शनिवार, 12 जून 2021

सहमति_के_पक्ष_में ~ #उमाशंकर_सिंह_परमार

 📚 #सहमति_के_पक्ष_में ~ #उमाशंकर_सिंह_परमार



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● हिन्दी साहित्य के अधिकारी विद्वान आलोचक, मार्क्सवाद के सम्यक विश्लेषक, इतिहासविद, समर्थ लेखक एवं कवि, अनुवादक एवं चिंतक तथा भाषा वैज्ञानिक  #डाॅ_रामविलास_शर्मा_की_पुण्यतिथि (10 अक्तूबर) पर उनका स्मरण इसलिए भी आवश्यक है कि उनके बाद आलोचना के क्षेत्र में एक अधूरापन, एक शून्य सा प्रतीत हो रहा था।


इधर लंबे समय से हिन्दी साहित्य मे और साहित्यिक संस्थानों व संगठनो मे  जिस तरह से अकादमिक और विश्वविद्यालयी वर्चस्व स्थापित हुआ, उसके चलते पद, पैसा, पुरस्कारों तथा अन्यान्य प्रलोभनों का मायाजाल प्रभावी हो गया। ऐसी धारणा स्थापित करने का सुनियोजित षड्यंत्र चल पड़ा कि मानो साहित्य सृजन केवल विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थाओं से ही उत्पादित हो सकता है, शेष सब मूल्यहीन एवं अर्थहीन तथा हेय है। चाटुकारिता, चापलूसी तथा चरण चंपन की बढ़ती प्रवृत्ति ने वास्तविक रचनाकारों को हाशिये पर धकेलना शुरू कर दिया। अपने समय के जरूरी रचनाकार उपेक्षित किये जाने लगे। इस घातक स्थति पर कठोर प्रहार करने की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी। 

● उमस भरे ऐसे वातावरण में प्रखर आलोचक के रूप में उमाशंकर सिंह परमार ने मोर्चा संभाला और बहुत ही सुचिंतित तथा स्पष्ट चिंतन के साथ उपरोक्त तमाम साजिशों पर न केवल आक्रामक हमले शुरू किए, वरन उनको बेनकाब करना भी शुरू किया।  इस पहल के कारण उनको सभी संगठनों से भी किनारा करना पड़ा, मठाधीशों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, लेकिन परमार के चट्टानी इरादों को कोई भी षडयंत्र आगे बढ़ने से रोक नहीं सका। 

● जनकवि केदार नाथ अग्रवाल की कर्मभूमि बाँदा जैसी छोटी सी जगह मे उन्होने लगातार साहित्यिक आयोजन शुरू कर दिए, जिनमे शीर्षस्थ रचनाकारों का जुटान हुआ और अतिक्रमणकारी अवांछनीय तथा छद्मवेशी साहित्य के तथाकथित ठेकेदारों के तंबू उखड़ने लगे।

उमाशंकर सिंह परमार की तार्किक आलोचनाओं के स्वर इतने स्पष्ट और पारदर्शी रूप में सामने आए कि उसका सामना करने के लिए चुके हुए लोग बगलें झाँकने लगे, हालाँकि अर्थहीन और औचित्य हीन विरोध का सिलसिला भी जारी है, लेकिन झूठ के पैर नही होते, इसलिए उसका देर तक टिका रहना संभव नही है। 

● सैकड़ों पत्र पत्रिकाओं में परमार के आलोचनात्मक लेख निरंतर छप रहे हैं, आवश्यकता से अधिक छप रहे हैं और इसके साथ ही अल्प समय में उनकी दस आलोचनात्मक पुस्तकों का प्रकाशन एक अद्भुत उपलब्धि ही कहा जाएगा। 

● इसी क्रम मे उनकी एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक सामने आयी है ~ #सहमति_के_पक्ष_में। आलोचना की यह पुस्तक अब तक की उनकी अन्य पुस्तकों की अपेक्षा अधिक मुखर और दस्तावेजी है। पुस्तक की विषयवस्तु पर विस्तृत टिप्पणी/ समीक्षा तो समय-समय पर होती रहेगी। फिलहाल पुस्तक का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना इसलिए भी जरूरी है कि तमाम रचाकार इस पुस्तक के पठन-पाठन के माध्यम से आश्वस्त हो सकें कि अकादमिक आलोचना, संस्थानों तथा संगठनों की गिरफ्त में कैद जनवादी साहित्य लेखन और लेखक घुटन भरे वातावरण से मुक्त हो रहे हैं और नासमझ रचनाकारों के भ्रम टूट रह हैं।  

