मंगलवार, 15 मार्च 2022

टिल्लन और टिल्लन की किताब ! /- मनमोहन सरल

 

मनमोहन सरल:

धर्मयुग 


टिल्लन का नाम तो सुना  था , लेकिन देखा तब जब ये 1980 के दिसंबर में शरद जोशी की पत्रिका ' हिंदी एक्सप्रेस '  में उप संपादक बन कर आये । दुबले पतले इकहरे शरीर वाले बेफ्रिक नवयुवक थे ।  अक्सर ' धर्मयुग ' आते थे , विनम्र , शालीन और सबके साथ जल्दी घुल मिल जाने वाले थे । ' हिंदी एक्सप्रेस ' के बाद ये ' श्रीवर्षा ' गए , फिर पता चला कि ये महर्षि महेश योगी के अखबार ' ज्ञानयुग प्रभात ' में जबलपुर चले गए ।


साल डेढ़ साल बाद बम्बई लौटे तो कुछ दिन ' धर्मयुग ' में रहे फिर ' करंट ' चले गए ।' बम्बई आने से पहले इनके लेख मज़े से क्षेत्रीय अखबारों और धर्मयुग , हिंदुस्तान आदि में प्रकाशित  होने लगे थे । करंट के बाद घूमघाम कर ये फिर धर्मयुग आ गये । अब जब ये दोबारा ' धर्मयुग ' आये और काम में रमने लगे तब इनके स्वभाव और काम करने के लहजे को पहचाना , ये बड़े इत्मीनान से पूरी दक्षता और सहजता से दिए हुए काम को अंजाम तक पहुंचा देते ।


'  धर्मयुग  ' में 6 अंकों तक  का तानाबाना तना रहता है , बड़ी एकाग्रता और सूझबूझ से काम होता था , कभी कभी फंसते तो ये भी थे पर अपनी चतुराई , हुनर और धैर्य से रास्ता निकाल लेते थे । काम में धीरे धीरे ये निखरते गए , मैंने देखा कि ये लेखन सम्पादन से ज्यादा पेज के लेआउट और साज सज्जा में रुचि लेते हैं ।

 

' धर्मयुग ' के बाद इनके किये गए काम , राष्ट्रीय सहारा के दैनिक  रंगीन परिशिष्ट ' उमंग ' को  मैने देखा तो लगा कि ' धर्मयुग ' के दौर का इनका पेजों की साज सज्जा से लगाव  बाद में काम आया । कहां एक दैनिक के रंगीन  रविवासरीय साल में 52 अंक बनते  हैं , कहां ये साल के 365 अंक बनाते हैं , गज़ब का लेआउट ,आकर्षक साज सज्जा । लगभग 6 साल तक ' उमंग ' गुलज़ार रहा  ।

बाद में ये अपने सम्पादन  में बनी पत्रिकाएं मुझे भेजते थे , तो मैंने देखा कि साज सज्जा और कंटेंट के लिहाज से ये बड़ी परिमार्जित पत्रिकाएं  हैं । यह इनके कलात्मक हुनर का कमाल हैं । महर्षि महेश योगी के संस्थान की पत्रिका ' महा मीडिया ' , कोलकाता की पाक्षिक ' गंभीर समाचार ' और अभी हाल की प्रकाशित ' आर्युवेंदम  ' मुझे  बड़ी प्रभावी लगीं । इनकी इस प्रगति के लिए इन्हें मेरा आशीर्वाद है ।


अब टिल्लन ने अपने अतीत के तमाम बिखरे पन्ने समेट कर एक किताब तैयार की है ' मेरे आसपास के लोग '  मुझे लगता हैं उनके जीवन में कभी न कभी हम आप और अन्य वह सब जो इनके आसपास से गुज़रें होंगे , उन सभी  का जिक्र हैं इस किताब में । इतना विराट फलक सन 1965 से 2022 तक की स्मृतियों को किताब में उतार पाना यह हमारे आप के प्रति इनकी गहरी प्रीति और अच्छी याददाश्त  के बिना संभव नहीं । टिल्लन को लाखों  लाख शुभाशीष ।


' मेरे आसपास के लोग ' किताब में प्रवेश करते हुए लिखते हैं , ' स्मृतियों की परछाइयाँ !…समय की मुठ्ठी में जीवंत और महसूस होता अतीत कभी-कभी वर्तमान  से भी ज्यादा मुखर हो उठता है … सब अभी-अभी घट  रहा जैसा ! तारीखों के फासले बेमानी है …स्मृतियों की किताब के पन्ने … उन पर गुजरते-संवरते लोग … सब आप के मुखातिब करता हूँ ! ये सब जो मुझे सँवार रहे हैं … निखार रहे  हैं … सब को हाजिर- नाज़िर मान कर आप के रू-ब-रू होता हूँ। ... यानी ' मैं जो हूँ ' !

