हमारे दादा के बड़े भाई जनाब कृष्ण सहाय हितकारी उर्फ़ 'वहशी कानपुरी' ने जब कानपुर में वक़ालत शुरु की तो उनका क़याम मेस्टन रोड पर एक किराए के घर पर हुआ. कुछ अरसे बाद उनकी वक़ालत चल निकली और उन्होनें स्वरूप नगर में एक बड़ा बंगला बनवाया. जहां बाद में वो अपने दो छोटे भाइयों और उनकी फैमलीज़ को फ़तेहपुर से कानपुर अपने साथ लिवा लाए. उनके इन छोटे भाइयों में एक हमारे दादा यानि हर सहाय हितकारी भी थे. ये दौर ज्वांइट फैमलीज़ का था जहां घर का सबसे बड़ा या यूं कहिए मुखिया अपने सभी भाई बहनों को साथ लेकर रहता था. हमारे घर में ये ट्रेडिशन हमारे वालिद के समय तक जारी रहा. बहरहाल धीरे धीरे परिवार बढ़ते गए और हमारे दादा की मौत के बाद हमारे ताऊ और वालिद स्वरूप नगर में ही वहशी साहब के बंगले के नज़दीक केशव खन्ना के मकान में किराए पर रहने चले आए. इसी घर में हमारी बड़ी बहन कुमकुम पैदा हुई थीं. थोड़े ही समय बाद हमारे ताऊ का इंतक़ाल हो गया और हमारे वालिद हमारी दादी, मां, अपने दोनों छोटे भाईयों, बहन कुमकुम और ताऊ के दो बच्चों को लेकर स्वरूप नगर में ही घंटाघर के पास एक किराए के मकान में शिफ़्ट हो गए. ये मकान कराची, पाकिस्तान से आए एक रिफ्यूजी का था जिन्हें सब भारती बाबू कह कर बुलाते थे. भारती बाबू और उनके परिवार ने बंटवारे में बहुत कुछ खोया. बंटवारे के ख़ून ख़राबे में उनकी बहन 'बुआजी' के सोलह साल के बेटे को काट कर मार दिया गया था जिससे 'बुआ जी' ज़िन्दग़ी भर के लिए साइकिक हो गईं थीं. अपनी ज़मीन जायदाद छोड़कर ये लोग कराची से भागकर आए थे. बुआजी अपने साथ अपने कुछ ज़ेवर पिघला कर ले आईं थीं जो उनकी कुल जमा पूंजी थी. भारती बाबू ने स्वरूप नगर में घंटा घर के पास ज़मीन लेकर घर बनवाया था. पापा लोग जब इसमें शिफ़्ट हुए थे तो ये बन ही रहा था. बाद में ये दो मंज़िला मकान हो गया. नीचे भारती बाबू अपनी बीवी 'अम्मा जी' और बड़ी बहन ' बुआ जी' के साथ रहते थे. ऊपर की मंज़िल में उनकी बेटी कृष्णा अपने दो गोद लिए बेटों के साथ रहती थीं. हम लोग नीचे घर के एक हिस्से में थे. हमारे बड़े भाई सुमन और हम इसी घर में पैदा हुए थे. हमें इस घर की हल्की सी ही याद है. बस दो तीन तस्वीरें भर हैं जो लगता है उस वक्त की होंगी! घर के बगल में एक बड़ा ख़ाली प्लाट था जिसमें धोबी की भट्टी लगती थी जिससे वाशिंग सोडा की महक आती रहती थी. सामने घंटाघर था जिसकी घड़ी बहुत ऊपर लगी थी. लगता था इतनी ऊंची घड़ी में चाबी कैसे भरी जाती होगी? कैसे ये कभी रुकती नहीं है? भारती बाबू के यहां बाद में बराबर आना जाना रहा तो हो सकता है ज़हन में ऐसी इमेजेज़ बाद में अपने आप बन गईं हों. जब हम तीन या चार साल के थे तभी हम लोग बीआईसी के बंगले में आ गए थे. वालिद बताते थे कि किराए का ये घर बहुत छोटा