होलिका दहन के सामान जुटाने हेतु दूसरों के मचान, झोंपड़ी, चौकी, दरवाजे पर पड़ी लकड़ी, पतहर, यहाँ तक कि फर्नीचर भी सहेज देने की पुरानी परिपाटी अब समाप्तप्राय हो रही है। लोग इस अवसर पर वैमनस्य भी साधते रहे हैं।
इसके साथ ही एक परम्परा रही है - गोंइठी जुटाने के लिए भिक्षाटन जैसी। गोंइठी कहते हैं छोटे उपले को। पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में इसे चिपरी भी कहते हैं।
नवयुवक गोलबन्दी कर हर दरवाजे पर जा जा कर कबीरा के साथ एक विशिष्ट शैली का गान भी करते थे जिसमें गृहिणियों से होलिका दहन के ईंधन हेतु गोइंठी की माँग की जाती थी। इस गान में 'गोंइठी दे' टेक का प्रयोग होता था। लयात्मक होते हुए भी कई लोगों द्वारा समूह गायन होने के कारण इसमें बहुत छूट भी ले ली जाती थी। जाति और समाज बहिष्कृत लोगों के यहाँ इस 'भिक्षा' के लिए नहीं जाया जाता था। किसी का घर छूट जाता था तो वह बुरा मान जाता था।
.. समय ने करवट बदली और कई कारणों से, जिसमें अश्लीलता सम्भवत: मुख्य कारण रही होगी, यह माँगना धीरे धीरे कम होता गया। आज यह प्रथा लुप्त प्राय हो चली है।
लेकिन कभी इस अवसर का उपयोग पढ़े लिखे 'सुसंस्कृत ग्रामीण लंठ जन' लोगों के मनोरंजन के लिए भी करते थे। गाँव समाज से जुड़ी बहुत सी समस्याओं और बातों को जोड़ कर गान बनाते और घर घर सुनाते। इन गीतों में बहुत चुटीला व्यंग्य़ होता था।
मेरे क्षेत्र के एक गाँव चितामन चक (चक चिंतामणि) में एक अध्यापक ऐसे ही थे जिनके मुँह से कभी कुछ बन्दिशें मैंने सुनी थीं। आभासी संसार के इस फाग महोत्सव में आज की मेरी प्रस्तुति उन्हें श्रद्धांजलि है, एक प्रयत्न है कि आप को उसकी झलक दिखा सकूँ और यह भी बता सकूँ कि होलिकोत्सव बस लुहेड़ों का उच्छृंखल प्रदर्शन नहीं था, उसमें लोकरंजन और लोक-अभिव्यक्ति के तत्त्व भी थे। क्या पता किसी गाँव गिराम में आज भी हों !
उत्तर भारत के उन क्षेत्रों में होली में कबीरा और जोगीरा गाने की परम्परा रही है जहाँ कभी नाथपंथी योगी और कबीरपंथी सक्रिय रहे। प्रचलित कुरीतियों और परम्पराओं पर इन लोगों ने तीखे प्रहार किए। प्रतिक्रिया में जनता ने होली के अवसर पर गाए जाने वाले अश्लील गीतों में उन्हें सम्मिलित कर लिया। इन क्षेत्रों में यह परम्परा पहले से भी थी कि नहीं यह संस्कृत, पाली, प्राकृत और लोकवाणी के ज्ञानी जन ही बता पाएँगे।
मुझे लगता है यह परम्परा क्षेत्रीय रही है क्यों कि सूरत और सिलवासा में मैंने होलिका की केवल विधिवत पूजा होते देखी है। यहाँ तक कि नव विवाहित जोड़े गाँठ बाँध कर परिक्रमा भी करते हैं। श्रीमती जी बता रही हैं कि लखनऊ में भी केवल पूजा होती है। अस्तु..
इन जोगीरों और कबीरों में अश्लील गायन के अलावा हास्य, व्यंग्य, अन्योक्ति और प्रश्नोत्तर शैली में सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे तक उठाए जाते रहे हैं। ब्लॉग पर भी ऐसा होना ही चाहिए। मैंने लम्बी सोची थी लेकिन कुछ समयाभाव और कुछ तत्काल की प्रबलता.....
