय किया था। मन्नू ने बाकी हिसाब लगाकर बताया कि इस 'लम्बे' सफर में हमने खंभे में पूरे 24 बार टक्कर मारी थी। पाँच मिनट की इस ड्राइविंग पर सिर्फ़ 22 हजार रुपये का खर्चा आया था जिसमें 15000 हजार गाड़ी के इलाज में और बाकी के पैसे खंभे के इलाज़ मे लगे। 

इस घटना के बाद हम पर कुछ बढ़िया प्रभाव पड़े। पहला हमने मिसेज शर्मा की ओर देखना बंद कर दिया। दूसरे अपनी तो क्या, दूसरों की गाड़ी में भी बैठना बंद कर दिया। गाड़ी में बैठने के नाम पर ही हमारी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ जाती। हमारी गाड़ी शोपीस की तरह घर में खड़ी रहती। आस-पास से गुजरने वाले लोग पहले हमारी गाड़ी देखते, फिर हमें देखते और फिर हंस पड़ते। हमारी ड्राइविंग के बारे में पूरी कॉलोनी में कहानियाँ फैलने लगी थी। कई मुंहफट लोग तो हमसे ही उन कहानियों की तस्दीक करने आ जाते। हमारे पड़ोसियों ने, हमारे घरवालों ने, रिश्तेदारों ने सबने हमें गाड़ी खड़ी रखने पर जलील किया, हमने जलालत बर्दाश्त की पर गाड़ी चलाना सीखने का नाम नहीं लिया।

ऐसे ही तीन-चार साल गुज़र गये। 

हम हर छह महीने में मैकेनिक को बुलाकर गाड़ी की सर्विस करा लेते। उसके बाद गाड़ी का फर्श गलने लगा। दो बार फर्श भी बदलवाया। एक बार अनीस मैनेनिक ने हमसे कहा-साब कब तक गाड़ी में पैसे लगाते रहोगे गाड़ी सीख क्यों नहीं लेते ? हमने उन्हें सारी कहानी बताई। वह हंसे। हसने से फुर्सत पाकर उन्होंने सारी गलती वर्मा की निकाली जिसने बिना सिखाये ही हमारे हाथ में गाड़ी का स्टीयरिंग थमा दिया था। हमें उनकी बात पर विश्वास हो गया। अनीस ने ऐसे ही घंटे भर समझाया। नतीजा यह निकला कि हम अनीस से गाड़ी सीखने को तैयार हो गये। तय हुआ कि अनीस पूरे पन्द्रह दिन हमको गाड़ी चलाना सिखायेंगे। बदले में हम उसे 1500 रुपये और एक मिठाई का डिब्बा देंगे। इसके बाद अनीस चले गये। हमने उनके जाने के बाद श्रीमती जी को अपने फैसले की खबर की। उन्होंने यह सुनकर हमारी ओर बस होठ बिचकाकर एक हिकारत भरी मुस्कान मारी कि हम घायल हो गये। हमने उनकी तारीफ़ में कुछ कसीदे पढ़े और मन में तय कर लिया कि अब तो चाहे जो हो, हम गाड़ी चलाना सीखकर ही दिखायेंगे। 

यह निश्चय बहुत देर तक कायम रहा। यूं समझिये कि शाम तक हम अड़े रहे। पर जब हम रात को बिस्तर पर लैटे तो हमारा निर्णय डांवाडोल हो चुका था। रात भर हम सपने देखते रहे। कभी देखते कि कि हमारी कार हवाई जहाज बनकर हवा में तैर रही है, कभी वह एफिल टॉवर को टक्कर मारकर गिरा रही है तो कभी पीसा की टेढ़ी मीनार सीधी कर रही है। एक बार तो हमने यहाँ तक देख लिया कि हमारी कार ने चीन की दीवार गिरा दी है और चीन ने नाराज़ होकर हमारे देश पर हमले की चेतावनी तक दे दी है। किस्सा कोताह यह है कि हमने रात भर में दर्जनों सपने देख डाले। हर बार नींद टूटने पर हमने यही निर्णय लिया कि हमें दुनिया को बर्बाद होने से बचाना है तो हमें कार सीखने का फैसला बदलना पड़ेगा।