था लेकिन भारती बाबू और अम्मा जी ने तकरीबन पूरा घर ही हम लोगों के हवाले कर दिया था. कहीं भी उठने बैठने की कोई रोक टोक नहीं थी. बाहर से आने वाले गेस्ट के लिए रुकने की कोई दिक्कत नहीं रहती थी. भारती बाबू की बेटी के एक रिश्तेदार थे राम भजन जिनकी घर के आगे के पोर्शन में एक दुकान थी. शुरु में तो ये एक कंफेक्शनरी शाप थी लेकिन बाद में प्राविज़न स्टोर हो गई थी. जिसमें रोज़मर्रा के सामान के अलावा खिलौने भी मिलते थे. हमारे बड़े भाई सुमन को खिलौनों का बड़ा शौक था. पापा बताते थे कि राम भजन की दुकान से सुमन हर रोज एक खिलौना ले आते . हिन्दुस्तान में भाई चारे की रवायत को रिफ्यूजीज़ ने काफ़ी बढ़ाया. पाकिस्तान से भागकर आए इन लोगों के ज़हन में बंटवारे के ज़ख्म इतने गहरे थे कि उनकी भरपाई मेल मिलाप से रहने में ही मुमकिन थी. जब ये लोग हिन्दुस्तान आए तो पैसे तो थे लेकिन रोज़गार के नाम पर फ़ौरी तौर पर कुछ नहीं था लिहाज़ा आम ज़रूरत की चीज़ों के स्टोर्स ही सबसे आसान ज़रिया बना. हिन्दुस्तान में प्राविज़न स्टोर्स का कल्चर भी इन्हीं रिफ्यूजीज़ की देन है. भारती बाबू के यहां हम लोगों का आना जाना बराबर क़ायम रहा. जब तक भारती बाबू ज़िंदा रहे. भारती बाबू ही नहीं बल्कि स्वरूप नगर घंटाघर इलाक़े से भी बराबर रिश्ता बना रहा. घंटाघर में गोश्त और मछली की दुकानें थीं हम लोग जब भारती बाबू के घर से छह बंगलिया, तिलक नगर के क़रीब बी.आई.सी के बंगले में शिफ़्ट हो गए तब भी हर रोज़ गोश्त घंटाघर की दुकान से ही आता था. मंगल को छोड़कर. दुर्गा पूजा भी हम सब घंटाघर के मैदान में ही मनाने जाते रहे.
और होली पर तो हम तीनों भाइयों( ताऊ के बेटे गुड्डू, मेरे बड़े भाई सुमन और हम) की शुरुआत ही भारती बाबू के घर स्वरूप नगर से ही होती थी.
हमारी दादी सभी त्योहार बड़ी शिद्दत से मनाती थीं. होली की तैयारी तीन चार दिन पहले से ही शुरु हो जाती थी. उनकी ज़िद होती थी कि गुझिया का खोया कानपुर की खोया मंडी से ही आए जबकि उस दौर में हर जगह बिना मिलावट का खोया ही मिलता था. एक बड़ी टोकरी या झऊआ भर गुझिया बनती थी जिसके लिए दादी के साथ हमारी अम्मा और दो नौकरानियां दिन दिन भर चूल्हे पर लगीं रहतीं. बेसन की पापड़ी के अलावा घर में दो क़िस्म, चने और मसूर , की दालमोठ ज़रूर बनती थी. हम तीनों भाईयों के पास स्टील की बोतल वाली पिचकारियां थीं जो साल भर दादी की अलमारी में रहती थीं और होली के दो दिन पहले बाज़ार सर्विसिंग के लिए जाती थीं. ये पिचकारियां नाऊ की दुकान में इस्तेमाल पिचकारियों जैसी थीं जिन्हें चलाने पर दूर तक धार और फ़व्वारा छूटता था. बहनों के लिए प्लाटिक की पिचकारियां आती और अबीर गुलाल, रंग के अलावा टेसू के फूल भी आते थे जिन्हें भिगो और उबाल कर खुशबू वाला चटख़ रंग बनता था.