फागुन गीतों में अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना तीनों शब्द शक्तियाँ मिलती हैं। हमारे गाँव के पास के एक गाँव चितामन चक (चक चिंतामणि) के रामबली मास्टर साहब फगुआ और नौटंकियों के बहाने ज्वलंत मुद्दे उठाने के लिये जाने जाते थे। बचपन में उन्हें सुना था।
✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव जी के लेखों से संग्रहित
फागुन बहुत उदास है।
उदास है, क्योंकि उसके निकट अब वे हुरियारे नहीं रहे जिन्हें फागुन का वास्तविक अर्थ ज्ञात था।
वे हुरियारे अब नहीं रहे जो पलाश - पुष्पों जैसे शब्दों से जनों के मनों में टहटह गुलनार फागुन घोल देते थे।
नहीं रहे वे हुरियारे,
जो वासकज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका
एवं अभिसारिका के नवोढ़ा, मुग्धा एवं प्रौढा रूपों में महीन विभेद जान कर उनके मन के अनुरूप ऐसी मीठी गारियाँ गढ़ सकें कि नायिकायें एक साथ कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात कह उठें कि "भाग हियंवाँ से निर्लज्ज!" और उनकी भंगिमाएँ बोलें - "ए गो अउरो सुनाउ न!"
हम साहित्य ही नहीं, ऋतुओं एवं उत्सवों के भी अल्पजीवी परिवेश में जी रहे हैं जिसमें प्रत्येक को प्रत्येक अवसर, प्रत्येक घटना, प्रत्येक भावना, प्रत्येक अभिव्यक्ति को एक औपचारिकता का निर्वाह करते हुए यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र निबटा देने की अबूझ शीघ्रता है। और आज शब्दकारों के पास ले-दे कर सरसों का एक फुलाया हुआ खेत है, जिसकी बसन्ती आभा में ही सारा बसन्त सिमटा है। किन्तु किया क्या जा सकता है? सारे पर्व, समस्त उत्सव, और उनसे संश्लिष्ट ऋतु-व्यापार तो ऋतु-विपर्यय का आखेट हो चुके हैं।
होलास्टक लग गया किन्तु कोकिल नहीं कूका। एक - दो नवहे अमोलों को छोड़ दें जिनकी युवानी तनिक पहले अँखुआ आयी थी, तो आमों पर मञ्जरियाँ तो अब तक थीं ही नहीं। प्रौढ़ सहकार तो अब जा कर धीरे-धीरे उमगने लगे हैं, उनका बसन्त में बौराना तो अभी भी ढंग से नहीं हुआ, क्योंकि आधे से अधिक फागुन तो माघ की चपेट में रहा।
फागुन बसन्त का प्रतिरूप नहीं। बसन्त की मादकता एवं सरसता का प्रतिरूप तो वैदिक मधु एवं माधव मास है। मधुमास है चैत्र और माधव मास है बैशाख। बसन्त है काम का घोषित सामन्त! काम के कोमल आक्रमण से पूर्व उसकी सैन्य-योजना का निर्धारण यह बसन्त ही करता है। गन्ध और रङ्ग से, कोकिल की कूक से, प्रकृति के हुलास से, नकुल के विलास से, किसलय से, पात से और छेड़ भरी बात से, काम के आगमन का परिवेश ये मधु एवं माधव मास ही रचते हैं। प्रकृति के गर्भाधान एवं सृजन का मास फागुन नहीं, चइत-बइसाख हैं। फागुन तो प्रकृति के प्रथम रजोदर्शन का मास है जो बताता है कि प्रकृति अब इस योग्य हो चुकी कि स्वयं काम-शर से बिद्ध हो सके एवं आपको भी बिद्ध कर सके। फागुन पियाराये झरे पातों के माध्यम से हरिद्राभिषिक्त पत्रलेख है, काम के सुबास की सूचना है, एक आमन्त्रण, काम के स्वयंवर हेतु प्रकृति का न्यौता! खर्जूर के सामयिक क्षतों से स्रवित होते रस के मदिर मधुर गंध और स्वाद के प्रति रसभाविकों को एक प्रलोभन!
