प्रेमचंद : आख्यान प्रेमियों के दिल के सम्राट
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• डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
शहर अमीरों के रहने और क्रय विक्रय का स्थान है. उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है. उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएं और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहां न्याय के बहाने गरीबों का गला घोटा जाता है. शहर के आस - पास गरीबों की बस्तियां होती हैं. बनारस में पांडेपुर ऐसी ही बस्ती है. .....
[ मुंशी प्रेमचंद ( 31 जुलाई 1880 -- 8 अक्तूबर 1936 ) के वृहद् उपन्यास "रंगभूमि" की एकदम प्रारंभिक पंक्तियां. ]
जब बनारस ( काशी हिंदी विश्वविद्यालय, वाराणसी ) में पढ़ता रहा तो शुरू में ही मन ने निश्चय किया हुआ था कि एक दिन पांडेपुर जाऊंगा अवश्य और गया भी, बल्कि जाता भी रहा. चौराहे से थोड़ा आगे बढ़कर सड़क के एक तरफ था ' यादव ढाबा.' क्या कचौड़ी, कितना सुस्वादु चोखा उiस ढाबे का !
बस, इसी चौराहे से सारनाथ जा रहा होऊं या "लमही" ( पांडेपुर से 11 कि. मी. -- प्रेमचंद का गांव. ) स्वतः "रंगभूमि" का स्मरण हो आता.
बाद में उ. प्र. सरकार की सेवा में आने पर तैनाती रही जब बनारस में, फिर फिर जाना हुआ पांडेपुर.
आज प्रेमचंद जयंती पर यह प्रसंग खूब याद आ रहा है. इस मौके पर एक संदर्भ भी शेयर करना चाहता हूं.
कथा साहित्य में प्लाट कैसा हो, इस पर मुंशी प्रेमचंद ने बहुत मौजू और उपादेय बात लिखी है :
प्लाट सरल होना चाहिए. बहुत उलझा हुआ, पेचीदा, शैतान की आंत, पढ़ते पढ़ते जी उकता जाय. ऐसे उपन्यास को पाठक ऊब कर छोड़ देता है. एक प्रसंग अभी पूरा नहीं होने पाया कि दूसरा आ गया. वह अभी अधूरा ही था कि तीसरा प्रसंग आ गया, इससे पाठक का चित्त चकरा जाता है. पेचीदा प्लाट की कल्पना इतनी मुश्किल नहीं है, जितनी किसी सरल प्लाट की. .... प्लाट में मौलिकता का होना भी बहुत जरूरी है. प्रेम, वियोग आदि विषय इतनी बार लिखे जा चुके हैं कि उनमें कोई नवीनता नहीं रही बाकी. .... अतः "शुकबहत्तरी" से पाठकों की तस्कीन नहीं होती. प्लाट में कुछ न कुछ ताजगी, कुछ न कुछ अनोखापन ज़रूर होना चाहिए. रही, रोचकता, वह मौलिकता की सहगामिनी है. .....
( माधुरी : 23 अक्तूबर 1922 )
अरुण देव ने आज ' समालोचन ' में वरिष्ठ आलोचक और अध्येता रविभूषण का आलेख लगाया है -- "प्रेमचंद और भारतीय लोकतंत्र". अपने समय की लोकतांत्रिक गतिविधियों पर प्रेमचंद की जो दृष्टि थी, उसे इसमें कितने गहरे से बताया और समझाया गया है. इसी तरह दो दिन पूर्व रविभूषण का ही एक और आलेख "गोदान में स्पेकुलेशन" भी यहां लगा है. गोदान (1936) पर विमर्श और चर्चा के सम😂य उसमें ग्रामीण पक्ष के बरक्स नगरीय गतिविधियों पर प्रेमचंद की जो दृष्टि है, उसे या तो छोड़ दिया गया है या वह छूट गया है. विद्वान समीक्षक ने इस आलेख में तार्किक रूप से यह ज्ञापित किया है कि गोदान व्यापक अर्थों में आधुनिक भारत का ब्लू प्रिंट है.
उधर प्रभात रंजन ने ' जानकी पुल ' में आज प्रेमचंद का पत्र जयशंकर प्रसाद के नाम (1.10.1934) लगाया है, तब उपन्यास सम्राट बंबई में थे और फिल्मों के लिए लिख रहे थे :
यहां की फिल्म दुनिया देखकर चित्त प्रसन्न नहीं हुआ, सब रूपये कमाने की धुन में. चाहे तस्वीर कितuनी ही गंदी और भ्रष्ट हो, शिक्षित रुचि की कोई जगह नहीं.
मैं तो किसी तरह यह साल पूरा करके भाग आऊंगा. ....
आज यह सब पढ़ा जाना चाहिए.
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