   

ये सारी स्मृतियां एक किताब में दर्ज हो रहीं हैं । एक किताब नाकाफ़ी है इन स्मृतियों को संजोने के लिए , पर कागज़ में उतारने का बहाना तो हैं । इस प्रक्रिया को मैंने जटिल होने से बचाया है । यह किसी लेखक की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं । यह एक दृष्टा की साक्षी भाव से व्यक्त प्रामाणिक प्रस्तुतियां हैं । बेशक इनमें लेखकीय अनुशासन न हो पर यह स्मृतियों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं । ...ये विद्वता से परे सहज रूप से व्यक्त भाव हैं ।...ये किसी रचनाकार के अनुशासित लेखन कर्म यानी इत्मीनान से टेबल कुर्सी पर वैठ कर लिखी गई प्रस्तुतियां नहीं बल्कि चलते चलाते , खड़े बैठे , पार्क , मेट्रो , रेस्तरां में सेल फोन पर दर्ज होती गईं अभिव्यक्तियाँ हैं । '


 किताब के बारे मैं लेखक का मत्तव्य बहुत स्पष्ट है कि यह किसी लेखकीय मनस्थिति की संरचना  नहीं है।  यह स्मृतियों  के सिलसिले का बयान हैं। इसमें जिस मूल चरित्र को आधार बनाया गया है उसके इर्द गिर्द का पूरा परिवेश और  उससे जुड़े महत्वपूर्ण लोग भी पूरी जिंदादिली के साथ उभर कर आये हैं। ' बांदा के कवि केदार ' में केदार के साथ नागार्जुन की मौजूदगी महत्वपूर्ण है। 

साधारण चर्चाओं से उभरते हुए चरित्र विराट होते गए है। ...के एच आरा की जहांगीर आर्ट गैलरी में हुई मुलाक़ात आर्टिस्ट गैलरी में पहुंच कर उस दौर के कला सितारों , रज़ा ,सूज़ा और मकबूल फ़िदा हुसेन के किस्से बयान करती है। ...योग गुरु रामदेव , पतंजलि के आचार्य बाल कृष्ण और स्वामी चिदानंद सरस्वती एक नई रंगत के  साथ इस किताब में मौजूद हैं।

 

किताब का लेखक मौका पा कर  दार्शनिक अभिव्यक्ति भी  करता है, हालांकि यह सहज भाव है । ' ... स्मृतियों का अपार प्रवाह है , जब तक चेतना का स्पंदन है तब तक इस लीला भूमि में अपने होने का अहसास जीवंत है । जब तक हम अपने होने के अहसास से रोमांचित हैं तब तक ही यह सृष्टि हमारी संगिनी है ... जीवन है , राग है , लय है , मोह है , माया है , स्मृतियों का महारास है। ...स्मृतियों से मुक्ति ही मोक्ष है। जो फिलहाल अपने को नहीं चाहिए। ‘


किताब के अंतिम लेख ' एक शख़्स जाना अजाना ' में लेखक अपने आप को ही अपने से अलग होकर देखता है , रोचक शैली में लिखा आत्मकथ्य महत्वपूर्ण है।

 

टिल्लन ने किताब की शुरुआत अपने बचपन से ...यानी जब ये रामलीला में लक्ष्मण का पात्र अभिनीत करते थे...तब से की है । ...फिर जैसे जैसे इनका जीवन क्रम बढ़ता गया वैसे वैसे किताब आगे बढ़ती गई है ।


किताब में साधारण और विशिष्ट सभी तरह के लोगों का जिक्र हैं । भाषा निर्मल जल की तरह है  , पूरी किताब नदी की तरह बहती हुई । कुल जमा 65  चैप्टर हैं , ये नदी के  घाट की तरह हैं । हर घाट की अपनी कहानी है , अपना महात्म्य हैं । 


टिल्लन लेखक के खांचे में नहीं आते , उन्होंने जो लिखा हैं वह एक दृष्टा  के साक्षी भाव से लिखा है । एक शख़्स  ने जो देखा, जाना वह अपने आसपास के  लोगों को समर्पित कर  दिया ।


मकर संक्रांति, 14 जनवरी 2022

फ़्लैट नं -70  - 5 वां  माला पत्रकार कालोनी 

 कला नगर , बान्द्रा पूव॔ ,मुम्बई


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सादर आभार ! मनमोहन सरल जी के प्रति हार्दिक आभार ! सरल जी से  भरपूर स्नेह  मिला , नाम के अनुरूप वाकई बहुत सरल हैं। ....1980 से , जब से मैं बम्बई गया तब से मेरे सारे खेल  कूद के गवाह रहे हैं सरल जी। ....' मेरे आसपास के लोग ' किताब की भूमिका लिखने के लिए 2 महानुभाव थे मेरे आसपास , एक सरल जी और दूसरे डॉ चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ' ललित 'जी थे। ... तो सरल जी को तो पढ़ रहें हैं आप। ....जल्द ही डॉ चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ' ललित 'जी का भावपूर्ण लेख आपके सामने आएगा। .....तीसरे जिसे मैं बड़ी आत्मीयता से याद करना चाहूंगा , वे हैं .....मेरे संगतराश , मंगलेश डबराल ....जिन्होंने मुझे  शुरूआती दौर में पत्रकारिता के संस्कार दिए।

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