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प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
एक मन्दिर था। उसमें सभी लोग पगार पर थे। आरती वाला, पूजा कराने वाला आदमी, घण्टा बजाने वाला भी पगार पर था। घण्टा बजाने वाला आदमी आरती के समय, भाव के साथ इतना मशगुल हो जाता था कि होश में ही नहीं रहता था। घण्टा बजाने वाला व्यक्ति पूरे भक्ति भाव से खुद का काम करता था। मन्दिर में आने वाले सभी व्यक्ति भगवान के साथ साथ घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह वाह होती थी।
एक दिन मन्दिर का ट्रस्ट बदल गया,और नये ट्रस्टी ने ऐसा आदेश जारी किया कि अपने मन्दिर में काम करते सब लोग पढ़े लिखे होना जरूरी है। जो पढ़े लिखें नही है, उन्हें निकाल दिया जाएगा। उस घण्टा बजाने वाले भाई को ट्रस्टी ने कहा कि 'तुम्हारी आज तक का पगार ले लो। कल से तुम नौकरी पर मत आना।' उस घण्टा बजाने वाले व्यक्ति ने कहा, "साहेब भले मैं पढ़ा लिखा नही हूँ,परन्तु इस कार्य में मेरा भाव भगवान से जुड़ा हुआ है, देखो !" ट्रस्टी ने कहा,"सुन लो तुम पढ़े लिखे नही हो, इसलिए तुम्हे रखा नही जायेगा।"
दूसरे दिन से मन्दिर में नये लोगो को रखा गया। परन्तु आरती में आये लोगो को अब पहले जैसा मजा नहीं आता था। घण्टा बजाने वाले व्यक्ति की सभी को कमी महसूस होती थी। कुछ लोग मिलकर घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के घर गए, और विनती करी तुम मन्दिर आओ। उस भाई ने जवाब दिया, "मैं आऊँगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि मैं नौकरी लेने के लिए आया है। इसलिए मैं नहीं आ सकता।"
वहाँ आये हुए लोगो ने एक उपाय बताया कि 'मन्दिर के बराबर सामने आपके लिए एक दुकान खोल के देते हैं। वहाँ आपको बैठना है और आरती के समय घण्टा बजाने आ जाना, फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की जरूरत है।"
उस भाई ने मन्दिर के सामने दुकान शुरू की और वो इतनी चली कि एक दुकान से सात दुकान और सात दुकानो से एक फैक्ट्री खोली। अब वो आदमी मर्सिडीज़ से घण्टा बजाने आता था।
समय बीतता गया। ये बात पुरानी सी हो गयी। मन्दिर का ट्रस्टी फिर बदल गया। नये ट्रस्ट को नया मन्दिर बनाने के लिए दान की जरूरत थी। मन्दिर के नये ट्रस्टी को विचार आया कि सबसे पहले उस फैक्ट्री के मालिक से बात करके देखते हैं। ट्रस्टी मालिक के पास गया। सात लाख का खर्चा है, फैक्ट्री मालिक को बताया। फैक्ट्री के मालिक ने कोई सवाल किये बिना एक खाली चेक ट्रस्टी के हाथ में दे दिया और कहा चैक भर लो ट्रस्टी ने चैक भरकर उस फैक्ट्री मालिक को वापस दिया। फैक्ट्री मालिक ने चैक को देखा और उस ट्रस्टी को दे दिया।
ट्रस्टी ने चैक हाथ में लिया और कहा, "सिग्नेचर तो बाकी है।" मालिक ने कहा, "मुझे सिग्नेचर करना नंही आता है लाओ, अंगुठा मार देता हूँ वही चलेगा।" ये सुनकर ट्रस्टी चौक गया और कहा, "साहेब तुमने अनपढ़ होकर भी इतनी तरक्की की, यदि पढे लिखे होते तो कहाँ होते ?" सेठ हँसते हुए बोला, "भाई, मैं पढ़ा लिखा होता तो बस मन्दिर में घण्टा बजा रहा होता।"
सारांश: कार्य कोई भी हो, परिस्थिति कैसी भी हो, हमारी काबिलियत हमारी भावनाओ पर निर्भर करती है। भावनायें शुद्ध होगी तो ईश्वर और सुंदर भविष्य पक्का हमारा साथ देगा।
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