मोबाइल ( से ) परवरिश/ नेतराम भारती
दिवाकर शहर में एक बहुमंजिला सोसाइटी में रहता है l कुछ दिन हुए गाँव से उसकी माँ, अपने छोटे बेटे के लड़के कृष्णा के साथ, उसकी दसवीं वैवाहिक सालगिरह पर आशीर्वाद देने आई है l परंतु यहाँ के हालात, बच्चों की दिनचर्या और अपने स्वभाववश उनके ज़हन में कई प्रश्न उन्हें दिवाकर से पूछने को बाध्य कर रहे थे l
" दिवाकर! बेटा तुम कैसे रहते हो शहर में, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है l तेरा यह लड़का प्रभाकर कुछ खेलता - वेलता भी है?"
"खेलता है न माँ l"
"खेलता है! , मैंने तो नहीं देखा, कहाँ खेलता है?"
"मोबाइल पर माँ l"
"मोबाइल पे! और मैंने इसे स्कूल - विस्कुल भी जाते नहीं देखा l"
"जाता है न माँ l"
" कहाँ जाता है?"
"मोबाइल पर माँ l"
" अरे! यह मोबाइल - वोबाइल की रट छोड़ l कहीं पर, कोई स्कूल तो चलता होगा, जहाँ इसके मास्टर - मास्टरनी पढ़ाते होंगे?"
"है न माँ l"
" कहाँ?"
"मोबाइल पर माँ l"
" बेटा! ये मसखरी की बात नहीं है l ऐसे कैसे तेरे बच्चे दुनियादारी सीखेंगे l इसे देख कृष्णा को, प्रभाकर से तो छोटा ही है न, पर सब जानता है l बाज़ार के सारे मोल - भाव, खरीदारी खुद कर लेता है l पर देखती हूँ, कि तेरे बच्चे, कैसे कोई सामान खरीदना, मोल - भाव करना सीखेंगे? "
" वे भी सीख रहे हैं माँ l"
" मैंने तो कभी बाज़ार जाते नहीं देखा l कब और कहाँ सीख रहे हैं?"
दिवाकर ने हँसते हुए माँ के दोनों कंधे पकड़ते हुए कहा..
"मोबाइल पर माँ l"
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