हम लोग जितने वक्त कानपुर में रहे होली हमेशा स्वरूप नगर में वहशी साहब के घर (जिसे बंगले कहते थे ) के चौराहे पर ही जलाई. साल में एक दिन ऐसा होता था जब सारे पुराने मोहल्ले वाले इकठ्ठा होते थे. उस होली दहन का ज़िम्मा उसी मोहल्ले के सुबोध चाचा के ऊपर था. जिसका चंदा लेने वे हमारे घर पर आते थे. ये एक रवायात थी जो सालों साल चली. सुबोध चाचा की मां को हम लोग 'मम्मी जी' कहते थे. 'मम्मी जी' हमारी दादी की दोस्त थीं. हमारी दादी 'मम्मी जी' के सुख दुख की ज़िन्दग़ी भर भागीदार रहीं. 'मम्मी जी' के शौहर यानि सुबोध चाचा के वालिद बाबू रघुनाथ सहाय डीएवी कालेज कानपुर में कॉमर्स के प्रोफ़ेसर थे. उन दिनों कॉलेज का प्रोफ़ेसर बड़ा हैसियत दार माना जाता था. वहशी साहब के बंगले के सामने एक ख़ासे बड़े प्लाट पर रघुनाथ सहाय की कोठी थी. घर के आगे काफ़ी बडा खुला मैदान था. 'मम्मी जी' भी बड़े हैसियत वाले घर से थीं. उनके भाई राय बहादुर टीकाराम यूपी के आई. जी. पुलिस थे. उस समय यूपी में पुलिस का सबसे बडा ओहदा आई. जी. का ही हुआ करता था और पूरे सूबे में बस एक ही आई.जी. होता था. सुबोध के अलावा 'मम्मी जी' की दो बेटियां भी थीं रत्ना और मीरा. रत्ना बुआ और मीरा बुआ दोनों सुबोध चाचा से बड़ी थीं. बाबू रघुनाथ सहाय के इंतक़ाल के बाद 'मम्मी जी' बहुत तंगी में आ गईं. राय बहादुर टीकाराम की एक हादसे में मौत हो गई और कुछ रिश्तेदारों ने 'मम्मी जी' को धोका देकर उनकी कुछ प्रॉपर्टी हथिया ली. अपने बंगले के आगे की ज़मीन मम्मी जी ने कानपुर के बड़े इंडस्ट्रलिज़ सोहन लाल सिंहानियां को बेच दी. इसके बावजूद मम्मी जी ने अपनी दोनों बेटियों की शादियां बहुत अच्छे घर की. रत्ना बुआ आजकल अमेरिका में हैं और मीरा बुआ कनाडा में. सुबोध ने ज़िन्दग़ी भर कुछ नहीं किया. उन्हें शराब और उधार की लत लग गई. अभी हाल में मालूम हुआ कि कई साल पहले ही वो गुज़र चुके हैं.
तो होली जलाने हम लोग सुबोध चाचा के चौराहे पर ही जाते थे. जब हमारे मुन्नू चाचा अपनी क्लीनिक से वापस आते तो हम सब उनकी गाड़ी पर लद कर स्वरूप नगर पहले अपनी ताई के घर( वहशी साहब के बंगले) फिर सुबोध चाचा के ठीहे पर पहुँचते. हमारे वालिद को रंग खेलना बिलकुल पसंद नहीं था. जबकि मुन्नू और चुन्नू चाचा दोनों होली शौक से खेलते. मुन्नू चाचा सेलिब्रेशन में रहते थे. उन्हें ऐसे मौक़ों पर अपने पुराने यार दोस्तों से मिलना बहुत पसंद था. होली जलाने के बाद स्वरूप नगर चौराहे पर पान की दुकान पर वो काफ़ी वक्त दोस्तों के साथ गुज़ारते.