रात भर के सपनों का नतीजा यह हुआ कि सुबह जब अनीस हमें कार सिखाने आये तो उनके आने से पहले हम वर्माजी के घर निकल चुके थे। दूसरे दिन हम शर्मा जी के घर चाय पी रहे थे। तीसरे दिन हम रावतजी को मेहमाननवाजी का लुत्फ़ दिला रहे थे। रोज़ अनीस आते, लौट जाते। पर वह भी जिद्दी आदमी थे। उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी। चौथे दिन, जब हम उनसे बचकर सुबह छह बजे ही निकल रहे थे कि उन्होंने हमें लपक लिया। हम खिसियाए, वह मुस्कराये। हमने आँय -बाँय की,अपने  डर का हवाला दिया। दुनिया को बर्बाद होने से बचाने में उनसे  मदद की अपील की। पर वह सिर्फ़ मुस्कराते रहे। हम उनकी मुस्कान से बचने के रास्ते ढूंढते रहे। हमने उन्हेंभावी  नुक्सान से बचाने के लिए 1500/- रुपये बिना सिखाये ही देने का प्रस्ताव  तक कर डाला। पर उन्होंने ‘मुफ्त का पैसा हराम है’ पर एक प्रवचन दे डाला। हारकर हम ड्राइविंग सीखने को तैयार हो गये। पर हमने दो  शर्तें रख दीं कि एक तो हम एक्सीलेरेटर पर पैर नहीं रखेंगे। दूसरे हम कार में हैलमेट लगाकर बैठेगें। 

आश्चर्य ! उन्होंने हमारी दोनों शर्त मान ली। अब तो हमारी मजबूरी थी, हम घर से हेलमेट लेकर आये। सर पर लगाया और कार में बैठ गये।

अनीस ने खुश होकर कार स्टार्ट की l रास्ते भर वह हमें कर के पुर्जों और चलाने की तकनीक के बारे में बताते रहे पर  तो  हम हनुमान चालीसा के पाठ में जुटे रहे । लोग हमें हैलमेट के कारण घूर-घूर कर देख रहे थे। हंस रहे थे, पर हम निश्चित थे।सीधी बात - जान है तो जहान है। अनीस  कार को एक खुले मैदान में ले आये। हमने अच्छी तरह तसल्ली कर ली, दूर-दूर तक कोई खंभा नहीं था। ट्रेनिंग शुरू करने से पहले अनीस ने हिम्मत पर लेक्चर दिया – हिम्मते मरदा, मददे खुदा का नारा दिया। हमारी गैरत वगैरहा को ललकारा। इन सबसे निपटने के बाद नये सिरे से हमें गीयर, ब्रेक, गियर वगैरहा के बारे में सिखाया। हमने एक-एक बात को दस-दस बार पूछा। इतना पूछा की उन्हें हमारे कूढ़ मगज होने पर पूरा विश्वास हो गया। और कोई होता तो भाग जाता पर हलाल की कमाई ने उन्हें यह मौका नहीं दिया। आखिर हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई। कई साल बाद हम ड्राइविंग सीट पर बैठे। दिल धड़-धड़ बज रहा था, हाथ-पाँव कांप रहे थे, कांपती जुबान पर हनुमान चालीसा लहक रहा था। इसी अवस्था में हमने अनीस के कहे अनुसार लगभग घंटे भर तक पहला गियर डालने और फिर उसे न्यूट्रल में लाने की प्रैक्टिस की। अगले घन्टे में हमने क्लिच दबाने की प्रेक्टिस की। हाँ... और भूलकर भी हमने एक्सीलेरेटर की तरफ नहीं देखा, वरना शायद हमारी घिग्घी ही बंध जाती। इसी बीच गाड़ी जो है, वो बंद रही। ये सारी प्रेक्टिस बंद गाड़ी में चलती रही। उसके बाद हम थक गये। अनीस ने गाड़ी घर की ओर मोड़ ली। हमारा ख्याल था कि हमारी कूढ़मगजी देखकर अनीस अगले दिन नहीं आयेगें। पर वह फिर आ गये। अगले दिन से वही मशक्कत शुरू हुई। उपलब्धि यह रही कि हमने बिना एक्सीलेरेटर पर पैर रखे पूरे बीस फीट गाड़ी चलाई। वो भी फर्स्ट गेयर डालकर, क्लिच के सहारे। अगले दिन बीस से तीस फीट फिर अगले दिन से फी दस फीट गाड़ी बढ़ती रही। आठ दिन बाद हमारी यह हालत हो गयी कि हमने लगभग क्लिच पर ही आधा किलोमीटर गाड़ी चला दी। नौवें दिन प्रैक्टिस बंद रही क्योंकि क्लिच प्लेट फुंक गयी थी। उसके ठीक होने में सिर्फ़ सात हजार रुपये और दो दिन लगे. इस अवधि में हमें नींद अच्छी आई और बुरे सपने भी नहीं आये।

