शनिवार, 20 अगस्त 2022

गोस्वामी तुलसीदास

 #तुलसीदास# 

कवि जयंती की पावनता 


एक कवि क्या होता है, वह क्या कर सकता है इसे तुलसीदास की महिमा से समझा जा सकता है! वह निर्गुण को जानते हैं सगुण को साधते हैं। मध्यकालीन समय में कुछ निराकारवादी बर्बर कबीलों के साकार उपद्रव के समक्ष एक सगुण और बेहद ठोस  प्रतिरोध भगवान राम के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास ने रचा। उनके ठीक पहले इसे सूर ने भ्रमरगीत में संभव किया था। निर्गुण पर ऐसा प्रहार कि उधौ जी भागते फिरे! तुलसी भेदरहित दृष्टि लेकर समन्वय करते हैं! कितने झगड़े फरियाये हैं उनकी गिनती नहीं। 


समन्वय के सबसे बड़े कवि तुलसी । वह अवसाद के कवि नहीं हैं और न उन्माद के । न विवाद के। वह मूलतः संवाद के कवि हैं। यही उपनिषदों की और तथागत की भी परम्परा रही है। वह जातिवादी नहीं हैं किंतु वर्णाश्रम को केंद्र में लाना चाहते हैं। वर्णाश्रम शताब्दियों से पॉस्चुलेट की तरह सामने रहा है वह थियोरम नहीं है। जीवन कभी वैसा भी चला होगा। तुलसी तत्कालीन विकृत समाज के प्रतिपक्ष में वर्णाश्रम को कस्टमाइज्ड करके प्रस्तुत करते हैं । वह उनका रामराज्य है जहां न कोई दरिद्र है न दीन । न कोई विबुध है न मलिन। न कोई डिप्रेशन में है न कोई मूर्ख। न कोई भूखा है न प्रताड़ित। आज भी हम ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं बना सके हैं। दूसरे निर्गुण मध्यकालीन संतों ने बेगमपुर बसंतदेश और गोकुल आदि जितने तरह की यूटोपियाएं रची हैं सबसे अधिक सगुण और कार्यांकित की जा सकने वाली प्रस्तावना तुलसी की है । 


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कवितावली में तुलसीदास ने जिस तरह आत्मकथ्य प्रस्तुत किया है वैसा वर्णन किसी कवि ने नहीं किया है। जब अनेक कवि संतई में मगन थे तुलसी ने लिखा कि न किसान को खेती है न व्यापारी के पास व्यापार है । यहाँ तक कि भिखारी के लिए भीख नहीं है मज़दूर के लिए मज़दूरी नहीं है। लोग बेहाल हैं। विवश हैं। आकुल व्याकुल हैं। पेट के लिए लोग क्या क्या नहीं कर रहे हैं। लोगों के पास न जीविका है न और कोई जीवन निर्वाह का उपाय । लोग केवल शोक और दुश्चिंता में डूबे हुए हैं। ज्ञानी भी वंचक निकल गए हैं। लोग बहुरूपिया बनकर जी रहे हैं। पेट के लिए लोग क्या क्या नहीं कर रहे हैं। लोग अपने बेटे बेटियाँ भी बेच रहे हैं। 


यह किस मुगलकालीन स्वर्ण युग का भारत है? ज्ञानी लोग और पंथी लोग निराकरण कर लें। क्या वह अकबरकालीन भारत का ही वर्णन नहीं कर रहे? इसी लिए कि लोग अकबर की इस मायावी छवि के समक्ष अपने वास्तविक रूप को कहीं भूल न जाएँ। तुलसी की यह सूक्ष्म राजनीति है। कोई भी बड़ा कवि अपनी जातीय स्मृतियों और संस्कारों का ही प्रवक्ता होता है या हो सकता है। कुछ जगहों पर ऐसा कहा गया है कि कुछ स्वार्थी लोगों ने अकबर को गोब्राह्मण हितैषी विष्णु -अवतार भी घोषित कर दिया था। तुलसी ऐसी किसी भी काल्पनिक सत्ता के विरोधी हैं। वह ऐसे लोगों के भी विरोधी हैं जो स्वार्थ के लिए कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं। 


तुलसी से बड़ा प्रगतिशील और यथार्थवादी कवि कोई दिखता नहीं है। यहाँ पर वह उन अनाम प्राकृत कवियों की पंक्ति में भी आगे खड़े दिख जाते हैं जो केवल दरिद्रता की व्यंजना भर किया करते थे। ऐसा भयानक वर्णन तो उन कवियों ने भी नहीं किया। है। किसी भक्त कवि ने तो नहीं ही किया है। रामचरितमानस में भी कलि वर्णन उनकी उन्हीं अवधारणाओं का निष्कर्ष है। मुगलकालीन व्यापार की सर्वाधिक भ्रष्टता का अविवेक और अतिरेक भारतीय परम्परा को कितना विकृत कर रहा है यह तुलसी के मूल्य बोध का हिस्सा है। आप सहमत हों या असहमत तुलसी इसकी परवाह नहीं करते। जिस परिप्रेक्ष्य से लोकायन को वह संभव कर रहे हैं वहाँ इतिहास के वातायन खुलते हैं। वह केवल इतना कह रहे हैं कि समय निकाल कर उस खिड़की से अंदर झांकें। तुलसी तक आते आते परायेपन के लगभग पाँच छ सौ साल बीत गए हैं। तत्कालीन भारत जिस तरह की सामाजिक संरचना बचा पाया है तुलसी उसे विवेक की आँख से देख रहे हैं और एक आलोचक कवि की हैसियत से सत्य का निरूपण कर रहे हैं। वहाँ विचार और अनुभव दोनों की कोटियाँ बनाते हुए वह भाषा के मोर्चे पर सामने लड़ रहे हैं। 


कहने को बहुत है । फिर कभी। 


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ग़ाज़ीपुर के एक हनुमान मंदिर में तुलसीदास की ऐसा छटा वाली मूर्ति स्थापित है। इस वेश में तुलसी बाबा की यह अद्भुत मूर्ति है। यहाँ वह कवियशःप्रार्थी लगते हैं। उनकी पगड़ी न मराठी है न बंगाली। वह भोजपुरी राजसिकता की अनुकृति है जिसका भदेस गमछे वाली पगड़ी है। इसका एक छोर दाहिनी ओर खुला छूटा है। ठीक भोजपुरी पगड़ी की तरह। 


जीवन की राजसिक संधि पर सकल विद्या समधीत तुलसीदास । ऐसा लगता है कि नए नए तुलसी जीवन के संग्राम की ओर बढ़ने वाले हैं। मन में उत्साह और जिगीषा है। लगता है ये निराला के तुलसीदास हैं- युवा और स्नातकोत्तर । यह छवि राजसिक और महिमामयी लगी। 


तुलसीदास में निराला ने लिखा था-

जागा जागा संस्कार प्रबल

रे गया काम तत्क्षण वह जल


यह विदग्ध कामना ही तुलसी के नेत्रों में समा गयी है। 


नीचे जो दोहा है वह इस बात की गर्वोक्ति है कि मैं मैंने पत्नी के उपदेश से राम के प्रति प्रेम का रस चखा।


आज तुलसी जयंती के अवसर पर मेरी ओर से महाकवि तुलसीदास को प्रणाम! 


फ़ोटो - आनंद 

२ अगस्त २०२२,

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