होली के दिन हमारी दादी हम तीनों भाइयों को हिदायत देकर भेजतीं कि किसके किसके घर जाना हैं. ये हिदायत हर साल दी जाती. हम लोगों का बंगला 'छह बंगलिया' में था. तिलक नगर से लगी एक डेढ़ दो किलोमीटर की रेंज में महज़ छह बंगले ही थे इसलिए इस जगह को 'छह बंगलिया' कहा जाता था. हम लोग जब घर से चलते तो बृजेन्द्र स्वरूप पार्क पार कर आर्य नगर होते हुए स्वरूप नगर जाते. आर्यनगर पहुंचते पहुंचते होली का धमाल अपने पूरे शबाब तक पहुंच जाता. हम छोटे थे तो होली के हुलियारों के झुंड, उनके रंग बिरंगे चेहरों और बेहूदा हरक़तों को देखकर डर जाते. लिहाज़ा इन सबसे बच कर किनारे किनारे ही निकल लेते. बचपन में होली की जो दहशत समाई वो आज तक जिंदा है.
तो हम तीनों भाई होली में सबसे पहले स्वरूप नगर में भारती बाबू के घर जाते. भारती बाबू सफ़ेद धोती और सफ़ेद बुर्राक़ लम्बी पठानी कमीज़ पहनते थे. अम्मा जी मोटी और बहुत गोरी सी थीं. रंगीन साड़ी में रहती थीं और माथे पर मोटी बिंदी लगाती थीं. बुआ जी बेवा थीं. सफ़ेद घोती में रहती थीं. उनके बाल बिलकुल सफेद थे. जब भारती बाबू के यहां होली में पहुँचते तो उनके सफेद कपड़ों पर रंग डालने से डरते थे. जब भारती बाबू ख़ुद कहते रंग डालो तब बड़े एहतियात से उनकी कमीज़ पर पिचकारी से रंग छोड़ देते.
अम्मा जी सुमन और हमें बहुत प्यार करतीं और देर तक अपनी गोद में लेकर बैठी रहती. भारती बाबू हमारी दादी के लिए एक्टेंटेड फ़ैमिली थे. महीनें दो महीनों में दादी हम लोगों को रिक्शे पर बिठा कर उनका हाल चाल लेने ज़रूर पहुंच जाती थीं. हमारे घर के हर फंकशन में भारती बाबू के लि न्योता ज़रूर जाता था. भारती बाबू के घर पर रह कर ही हमारे पापा के कैरियर का ज़बरदस्त राईज़ हुआ. इसी घर में रह कर मुन्नू चाचा डाक्टर बने. यहीं पर पापा ने अपनी पहली फोर्ड एडलर कार ख़रीदी. ये गाडी पापा ने मुन्नू चाचा के लिए ली थी. जब उन्होनें एमबीबीएस कर लिया और हाउस जॉब में आ गए तब उनके मेडिकल कॉलेज जाने के लिए. हमारे वालिद और छोटे चाचा, चुन्नु चाचा, दोनों ही का मानना रहा कि भारती बाबू के घर का वक्त उन लोगों की ज़िन्दग़ी का सबसे बेहतरीन वक्त था.
