दो ग़ज़लें बनारस पर 🙏
(सोच विचार, जुलाई २०२२, के काशी अंक १३ में)
*1.*
इक नदिया को मान दिया है हर हर गंगे,
सबका ही उपकार किया है हर हर गंगे|
सुबह-ए-बनारस होती है ओ दोस्त! तभी तो,
कहने को आयी दुनिया है हर हर गंगे|
पाप मुक्त होता जल की कुछ छींटों से ही,
भोला-भाला या छलिया है हर हर गंगे|
देश-धर्म, रिश्ते-नाते औ गाँव-शहर ने-
कह-कहकर बस पुण्य लिया है हर हर गंगे|
बीच धार में दीप लिए उम्मीदों के औ –
फूलों वाली इक डलिया है हर हर गंगे|
*2.*
मौसम हो या बेमौसम हो थमे न रेला, चलो बनारस!
दुनियावी या देवों का हो, सबका मेला, चलो बनारस!
ढलने कब दे रौनक देखो, संध्या-वंदन घाट-घाट पर,
जगमग जगमग दीपाराधन है अलबेला, चलो बनारस!
दर्शन काशी-विश्वनाथ के करने सारा ही जग उमड़े,
जब भी, जैसे भी हों दर्शन, उत्तम बेला, चलो बनारस!
कंकर-कंकर में शंकर औ हर घर मंदिर महादेव के,
सब उसके ही, कौन सगा औ है सौतेला, चलो बनारस!
छोड़े है संसार साथ पर, प्यारी काशी साथ न छोड़े,
अंतिम क्षण भी कौन यहाँ पर रहा अकेला, चलो बनारस!
बाहर ही बाहर बस घूमें, भीतर कभी न देखा हमने
‘क्या खोया औ क्या पाया’ का छोड़ झमेला चलो बनारस!
- वेद मित्र शुक्ल
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