● पुस्तक की भूमिका में उमाशंकर सिंह परमार लिखते हैं कि ~ "साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की कमजोरी के पीछे एक कारण अकादमिक पूर्वाग्रह और पूर्व मान्यताएँ ही थीं, जो प्रकारांतर से कलावादी व्यक्ति निष्ठता व अराजकता की पोषक बनकर मार्क्सवाद को कमजोर करती रही है। आलोचना को विचारधारा का स्त्रोत बनाने का काम वही कर सकता था, जो अकादमिक आलोचना के भूत से अवमुक्त हो, लेकिन इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है या यह कहिए कि काम हुआ है, फिर भी वह चर्चा नही पा सका है या जानबूझकर ऐसे काम को नजरअंदाज किया गया है। 

● नीलकांत, कर्ण सिंह चौहान, कामेश्वर त्रिपाठी का नाम इस दिशा मे लिया जा सकता है। •••••• केदार नाथ सिंह, कुँअर नारायण, उदय प्रकाश, राजेश जोशी जैसे कलावादी और अमौलिक विचारधारा के बहुत से औसत कवियों को विभिन्न विश्वविद्यालयों के साहित्यिक कर्मियों ने देवता बनाने का उपक्रम किया, मंदिर स्थापित किए, लेकिन आम पाठक इस जबरदस्ती की सहमति को स्वीकार नही कर सका है। 

● आज का समय सूचना संचार का समय है। लेखक और पाठक पहले की अपेक्षा अधिक निकट आए हैं, संवाद बढ़ा है। मूल्य बदले हैं, लिहाजा मूर्तियों के खिलाफ पुनर्मूल्यांकन का नया अभियान चल पड़ा है। अब सहमति उन कवियो के पक्ष मे बन रही है, जो पाठकों को पसंद है और जिनका लिखा आम जनता के बीच भी लोक प्रिय रहा। •••• यह किताब ऐसी ही सहमतियों के पक्ष में है।" 

● आजादी के बाद हिन्दी में सबसे बड़ा परिवर्तन यह देखने में आया कि लेखन मे सत्ता अत्यधिक प्रभावी हो गयी है। बड़े बड़े पूँजीपतियों ने अपनी अकूत संपत्ति का निवेश कर पीठ और परिषद नामक हिन्दी की पुरस्कार दाता संस्थाएँ खोलीं और इन पीठों मे पदाधिकारी के रूप में सत्ता से जुड़े लोगों को बैठाया गया। विश्वविद्यालयों के हिन्दी प्रोफेसरों को हिन्दी का खेवनहार बताकर, उन्हें पुरस्कृत करके तथाकथित रूप से बड़ा बनाने की पूरी कोशिश की गयी। इसका प्रतिफल यह हुआ कि साहित्य जनता के बीच से कटने लगा। वह पीठों, अकादमियों व राज्य संस्थाओं का सरकार प्रायोजित साहित्य बन गया। जनता मे न तो पाठक बचे, न लेखक बचे। कबीर, सूर, तुलसी, निराला, जायसी, प्रसाद, मुक्ति बोध की परम्परा लगभग खंडित हो गयी। 

•••••• सत्ता और पूँजी के इर्द-गिर्द साहित्य की नकली बेल फलने फूलने लगी।औसत दर्जे की रचनाओं और आलोचनाओं का भीषण भंडार साहित्य का दर्जा पाकर मीडिया में चर्चित होने लगा। जेनुइन लेखन परिदृश्य से गायब हो गया और अपने आपको नोटिस लिए जाने के लिए तरसने लगा। •••• युगबोध की बजाय रिश्ता बोध प्रभावी हुआ, जिसके फलस्वरूप हिन्दी में कूड़े कचरे का अंबार लग गया। •••• ऐसे कवि लेखक, जो सत्तर अस्सी के दशक में उपेक्षित किए गये हैं, अब उनकी चर्चा की जाने लगी है, उनके लेखन का मूल्यांकन होने लगा है। ••••••

● आलोचना कृति के साथ कृति के समय की पूरी सभ्यता का रेखांकन है। आलोचना केवल रचना की नही होती, उससे जुड़ी पूरी सभ्यता की भी होती है। •••• जब हम कवि के समूचे परिवेश और युग से परचित हो जाते हैं, तो कृति की प्रगतिशील समीक्षा जन्म लेती है। यदि हम इस नजरिए से देखें, तो हम कवियों की एक ऐसी पीढ़ी भी देखते हैं, जो अपने जीवन और कविता के प्रति बेहद ईमानदार रहे, उन्होंने अपने जीवन मे जो अर्जित किया, उसी को कविता बनाया, मगर आलोचना की भेड़ चाल ने ऐसे लोगों को उपेक्षित किया है। मान बहादुर सिंह, हरीश भादानी, विजेन्द्र, कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह, शील ऐसे ही कवि रहे हैं। •••••

● कोई भी कवि जनकवि साधारण नही बनता है। कवि का जनकवि बनना एक असाधारण परिघटना है। हरीश भादानी के गीत उनकी रेत की जमीन मे आज भी गुनगनाए जाते हैं। इसी तरह मान बहादुर सिंह रहे, आजीवन गाँव में रहे और गाँव के सामन्तवाद से लड़ते हुए, जूझते हुए शहीद हुए, लेकिन अपनी शहादत के बीस साल बाद अचानक उनका उभर कर सामने आना बड़ी राहत देता है। 