स्वरूप नगर में हम लोगों का जितनों से मिलना जुलना हुआ वो ज़िन्दग़ी भर क़ायम रहा. भारती बाबू के घर के ठीक सामने रमेश श्रीवास्तव रहते थे. दोहरे बदन के थे तो मोहल्ले वाले उनहें 'मोटू रमेश' कह कर बुलाते थे. रमेश श्रीवास्तव डीएवी कालेज में पुलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर थे और क्रिकेट के इतने जुनूनी थे कि कानपुर के हर टेस्ट मैच में वो एलानिया तौर पर हिन्दी कॉमेंट्री के लिए इन्वाइट किए जाते. ये वो दौर था जब क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेशन क्रिकेट लवर्स और लोकल इंडस्ट्रीज़ के हाथ में था. ग्रीन पार्क और कानपुर क्रिकेट एसोसिएशन जे.के. ग्रुप्स के हवाले थी. उन्ही के यहां के ज्योति बाजपेई क्रिकेट मैच ऑर्गनाइज़ करवाते थे. पापा का भी बीआईसी में होने की वजह से कुछ न कुछ रोल रहता था. लेकिन इसके बावजूद हम लोग हमेशा पांच रुपए वाले स्टूडेंट सीज़नल टिकट पर ही मैच देखते थे. रमेश श्रीवास्तव पान के बहुत शौक़ीन थे और कॉमेंट्री करते करते बीच बीच में ऊंगली से चूना चाटते रहते. जब हम थोड़े बड़े हो गए तो एक बार स्टूडेंट गैलरी से फेंस फांद कर कॉमेंट्री बाक्स में पहुंच गए थे जहां मोटू रमेश को लाइव कॉमेंट्री करते देखा. डीएवी ट्रस्ट वीरेन्द्र स्वरूप यानि चंदू बाबू की मिल्कियत थी और उनके इशारे भर से डीएवी में किसी का भी अपावइंटमेट हो जाता था. लिहाज़ा इस दौर में डीएवी कालेज में कायस्थ टीचरों की भरमार हुआ करती थी. पता नहीं पर कहतें है ये सिलसिला चंदू बाबू के बाद भी जारी रहा.
मोटू रमेश पापा के दोस्त थे और जब कभी भी हमसे मिलते तो पढ़ाई की हिदायत देते. एक बार हम साइकिल उठा कर इतवार को उनके घर चले गए. पहले तो देख कर खुश हुए कि हितकारी का लड़का मिलने आया है लेकिन जब हमने अमेरिकन प्रेसिडेंट इलेक्शन प्रोसेस को समझाने के लिए कहा तो एक किताब लाकर कहा, ' फ़लाने पेज से फ़लाने पेज तक दो तीन बार रीडिंग लगाओ और उसके प्वाइंट्स नोट करो. समझ में आ जाएगा. इतनी आसान प्रोसेस नहीं है जितनी तुम समझते हो. इसीलिए कहतें हैं पढ़ाई करो. तुम्हारा बाप कितना पढ़ा लिखा, कितना तेज़ है!' मोटू रमेश ने हमें कनपुरिया स्टाइल में इतना ट्रेलर दे दिया कि बाद में हम दोनों ने एक दूसरे का सामना नहीं किया. बाद में जब हम बग़ैर वैलिड पास के उनके क्रिकेट कॉमेंट्री बाक्स में धंस लिए तो उन्होनें बड़ी हिकारत की नज़र से देखा था. बग़ैर वैलिड आईडेंटिटी या पास के धंसना भी एक आर्ट है और हमें लगता है कि इस कला में हम कानपुर वालों का कोई सानी नहीं. ना जाने कितनी बार इलाहाबाद से दिल्ली और दिल्ली से इलाहाबाद हम बग़ैर टिकट, महज़ प्लेट्फॉर्म टिकट पर, आए गए हैं. और हर बार ट्रेन के टीटी ने हमें जगह भी दिलवाई है. यही नहीं लखनऊ विधान सभा में हम ज़िद्दियन बग़ैर पास दाख़िल होने में शान समझते रहे. यहां तक कि चीफ़ मिनिस्टर के घर और दफ़्तर में भी! दरअसल बहुत कुछ आपके डील डौल, चाल ढाल और कोंफिडेंस पर डिपेंड करता है!
