सावन
वेद मित्र शुक्ल के सावन पर सात हिंदी सॉनेट
1.
सावन आया है
सावन है एक माह का, पर, मन हरा भरा
ज़िंदादिल होकर जीता यह अपना जीवन
साथी बदरा भी तो है निशदिन सदा झरा
कैसे भी छूने को धरती का अंतर्मन।
पुरवइया हैं साँसें रितु पावस आह भरे
मधुरितु को कौन भला तड़पाए यारब!
पी-पी करता चातक तो कोई दर्द हरे
है कौन विरह पावक से बच पाए यारब?
पर, दिन जो भी हैं मिले दोस्त! जी भर रहना
हिस्से में जो भी विरह-प्रेम होता जीना,
धरती से नभ तक होकर सावन-सा बहना
शंकर की भाँति गरल भी तो होता पीना।
सावन आया है, जाएगा, फिर आएगा,
जैसे भी हो खुशतर जीना सिखलाएगा।
2.
सावन, कविता, तुम औ शाम
तुमने जो कविता उस शाम सुनायी थी ना
सुनता रहता हूँ अब भी भीतर ही भीतर
सच में, साथ-साथ दिल्ली के कविता जीना
आसां कब, पर, तुम भी तो कवि हो यह दीगर।
सावन की थी उमस किन्तु तुम सहज रहे थे
साधा होगा बारिश, ग्रीष्म, नमी जीवन में
आँखें चुप थी कविता के सुर बोल रहे थे
अच्छा ही है यों रहना कविता वाचन में।
‘क्या चीनी, क्या पाकिस्तानी मानुष हैं सब’
खतरा पैदा करता होगा ऐसे कहना
समझे है कब भीड़, मॉब-लिंचिंग का युग जब
पर, तुम भी तो; ऐसे ही है तुमको रहना।
सावन, कविता, तुम औ शाम सुनहरी यादें
मेरे खातिर तो ये हुईं शायरी यादें।
3.
फिर इस सावन
पानी-पानी फिर इस सावन शहर हुआ है
पहिये थमे हुए हैं भारी जाम लगा जी
कौन भला जो इसका जिम्मेदार मुआ है
छोड़ो भी, बतलाएं किनका नाम लगा जी?
लजा रही हैं सड़कें अपना हाल देखकर
गड्ढे भर आए हैं जैसे ताल-तलैया
राहगीर ऐसे में माना गुज़र रहे, पर
ऊपर वाला ही मालिक है इनका भैया!
सरकारी दस्तावेज़ों में साफ सफाई
और मरम्मत सड़कों की बारिश से पहले
इन पर जो भी खर्च हुआ है पाई पाई
दर्ज सभी, लेकिन, ज़मीन पर देखो घपले।
कब तक यों बतलाव अत्याचार सहेंगे
चुप्पी साधे रहे अगर, दुर्भाग्य कहेंगे।
4.
ऋतुओँ में है कौन यहाँ, है जैसा सावन?
अनजानेपन में भी हैं जाने से लगते
शायद मौसम का जादू छाया है मितवा!
अनचीन्ही गर्माहट में दोनों ही पगते
सच बतलाऊँ, तो सावन आया है मितवा!
माना बदरा धरती को जाने औ माने
सागर-नदिया से है नाता बड़ा पुराना
लेकिन, भू भी क्या हर इक बदरा को जाने
झरते हैं गुमनाम बने क्या खोना-पाना?
छाए रहते देखो नित ही नए नवेले
बदरा कारे-कारे हरियाली लाने को
ठाना सावन ने ही मेघों के ये मेले
मेल-जोल अजनबियों में भी फैलाने को।
ऋतुओँ में है कौन यहाँ, है जैसा सावन?
धरा-गगन का मेल कराए ऐसा सावन।
5.
सावन के मेघों-सा हो
शब्द शब्द हो, बसा गीत जो भीतर, बरसे
प्यास बुझे, ऐ सुनने वालों! बस, इतना मन
भीगो, अवसर है आया, थे जो भी तरसे
सच पूछो, झूमे-गाए अब अपना सावन।
दादुर, मोर, पपीहा ज्यों सब हिलमिल गाएं
नहीं मियाँ-मल्हार, मग़र, कमतर भी है कब?
मस्ती के सुर कैसे भी हों सबको भाएं
गीतों की दुनिया का यह भी तो है इक ढब।
सावन, साजन, बादल, बारिश औ यह धरती
बोल हुए हैं पंक्ति-पंक्ति के, नव रस घोले
हर इक मन को भिगो रहे हैं बारिश झरती
मनवा डोल रहा, देखो, तन भी अब डोले।
बसे गीत भीतर मानो असली धन पाया
सावन के मेघों-सा हो झरने को आया।
6.
बदरा जैसे कवि की कविता
बदरा जैसी कवि की कविता उमड़े-घुमड़े
गरजे-बरसे रह-रहकर के आसमान से
आखर-आखर शब्द-शब्द जब रहें न टुकड़े
कविता रचते कथ्य-भाव के गीतगान से।
भीगे देखो तन हो या मन बनके सावन
बूँदें पैठी भीतर तक जगमगा रही हैं
धरती के ऊपर और भीतर जलमय जीवन
ताल-तलैया, पोखर, नदिया पुनः बही हैं।
रचने वाले इन मेघों को, खोए इनमें
जैसे कवि मैं कविता हो या कविता में कवि
काले मेघा तैर रहे हैं उजले दिन में
ऐसे में तो सच बतलाऊं अद्भुत है छवि।
अनगिन रूपों वाले बदरा देखो भाते
दूर गगन में कुछ यों गीत रचे हैं जाते।
7.
उम्मीदों के पेड़ उगेंगे
कविताएँ, गज़लें, नगमे हैं उगा रहे हम
बैठे आस-पास देखो, ये, वे औ तुम भी
भीतर-बाहर बोल रहे औ कुछ गुमसुम भी
बो देंगे दो-चार बीज, अच्छा है मौसम।
बरसे थे बादल यों, बाकी नमी जमीं में
अखुवांयेंगे जल्दी ही हर बीज दोस्त! जो
कविता से कविता फूटेगी मन हरने को
कह पाएगा कौन भला तब कमी ज़मीं में।
अरे धरा तो माँ होती है, सच ही कहता
शब्द अर्थ भावों से इसको आओ सींचें
मसि कागद जो भी मिलता उनको हम भीचें
भीतर-भीतर कुछ तो है जो उगता रहता।
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