गुरुवार, 24 जून 2021

कौन करे इस रचनात्मक आत्मोत्सर्जन-प्रविधि का अनुकरण ! / श्याम बिहारी श्यामल

 ज्ञानेन्द्रपति की काव्य-भाषा को लेकर, कवि-समाज के भीतर एक कसमसाहट-सी क्यों है ? 


पिछले दशकाधिक वर्षों के दौरान कई महत्वपूर्ण कवि व आलोचकों से बातचीत में इसकी झलक मुझे प्रत्यक्ष मिली है. यहां नाम लेना इसलिए उचित नहीं कि मेरी जानकारी में ऐसे लोगों ने इसे लिखत-पढ़त में कहीं व्यक्त नहीं किया और बातचीत में अनौपचारिक ढंग से कही बात को नामोल्लेख पूर्वक आम कर देना 'व्यक्तिगत' की मर्यादा का सीधे-सीधे हनन होगा. इसके बावजूद चर्चा इसलिए अनिवार्य है क्योंकि यह संदर्भ कहीं न कहीं बड़े फलक को छूने और प्रभावित करने वाला है. 


ज्ञानेन्द्रपति को अब से कुछ घंटे पहले, यानी बुधवार (23 जून 2021) को देरशाम, नागार्जुन सम्मान पर बधाई देते हुए फोन पर ही मैंने यह प्रश्न किया कि क्या उनकी निगाह में उनका समवर्ती या परवर्ती कोई ऐसा कवि है जो उनकी काव्य-प्रविधि का अनुकरण-परिग्रहण या विस्तरण करता  हो ? 


अव्वल तो ऐसे समय जबकि वह बधाइयों के कॉल्स-मैसेज की बाढ़ से घिरे थे, इस तरह के सवाल की उन्हें न अपेक्षा या उम्मीद रही होगी, न ही प्रचलित व्यवहारिकता में ऐसा कुछ पूछे जाने का यह सही वक्त, इसके बावजूद उन्होंने कुछ पल सोचकर उत्तर संजीदगी से दिया. 


उनका एक शब्द का यह उत्तर मेरी धारणा के ही अनुकूल अर्थात 'नहीं' था !


कविता में निराला, मुक्तिबोध से लेकर रघुवीर सहाय तक की काव्य-भाषा-शैली के अनुकरण करने वालों की लंबी फेहरिश्त है. पिछली आधी सदी की हिंदी कविता में, मेरे ख्याल से सबसे अधिक अनुकृत होने वाले मॉडल अग्रज कवि रघुवीर सहाय हैं, निराला-मुक्तिबोध से भी अधिक. कारण, उनके यहां जो एक तात्कालिक प्रतिक्रियापन या त्वरित तल्खी है, वह परवर्तियों या नयों के लिए जितना ही आकर्षक है, ग्राह्यता की दृष्टि से उतना ही सहज और प्रभावान्विति की दृष्टि से  वैसा ही असरदार और लाभदायी भी. लिहाजा, रघुवीर सहाय परवर्तियों में खूब झिलमिलाते दिख जाते हैं. उनके प्रभाव में रंगे आधा दर्जन नाम तो अपनी-अपनी पीढ़ी के 'संजीदा' शामिल हैं. उसी तरह, कॉपी करने वालों के लिए तो जटिलतम समझे जाने वाले मुक्तिबोध तक असंभव नहीं रहे. दम साधकर गझिन रूपक गढ़ने वाले, नई से नई पीढ़ी तक में कई नाम सामने है. 


फिर, ज्ञानेन्द्रपति में ऐसा क्या है, जो उन्हें अरूपांतरणीय बनाए हुए है ? 


यह कटु तथ्य है कि हिंदी कविता दशकों से एकजैसापन के गहरे संताप से जूझ रही है. कुछ इस तरह, जैसे ताजा हवाएं राह भूल गईं हों और प्रयोग के सारे द्वार बंद हो चुके हों!


हालत यह कि नाम ढंककर दस समकालीन प्रतिनिधि रचनाकारों की कविताएं सामने रख दी जाएं, तो पहचानना मुश्किल हो जाए कि दसों किसी एक ही कवि की रचनाएं हैं या दस अलग सर्जक की ! या, कौन किसकी ! आश्चर्यजनक ढंग से, जैसे सांचे से धड़ाधड़ ढलाई जारी हो. 


इसके बरक्स ज्ञानेन्द्रपति की कोई कविता या काव्यांश दिख जाए तो  उसे बगैर उनका नाम देखे भी उन्हीं की रचना के रूप में पहचानना, कम से कम कविता के नियमित रसास्वादकों के लिए असंभव नहीं. 


ज्ञानेन्द्रपति जिस तत्सम शब्दावली को अपना उपादान बनाते हैं, प्रकटतः यह हमारी प्राचीन थाती है. वह जिस कहन-शैली को संभव करते हैं, यह भी कोई ठोंक-पीटकर गढ़ी हुई नहीं! कथ्य भी इसी दुनिया और हमारे ही अपने जीवन के हिस्से ! इसके बाद भी कुछ तो ऐसा है जो उनकी कविता में यूं घटित होता है जिसे कोई और उतार नहीं पा रहा. कुछ यूं जैसे बीज पुराना, धरती-माटी भी चिरपरिचित और रोपण-सिंचन तक पूर्वज्ञात लेकिन निकलने वाली पौध से लेकर उसकी विकास-क्रिया और अंततः डाल पर खिल आने वाले पुष्प तक, सर्वथा अकृत्रिम, नए और अनुकरण-मुक्त! कुछ इसी तरह, ज्ञानेन्द्रपति की निर्मिति को जो तत्व विशिष्ट बनाता है, वह है उनका अपना अनुभव-रस, जिसे वह अपनी ही कठिन जीवन-प्रणाली से अर्जित करते हैं! 


ज्ञानेन्द्रपति कविता को लिख तो बाद में पाते हैं, पहले उसे उसके उत्स-संदर्भों में, ज्ञानेंद्रियों के अनेक स्तरों पर धारण करते हैं ! पुष्प देने से पहले धरती जैसे खनन सहन करती है, नमी वरण करती है, बीज धारण करती है और तब चरणबद्ध अन्य सभी आत्मशमन-क्रियाएं ! उन्हें और उनकी व्यक्तिगत कठिन जीवन-प्रणाली को जानने या उनके निकट पहुंचने वाले ही समझ सकते हैं कि कैसे वह ठीक इसी तरह अपने रचना-परिदृश्य को रेशा-रेशा अनुभवजन्य बनाते और लम्हा-लम्हा जीते हैं! 


इस सर्जनात्मक आत्मोत्सर्जन का, कोई देखकर अनुकरण करना चाहे तो यह भला संभव कहां है ! अब इस कारण किसी परवर्ती में निराशा या समवर्ती में कसमसाहट हो, तो हो !


ज्ञानेन्द्रपति को प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है और इससे भी पहले उनकी सर्जना को विशाल हिंदी कविता के फलक पर अपनी उल्लेखनीय विशिष्ट पहचान ! जनकवि नागार्जुन के नाम से जुड़ा ताजा सम्मान भी विशेष है. उन्हें आदरपूर्ण बधाई 🌹🙏🙏🌹

आलोक धन्वा  Naresh Saxena Madan Kashyap Subhash Rai Anwarshamim

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...