स्वरूप नगर में ही मुन्नू- चुन्नू चाचा के एक दोस्त थे पालीवाल. बहुत ग़रीब थे. शुरु शुरु में उनके पास खाने तक को नहीं था. दादी बताती थीं कि दसियों साल तक उन्होनें हमारे यहां कम से कम एक वक्त का खाना खाया होगा. पालीवाल बहुत मेहनती थे. छोटे मोटे ठेके से उन्होनें अपना काम शुरु किया था बाद में स्वरूप नगर में ही एक तीन मंज़िला कोठी खड़ी कर ली. पालीवाल ने कानपुर म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के कई इलेक्शन लड़े. चुन्नू चाचा रिक्शे पर उनकी कंवेंसिंग करते लेकिन इलेक्शन के ठीक पहले पालीवाल दूसरे कैंडिडेट के फ़ेवर में पैसा लेकर बैठ जाते. पालीवाल हमारी दादी को बहुत मानते थे. हमारे बड़े मामा जब अपना ईलाज करवाने कानपुर आए तो दादी ने उन्हें पालीवाल का घर ही किराए पर दिलवाया. छोटे मामा जब इलाहाबाद से ट्रांसफ़र पर कानपुर आए तब भी दादी ने पालीवाल का घर ही उनके लिए तय किया. रिश्तेदारों को किराए पर घर दिलवाने की ज़िम्मेदारी दादी की ही रहती थी. और जब बड़ी मामी के भाई सुशील मामा कानपुर पोस्ट हुए तब भी दादी ने ही 'मम्मी जी' का एक मकान किराए पर तय करवाया था.
होली में हम भाइयों का दायरा स्वरूप नगर तक ही रहता था. भारती बाबू के घर से शुरु होकर बंगले यानि लल्लन ताऊ जी के यहां और फिर उनके भाईयों बब्बन चाचा, शिब्बन चाचा के यहां जाते थे. बब्बन और शिब्बन चाचा लल्लन ताऊ जी की दूसरी मां के बेटे थे लिहाज़ा हमारे पापा के फ़र्स्ट कज़िन थे लेकिन उन लोगों ने कभी लल्लन ताऊ और ताई की तरह रिश्ता बन कर नहीं रहा. पता नहीं ऐसा क्यों था?
हमारे दादा और उनके भाईयों के बच्चों में सबसे सक्सेसफुल हमारे पापा और उनके भाई ही रहे! बब्बन चाचा स्टेट गवर्नमेंट में प्रोबेशनरी अफ़सर थे और शिब्बन चाचा एमप्लामेंट आफ़िसर. हमलोग इतने छोटे थे कि कोई इल्म नहीं था कि ये लोग क्या करते हैं? बस इतना जानते थे कि हमलोगों के चाचा हैं. बब्बन चाचा अक्सर हम लोगों को अपने दिए हुए जजमेंट के बारे में बताते रहते. हम लोग समझते थे वो किसी बड़ी अदालत में जज हैं. शिब्बन चाचा शायद ही कभी कानपुर में पोस्टेड रहें हों. बस होली दिवाली ही अपने घर में वो भी कभी कभी ही दिखाई देते थे. जब बब्बन और शिब्बन चाचा की मां का इंतक़ाल हुआ तो उनके लास्ट राइट्स में दादी ने हम तीनों भाइयों को ख़बर मिलते ही भेजा था. अब तो बब्बन चाचा को गुज़रे भी कई साल हो गए. हम लोगों को उनके ना रहने की कोई इत्तिला भी नहीं हुई. उनकी दो बेटियां शायद कानपुर में ही हैं लेकिन पिछले 40 - 42 सालों से कोई राब्ता नहीं. शिब्बन चाचा ख़ासे ज़ईफ़ हो गए हैं और लखनऊ में अपने एक बेटे के साथ रहते हैं. उनसे भी हम लोगों का कोई राब्ता नहीं. अक्सर ऐसा होता है कि बचपन में एक परिवार की तरह साथ रहते हुए बाद में इतनी दूरीयां हो जाती हैं कि एक दूसरे की ख़बर तक नहीं रहती. हालांकि हमारी दादी जब तक ज़िंदा रहीं घर के हर फंक्शन में बब्बन और शिब्बन चाचा के परिवारों को बराबर मदऊं किया गया. रिश्ते ख़ुश दिल से मिलने से ही निभते हैं और दोनों ही तरफ़ से निभाए जाते हैं. पता नहीं लोग क्यों और किस वजह से गांठ बांध लेते हैं और तन्हा हो जाते हैं?
