हिन्दी और भोजपुरी की अधिकांश साहित्यिक विधाओं में लिखने वाले वाले रचनाकार इन दिनों बहुत कम हैं। भगवती प्रसाद द्विवेदी उनमें से एक हैं। काव्य की सभी विधाओं मुक्तछंद, गीत, नवगीत, दोहा आदि में तो लिखते ही हैं कहानी, उपन्यास, बाल सहित्य के अतिरिक्त भिकारी ठाकुर और महेन्द्र मिश्र जैसे भोजपुरी के अद्वितीय रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर किताबें भी लिखी हैं। लगभग सत्तर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई सम्मान और पुरस्कार मिले हैं। लेकिन इन सबसे निर्लिप्त निरंतर सृजनरत रहते हैं एक सच्चे साधक की तरह। उनका मकसद कोई हंगामा खड़ा करना नहीं बल्कि अपने समय के सच और अंतस की वेदना को स्वर देना है
लिखा भी हैं – ‘अंतर की/ असह्य अकुलाहट/ लिखने को उकसाए’।
अपनी भाषा और अपनी मिट्टी से जुड़े रहना अपनी संस्कृति से जुड़े रहने की पहचान है। द्विवेदीजी किसी भी भाषा में या किसी भी विधा में लिखें वे अपनी संस्कृति को नहीं भूलते। उनके परिवेश की मिट्टी की खुशबू सहज ही महसूस की जा सकती है। साथ ही, इसमें समकालीन सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ, रोज-रोज बनती-बदलती दुनिया के सुख-दुख आशा-निराशा और आम आदमी का जीवन-संघर्ष पूरी शिद्दत से मौजूद है।
भूमंडलीकरण के बाद पूरी दुनिया ही गांव में बदल गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम वैश्विक नागरिक बन गए हैं। लेकिन इसके चलते बाजार का दबाव हमारे दैनिक जीवन पर ऐसा पड़ा है कि हम गतिशील होने की बजाय ठठस कर खड़े हो गए हैं। कहने को यह हमारी दुनिया का विस्तार है लेकिन सच्चाई यह है कि आम आदमी आज अपने छोटे से दायरे में भी रोज-रोज सिमट रहा है। द्विवेदी जी बड़ी बेवाकी से इसका चित्रण करते हुए पूछते हैं - -‘यह कैसा विस्तार की/ जिसमें रोज-ब-रोज/ सिकुड़ना है जहां न तो जड़/ न जमीन ही/ फिर जुड़ाव का नाता क्या/ कोलाहल/ चौराहे से अपनापा क्या’।
आज बाजार एक नियामक शक्ति हो गई है लेकिन यह बाजार हमारा वह अपना बाजार नहीं जिसमें क्रेता और विक्रेता के बीच आपसी संबंध होता था। दोनों एक-दूसरे के सुख दुख में साथ होते थे। क्रेता की आवश्यकता के अनुसार बाजार में सामान आते थे। आज पहले सामान आता है और फिर हमें एहसास कराया जाता है कि हमारा जीवन उस सामान के बिना कैसे चल रहा है। उस सामान के अभाव में किन सुविधाजनक स्थितियों के बीच हम जी रहे हैं। अगर यह सामान हमारे घर में आ जाए तो हमारे जीवन में कितना आसान हो जाएगा और ऐसी न जाने कितनी बातें बता कर हमे हमारी आवश्यकता बताई जाती है। बाजार की नजर में हम महज एक उपभोक्ता बनकर रह गए हैं। और, इस बाजारवाद का संरक्षक है अमेरिका। जब उसके राष्ट्रपति भारत आए तो उनका ऐसा स्वागत किया गया मानों किस्से-कहानियों का राजा आ गया हो।
एक कवि के नाते द्विवेदी जी इनके दूरगामी परिणामों को लेकर न केवल अपने गीतों में चिंता जाहिर की बल्कि एक गीत में व्यंग्य करते हुए लिखते हैं – ‘दुनिया के दीवान/ हमारे घर आए’। इसी को गीत में आगे लिखते हैं – ‘खेती होगी हवा तो क्या/ मंहगी हो दवा तो क्या/ हम गुलाम है बड़े अनुभवी/ बंधक पानी हवा तो क्या’।
जाहिर है कि जब कवि ऐसा लिख रहा है तो उसे गुलामी के उन दिनों की याद बरबस आ रही होगी अंग्रेज भी व्यापारी बनकर ही इस देश में आए थे और शासक बन बैठे थे। आज यदि अमेरिका, जिसे द्विवेदी जी दुनिया का दीवान कह रहे हैं, यही काम कर रहा है। एक अंदेशा तो सहज ही होता है कि पता नहीं हमारी आने वाली पीढ़ियों को किन-किन तकलीफदेह स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। उसके आगाज की दिखाई देने लगे हैं। एक दोहे में द्विहवेदी जी लिखते हैं – ‘मृगमरीचिका में फंसे/ छूटा अपना गांव/ फटपाथी जीवन बना जलता हुआ अलाव’।