फागुन बस इतना ही है।
स्वयंवर तो चइतवाँसे सजेगा!
नीरस मिथ्याडम्बर का परिवेशन करते शुष्क तर्कशास्त्री काम के सिद्धान्त से अनभिज्ञ ही रहते हैं। स्वेदन-स्नेहन की उपेक्षा कर रूक्ष घर्षण से काम का देवता तृप्त नहीं होता। उसे काया ही नहीं, मन का भी मृदु-मंथन चाहिये।
कहते हैं कि मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर चुके आदि शंकराचार्य से मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी श्रीमती शारदा मिश्र ने कहा था - आप ने मेरे पति को पराजित किया है आचार्य! किन्तु वह आधे हैं। गार्हस्थ पति एवं पत्नी के युग्म से पूर्ण होता है अतः उनका अर्धांग अभी अपराजित है। यदि पूर्ण विजय की अभिलाषा है तो आपको मुझसे भी शास्त्रार्थ करना होगा।
तर्कतः बात सिद्ध थी अतः शंकराचार्य ने शारदा से शास्त्रार्थ स्वीकार कर लिया।
शारदा ही शंकर एवं मण्डन के शास्त्रार्थ हेतु निर्णायक की भूमिका में थी अतः अब तक के शास्त्रार्थ में वह जान चुकी थी कि अपने विषय में तो शंकर एक घुटा हुआ तर्कशास्त्री है किन्तु रस से अनभिज्ञ है, अतः इसे घेरना हो तो इसे किसी उस भूमि में घेरना होगा जो इसका जाना न हो। इसे उस अखाड़े में पटकना होगा जहाँ इसकी गति न हो।
अतः शारदा ने पहला ही प्रश्न किया -
कलाः कियत्यो वद पुष्पधन्वनः,
किमासिका किञ्च पदं समाश्रिताः ।
पूर्वे च पक्षे कथमन्यथा स्थितिः
कथं युवत्यां कथमेव पूरुषे।।
पुष्पधन्वा कामदेव की कलायें कितनी हैं? उनका स्वरूप क्या है? वे किन-किन स्थानों का आश्रय लेती हैं? युवती हेतु एवं पुरुष हेतु उसकी स्थितियॉं कैसी हैं? पूर्व तथा पक्ष में, अर्थात प्रथम हेतु (युवती हेतु) एवं अपर हेतु (पुरुष हेतु) उसकी (काम की) स्थिति भिन्न कैसे हो जाती है?
बाल ब्रह्मचारी शंकराचार्य तो सन्न! वे क्या जानें काम की कलायें?
उन्होंने शारदा से एक मास का समय माँगा।
कहते हैं कि बसन्त में मृगया को निकला राजा अमरुक वन में ही तृषा से त्रस्त अपने प्राण खो बैठा था और तभी शंकराचार्य ने उसके रोते-बिलखते परिजनों के साथ उसका शव देखा। परकाया-प्रवेश में सिद्ध शंकर ने अपने शिष्यों को अपने देह की यत्न से रक्षा करने का आदेश दे कर तत्काल अपनी मूल काया को त्याग कर उस मृत राजा के शव में प्रविष्ट हो गये एवं मास भर यथेच्छ काम-सेवन किया।
उस अवधि के अनुभव को उन्होंने अमरुक शतक नाम के ग्रंथ में लिख दिया जो शृंगार का एक अनुपम ग्रंथ है।
मास पर्यंत स्वीकृत अवधि के बीतने से पूर्व ही वे पुनः अमरुक की काया त्याग कर अपनी प्राकृत काया में आ गये एवं उस एक मास के काम-अनुभव का लाभ ले कर उन्होंने शारदा मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित भी किया।
किन्तु शंकर के भीतर का शुष्क तार्किक अब रस-सिद्ध हो चुका था। अब उसकी वाणी में कर्कश तर्क की रूक्षता ही नहीं थी, रस की एक निर्बाध पयस्विनी भी थी।
क्या फागुन बस इतना ही है?
फागुन बहुत उदास है।
वह उदास है, क्योंकि उसके निकट अब वे हुरियारे नहीं रहे जिन्हें फागुन का वास्तविक अर्थ ज्ञात था।
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