उसके बाद गाड़ी फिर चल गयी। एक महीने तक हमने गाड़ी चलानी सीखी। दो बार और क्लिच प्लेट बदलवाई। पर हमारा उत्साह कम नहीं हुआ। हमारी हिम्मत यहां तक बढ़ गयी कि कई बार हम अनीस के ना होने पर भी गाड़ी निकालने लगे और क्लिच के सहारे कॉलोनी की सड़कों पर चलाने लगे। पर यह सावधानी जरूर बरतते ये कि किसी भी वाहन को दूर से देखकर जोर-जोर से हॉर्न बजाना शुरू कर देते। वह तब भी पास आता तो वहीं ब्रेक लगाकर गाड़ी खड़ी कर देते। इस चक्कर में हमने शायद सभी गाड़ी वालों से जाने कितनी गालियां खाई होंगी पर हमारी हिम्मत नहीं टूटी। आखिर हम गाड़ी चलाने का सपना जो पूरा कर रहे थे। 

ढाई-तीन महीनों की क्लच ड्राइविंग के बाद हमारा हौंसला बढ़ गया। हमने एक दिन अनीस के सामने प्रस्ताव रख दिया कि वह हमें पूरी ड्राइविंग सिखाये, बाकायदा एक्सीलेरेटर के उपयोग वाली। शायद तब तक अनीस के सब्र का प्याला भी छलकने की आखिरी स्टेज पर था। उस इस प्रस्ताव से राहत मिली। हमने धड़कते दिल और कांपते पैरों से एक्सीलेरेटर का उपयोग शुरू किया। वही हुआ जिसका डर था, एक्सीलेरेटर पर पैर रखते ही गाड़ी भाग ली। अनीस चौकन्ना थे, उन्होंने हैंड ब्रेक लिया। हमारा सीना स्टीयरिंग से टकराया। पर हमने हिम्मत नहीं हारी। सीना मलकर हम फिर ड्राइविंग में जुट गये। पन्द्रह – बीस दिन में हालात इतने बढ़िया हो गये कि हम फर्स्ट से सेकेंड गीयर तक पहुँच गये। लगभग बीस किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से अपनी गाड़ी दौड़ने लगी। एक दिन वापसी में हमने अनीस से कहा कि वह चाहे तो वापस चले जायें, आज हम गाड़ी खुद कॉलोनी में लेकर जायेंगे। अनीस ने हमें खूब समझाया पर हम नहीं माने। हारकर वह चले गये।