दरअसल बाजारीकरण की मार सबसे ज्यादा गांव पर पड़ी है। भोले-भाले ग्रामीण शहर की चमक-दमक देखकर खींचे चले आते हैं अपने जीवन को सजने-संवरने। होना यह चाहिए था कि विकास से गांव में श्हार की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हो जातीं लेकिन सत्ता की कोशिश गांव के शहरीकरण करने में नहीं उसे एक नया बाजार बनाने में है। द्विवेदी जी ने एक गीत में इसका मार्मिक चित्रण किया है – ‘कहां खो गया अपना गांव/ कहां गई कान्हा और गोपियों की छेड़छाड़/ कहां गई वंशी की तान/ माटी की हमारी पहचानों को निगल गए/ बेजान पक्के मकान/ अपने हैं लोग मगर अपनापन शेष नहीं/ रिसते हैं रिश्तों के घाव’।
विदेशियों के प्रभावी आगमन के साथ ही उन देसी शासकों की भी बन आती है जो मातहतों के शोषण को अपना अधिकार मांगते हैं और अपने सहकर्मियों के साथ सहज नहीं होते। द्विवेदीजी व्यंग्य गीत में ऐसे अधिकारियों पर व्यंग्य करने से नहीं चूके। लिखा उनके आने से/ आंखों में चुभता सन्नाटा/ बोले तो लगता जैसे कुत्ते ने काटा/ तीर कमान चढाए/ आए साहब जी’। द्विवेदीजी सीधा सवाल करते हैं – ‘कहां है वे लोग जो भी बातें उजालों से भरी’।
द्विवेदी जी की गीतों में राजनीतिक विद्रूपताएं भी उजागर होती हैं। खासकर जोड़-तोड़ और अपराध की राजनीति के इस दौर में सभी अनायास उनकी पंक्तियों से सहमत हो जाते हैं। एक गीत में वे कहते हैं – ‘आप हंसे तो डर लगता है/ हर मुजरिम को पदक दिलाते/ सच को सूली पर लटकाते/ शातिर मुस्कानों की सहमा/ सहमा महानगर लगता है’।
जैसा कि मैंने कहा द्विवेदी जी की रचनाओं के विविध रंग हैं। प्रेम जीवन के लिए जरूरी है। द्विवेदीजी ने कई प्रेम गीत लिखे हैं। एक में में कहते हैं – ‘मन पलाश सा दहक रहा है। देह गुलाबी आग हो गई’। एक अन्य गीत में लिखते हैं – ‘चंदन की वीणा हो गई देह तुम्हारी’। यहां ध्यान देने की बात है कि द्विवेदी जी प्रेम में देह के महत्व से इंकार नहीं करते।
इन दिनों विश्व-युद्ध की आहट सभी लोग लगभग साफ-साफ सुन रहे हैं। कई देश युद्ध में या उसकी तैयारी में लगे हुए हैं। एक बारूदी गंध फैली हुई है। इसके बावजूद फूल खिल रहे हैं और उसमें खुशबू भी है।
युद्ध के बीच शांति और प्रेम का प्रतीक। इस उम्मीद को द्विवेदीजी ने अपने एक काव्य संग्रह ‘एक और दिन का इजाफा’ में संकलित एक कविता ‘जिजीविषा’ में बहुत ही अच्छे तरीके से व्यक्त किया है – ‘
जब लहलहा रही हों/ यहां से वहां तक बारूदी फसलें/ झूम रहे हों/ महाविस्फोटकों के आदमखोर जंगल/ और फल-फूल रहे हों/ रक्तबीजों से खदबदाते हुए/ रोशनी के मुखालिफ/ तब लगता है कितना हैरतअंगेज/ हवाओं का फूलों में गंध भरना/ तितलियों का उनसे गुफ्तगू करना/ भौंरों का बहकना, चिडि़यों का चहकना’।
इस कविता के अंत-अंत तक उनकी आशावादिता बनी रहती है – लिखते हैं – घनघोर घटाओं के बीच भी/ चमक उठती है बिजली/ किलक उठता है कोई बच्चा/ ऊसर में भी सीना ताने/ अंकुरित हो जाता है कोई बीज/ और हत्यारों पर भी उठ जाते हैं/ किसी तमाशबीन निहत्थे के हाथ अब भी’।
अंतिम पंक्ति है – ‘कुछ कम है क्या यह भी’। घोर निराशा के दौर में आशा की किरण द्विवेदीजी की कविताओं में अक्सर दिखते हैं।
जीवन और जगत के तमाम प्रासंगिक विसंगतियों के बीच भविष्य के प्रति एक आशावादी दृष्टिकोण और उसके लिए किया जाने वाला त्याग - ‘नई कोनलों की खातिर/ हम झरते जाएंगे। या हम तो दियना बाती/ तम में जलते जाएंगे’ उनके रचनाकर्म को सार्थकता देता है।
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