● इस पुस्तक मे संग्रहीत कुछ कवि हमारी प्रगतिशील जनवादी चेतना के प्रतिमान हैं, जैसे ~ केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि। तीनों कवि अपने समय के दबावों से पीड़ित रहे, इनको स्वीकृति अस्सी के दशक मे मिली थी और आज भी ये कवि प्रगतिशील कविता के प्रतिमान बनकर हिन्दी में स्थापित हैं। मेरे विचार से इन कवियों को छोड़कर प्रगतिशील परम्परा का रेखांकन नही हो सकता है।

● उमाशंकर सिंह परमार दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि कवि की निजी पक्षधरता व निजी चरित्र भी आलोचना का विषय होना चाहिए। प्रगतिशीलता की ईमानदारी जाँचने के लिए मैने इसी पद्धति का सहारा लिया है, जिसके कारण शम्भु बादल, सुधीर सक्सेना तथा स्वपनिल श्रीवास्तव अपने युग के सबसे सजग जेनुइन रचनाकार के रूप में मुझे प्राप्त हुए।आधुनिक आलोचना मूल्यों व नव संरचनावाद के नजरिए से भी कवियों को परखने की कोशिश की गई है। समकालीन कवियों मे एकमात्र नासिर अहमद सिकन्दर हैं, जिनकी कविताओं का विस्तृत मूल्यांकन किया गया है। नासिर अहमद सिकंदर लोकधर्मी आंदोलन एवं लोकधर्मी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। भवानी प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार, धूमिल, शंभू बादल सुधीर सक्सेना, हरीश भादानी, मानबहादुर सिंह, नासिर अहमद सिकन्दर की प्रगतिशील जनवादी परंपरा से जुड़कर समकालीन कविता में लोकधर्मी चेतना का हस्तक्षेप बनाए रखने में योगदान कर रहे युवा कवियों पर भी एक आलेख का समावेश इस पुस्तक मे किया गया है।● यह पुस्तक किसी सैद्धांतिकी का निर्माण नहीं है,  बल्कि सैद्धांतिकी का प्रयोग है। इसमें वही कवि रखे गए हैं, जिनकी कविता प्रामाणिक अनुभूति इमानदार अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती है।  90 के दशक तक के इन कवियों को सभी ने पढ़ा है, मगर एक पंक्ति पर बैठाने की कोशिश नहीं की गई है। इस पुस्तक में एक ही विचारधारा व एक ही चेतना को लेकर सभी पर चर्चा की गई है। इसलिए सारे कवि एक दूसरे से जुड़े हैं और एक पंक्ति मे ही सब स्थापित हैं। इस पुस्तक में आलोच्य कवियों की विचारधारा और परंपरा द्वारा ही मूल्यांकन करने की कोशिश की गई है। बेसिर पैर की तुलनात्मक समीक्षाएं साहित्य के लिए घातक हैं। इस आदत ने हिंदी का बहुत नुकसान किया है। मैंने इस दोष को कभी भी अपने आलोचना में तवज्जो नहीं दी है।  यह पुस्तक भी इस दोष से मुक्त  है। यह आलोच्य विषय पर ही केंद्रित है। न उद्धरणों की बहुलता है, न बेवजह की तुलनाएं हैं। इन कवियों का पक्ष अपना पक्ष है, मेरी अपनी सहमति का पक्ष है। जिस कविता में युग बोध और विचारधारा व लोकधर्मिता का समावेश है, उस कविता से और उस कवि से मैं सहमत हूँ, वह मेरी आलोचना का पात्र है। 

● अंत मे परमार कहते हैं कि~  यह पुस्तक मेरी सहमतियों का पक्ष है। आलोचना में जिस टूल्स का आलोचना औजारों का प्रयोग हुआ है, वह सहमतियों के पक्ष में मेरे अपने तर्क हैं, मेरे अपने औजार हैं। पुस्तक को पूरा करने में लगभग 2 साल का समय लगा। साथी बली सिंह,शंभू यादव और प्रद्युम्न कुमार सिंह से विभिन्न कवियों पर निरंतर बात करता रहा, उनसे बहुत सहायता मिली। भादानी से मेरा आकर्षण युवा कथा कार संदीप मील के कारण हुआ, संदीप भादानी के गीत बड़ी शिद्दत और लय से गाते हैं। वरिष्ठ कवि शंभू बादल, विजेन्द्र, सुधीर सक्सेना, मलय जी ने निरंतर मुझे प्रेरणा दी, उनका भी मैं आभार व्यक्त करता हूँ।

● बाँदा मे समय-समय पर संपन्न साहित्यिक आयोजनों के कुछ चित्र अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं ~ ये भविष्य की धरोहर भी हैं। 

● #10_10_2020

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