तो मम्मी जी के यहां भी हर होली में हम भाइयों का लाज़िमी तौर पर जाना होता था. मम्मी जी और रत्ना , मीरा बुआ के बस पैर छूने ही हम लोग जाते थे उनसे होली नहीं खेलते थे. सुबोध चाचा शराब पीकर खटिया पर पड़े रहते थे. हम इतना डर जाते कि उनकी तरफ़ देखते तक नहीं थे. आज भी शराबियों से बड़ा ख़ौफ़ लगता है और हर शराबी में सुबोध चाचा ही नज़र आते हैं.स्वरूप नगर में हमारी दादी के एक रिश्तेदार थे रजनीश बाबू. रजनीश बाबू की बीवी दादी की बहन लगतीं थीं. लिहाज़ा पापा उन्हें मौसी और रजनीश बाबू को मौसा कहते थे. रजनीश बाबू पापा के साथ के ही रहे होंगे या दो चार साल बड़े. लिहाज़ा हम लोग भी उन्हें मौसा और मौसी ही मानते थे. स्वरूप नगर में रजनीश मौसा का घर हम लोगों का लास्ट डेस्टिनेशन होता था. ये सिलसिला सालों साल तक बदस्तूर जारी रहा.
बड़ा मिलना जुलना था सबसे. हमारी दादी यही चाहती थीं कि जेनरेशन नेक्स्ट में हम लोग इन रिश्तों को बना कर रखें !
आज हमारे दोनों भाई, कज़िन गुड्डू और बडे़ भाई सुमन इस दुनिया में नहीं हैं. बहुत से पुराने लोग भी अब ज़िंदा कहां हैं? मिलना कम हो पाता है लेकिन पुरानी बातें करके फ़ोन पर ठहाके तो लग ही जाते हैं. कोशिश यही रहती है कि कम से कम त्योहारों पर हम अपने से बड़ों से बात कर विश तो कर दें! कल ही लल्लन ताऊ के बेटे पवन दद्दा से होली पर लखनऊ फ़ोन पर बात हुई तो स्वरूप नगर की सारी यादें उमड़ पड़ी!
कुछ महीनें पहले प्रेसिडेंट ऑफ़ इंडिया के साथ कानपुर जाना और एक रोज़ रुकना हुआ तो दोपहर को गाड़ी उठाकर सीधे स्वरूप नगर रवाना हो लिए. शहर बहुत बदल गया. आर्यनगर, सब्ज़ी मंडी, आर्यनगर चौराहा, स्वरूप नगर - सब कुछ बहुत बदल गया लेकिन इसके बावजूद हमारी गाड़ी सीधे भारती बाबू के चौराहे पर ही रुकती है. दोपहर का वक्त है. सड़क पर कोई भी जाना पहचाना चेहरा नहीं ! भारती बाबू का घर भी नहीं है. बग़ल के प्लाट में घोबी की भट्टी भी नहीं . लेकिन वाशिंग सोडे की महक़ अभी भी महसूस हो रही है! घंटाघर अभी भी ही है. लेकिन घड़ी रुकी हुई है. लगता है 40 साल पहले वाले वक्त पर ही रुक गई !कोई चाबी देने वाला जो नहीं रहा !
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