हमने पूरे आत्मविश्वास से गाड़ी आगे बढ़ाई। खाली रास्ते में तो सब ठीक था। कॉलोनी के पास की सड़क पर थोड़ी धुकधुकी बढ़ी। जितनी धुकधुकी बढी, उतनी ही हमारी हॉर्न पर निर्भरता बढ़ी। दो-चार जगह गाड़ी बंद भी करनी पड़ी। पर फिर हनुमान जी का नाम लेकर गाड़ी आगे बढ़ा दी। गाड़ी कॉलोनी के गेट में घुस गयी। भीड़-भाड़ कम थी। वैसे भी अधिकांश लोग हमें और हमारी गाड़ी को पहचानते थे। कुछ लोगों ने हमारी गाड़ी देखते ही आपनी गाड़ी कोने में खड़ी कर दी। जल्दी वाले बच बचाकर निकालकर ले गये। सब कुछ बड़े सहज ढंग से चल रहा था। हमने सपनों की बुनाई भी शुरू कर दी थी कि सब ऐसे ही चलता रहा तो दो-चार दिन में हम श्रीमती जी को लाँग ड्राइव पर ले जाने लायक हो जायेंगे। 

हमने यह सोचा ही था कि डैश बोर्ड पर लगा मोबाइल बज उठा। देखा तो श्रीमती जी का ही फोन था। हमने फोन उठा लिया। अभी हम उन्हें अकेले गाड़ी लाने की बात कहने ही वाले थे कि गली के मोड़ से एक ट्रक आता दिखाई दिया जिस पर सामान लदा था। उसे देखकर हमने बांये तरफ मोड़ने की कोशिश की, उधर से एक मोटर साइकिल आ रही थी। एक तरफ मोबाइल पर बात, दूसरी तरफ ट्रक और तीसरी तरफ से मोटर साइकिल। इन तीनों ने हमारे संतुलन का बैंड बजा दिया। हमने खूब जोर से हॉर्न बजाया, खूब बचके निकलने की कोशिश की, निकल भी जाते पर मोटर साइकिल वाला बिल्कुल हमारी गाड़ी के सामने से निकाल ले गया, उसे बचाने की कोशिश में हमारे हाथ-पांव फूल गये। हमने स्टीयरिंग व्हील घुमाया, ब्रेक दबाने की कोशिश की। पर ब्रेक की जगह वही एक्सीलेरेटर दब गया। बस फिर क्या था गाड़ी ने ट्रक पर चढ़ाई कर दी। बड़ी जोर से धड़ाम की आवाज़ हुई। हमारा सिर स्टीयरिंग व्हील से टकराया और हम बेहोश हो गये।

उसके बाद जब हमारी बेहोशी टूटी तो हमने देखा कि हम हॉस्पीटल के बेड पर हैं। हमारे पूरे बदन पर पट्टियाँ बंधी है। सामने डॉक्टरों की फौज और उसके पीछे आँखों में आँसू भरे श्रीमती जी खड़ी हैं। हमें होश में आते देख वह फूट – फूट कर रोने लगी। हमने उन्हें सान्त्वना देने को, उठने की कोशिश की तो उठ नहीं पाये। दर्द की तेज़ लहर बदन में दौड़ गयी डॉक्टरों ने बताया कि हमारे हाथ और पैरों की हड्ड़ियां कई जगहों से टूटी पड़ी हैं। और हम आज तीन दिन बाद होश में आये हैं। वो तो हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम बच गये, वर्ना उम्मीद कम थी। इतना सुनना था कि हम फिर से बेहोश हो गये।

आगे की कहानी सिर्फ़ इतनी है कि हम पूरे सात महीने अस्पताल में इलाज कराते रहे। इलाज़ पर लाखों रुपये का खर्चा आया। कई महीने बिना वेतन के छुट्टियों पर रहे। गाड़ी पूरी चकनाचूर हो गयी। नौकरी भी जाते-जाते बची। पर इस सबके बाद भी हमें बस एक ही बात का संतोष रहा कि हमने बिना किसी की मदद के गाड़ी चलाई थी वो भी पूरे एक किलोमीटर l  अब हम सिर उठाकर कह तो  सकते हैं कि हमें कार चलानी आती है। इतना कम है क्या ?

जी 186 ए ,एच आई जी ,प्रताप विहार ,गाजियाबाद -201009 

(मोब -9311660057 )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...