कहावतें गले पड़ गयी हैं !
कभी बातें
मुहावरेदार हुआ करती थीं
अब तो लगता है
मुहावरे ही गले पड़ गए हैं.
कभी कहा जाता था
ऊंट पहाड़ के नीचे
आ गया है
लेकिन जब हम
पहाड़ के नीचे पहुंचे
तब जाकर यह राज़ खुला
यहां हर चोटी
सच्चाई से आंखे मीचे है
और ऊँट पहाड़ के नीचे नहीं
खुद पहाड़ ऊंट के नीचे है .
लेकिन यह पहाड़ की समस्या
तो गजब ढा रही है
नन्ही नन्ही बकरियों को ऊंट
और बड़े बड़े ऊंटों को
बकरियां बना रही है.
राजनीति में
ऊंट और पहाड़ का रिश्ता
गजब ढा रहा है
क्या पता कब कौन
कितने अंदर पैठेगा
बड़े बड़े ऊंट परेशान हैं
कि न जाने यह पहाड़
किस करवट बैठेगा ?
हमने सुना था
एक और मुहावरा
ईंट का जवाब पत्थर से देना
हो सकता है तब
ईंटें सवाल करती हों
और पत्थर जवाब देते हों
अब पत्थर बोलते ही नहीं
आप ईंटे फेंकते रहिए
पत्थर मुंह खोलते ही नहीं
कुछ लोग कहते हैं
ईंट और पत्थर का हो गया
आपस मे समझौता है
जी हाँ, लोकतंत्र में
अक्सर ऐसा भी होता है .
और आपने सुनी होगी
एक और कहावत
एक ही नाव में सवार होना
जरा देखिये-हवाला का
कितना जबरदस्त बहाव है
सवार होने के लिए
सारे दलों के पास
एक ही नाव है
अब कहावतें ढूढे नहीं मिलती
सभी प्रथक प्रथक हैं
भला कोई कैसे
अपनी नाव को कैसे बचाये ?
हर नाव में बहत्तर से
ज्यादा छेद हैं.
कहा जाता है कि
एक मछली सारे तालाब को
गन्दा कर देती है
लेकिन सब यह कहावत भी
किसी के गले
नहीं उतर रही है
अब तालाबों में मछलियां कहाँ
उनकी जगह यहां
बड़े बड़े मगरमच्छ हैं
जो अंदर से मैले
ऊपर से स्वच्छ हैं
सारे मगरमच्छ मिलकर
इस तालाब को
देश समझ कर गन्दा कर रहे हैं
राम जाने !
इस देश मे
क्या होने वाला है
तालाब का हवाला देकर
ये बड़े बूढ़े मगरमच्छ
दशकों से कर रहे बवाला हैं
जिसे गन्दा करने में
इतने सारे मगरमच्छ जुटे हों
उस तालाब का अब
भगवान ही रखवाला है.
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