रविवार, 7 अगस्त 2022

बनारस पर दो ग़ज़लें / वेद मित्र शुक्ला

 दो ग़ज़लें बनारस पर 🙏

(सोच विचार, जुलाई २०२२, के काशी अंक १३ में)

*1.*

इक नदिया को मान दिया है हर हर गंगे,

सबका ही उपकार किया है हर हर गंगे|


सुबह-ए-बनारस होती है ओ दोस्त! तभी तो,

कहने को आयी दुनिया है हर हर गंगे|


पाप मुक्त होता जल की कुछ छींटों से ही,

भोला-भाला या छलिया है हर हर गंगे|


देश-धर्म, रिश्ते-नाते औ गाँव-शहर ने-

कह-कहकर बस पुण्य लिया है हर हर गंगे|


बीच धार में दीप लिए उम्मीदों के औ –

फूलों वाली इक डलिया है हर हर गंगे|


*2.*


मौसम हो या बेमौसम हो थमे न रेला, चलो बनारस!

दुनियावी या देवों का हो, सबका मेला, चलो बनारस!


ढलने कब दे रौनक देखो, संध्या-वंदन घाट-घाट पर,

जगमग जगमग दीपाराधन है अलबेला, चलो बनारस!


दर्शन काशी-विश्वनाथ के करने सारा ही जग उमड़े,

जब भी, जैसे भी हों दर्शन, उत्तम बेला, चलो बनारस!


कंकर-कंकर में शंकर औ हर घर मंदिर महादेव के,

सब उसके ही, कौन सगा औ है सौतेला, चलो बनारस!


छोड़े है संसार साथ पर, प्यारी काशी साथ न छोड़े,

अंतिम क्षण भी कौन यहाँ पर रहा अकेला, चलो बनारस!


बाहर ही बाहर बस घूमें, भीतर कभी न देखा हमने

‘क्या खोया औ क्या पाया’ का छोड़ झमेला चलो बनारस!

                                               - वेद मित्र शुक्ल  

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