एक झलक भर दिखी थी
धीमी रफ्तार से गुजरती ट्रेन की खिड़की से -
पास-पास बैठीं वे दो अल्पवयस औरतें
दीन-दुनिया से बेखबर
बस एक-दूसरे को अपने वृत्त में लिए
जाने क्या कह-सुन रही थीं
रफ्तार में रहते हुए
मैंने समय को ठहरते देखा था
विस्मय से, नहीं, मानो अस्वीकार के भाव से -
उन दो औरतों के अस्तित्व-वलय में
बंधा, ठहरा समय!
उनकी पीठ पीछे
कुछ धीमे गुजर रही थी पटना रांची जनशताब्दी
जाने क्यों धीमी हो जाती हैं रेलगाड़ियां
तुपकाडीह स्टेशन से गुजरते..,
और सामने उनके थोड़ी दाहिनी ओर
महाकाय बोकारो इस्पात संयंत्र
और उसके ऊपर धुंआया क्षितिज
सद्य-दोपहरी का
- उन दो औरतों के लिए मानो बेमतलब!
वह प्रणय प्रसंग था या
नैहर-सासुर का अंतहीन आख्यान
बेमुरव्वत, लापरवाह मरद की कारस्तानियां
मौके की टोह में लगे मनचलों की करतूतें
बीमारी-हेमारी, महंगाई-तंगी
आसन्न जाड़े की तैयारी..
आखिर क्या रहा होगा?
उन दो औरतों के बीच
कितना सुख बिछा होगा
कितना दुःख पसरा होगा
आजतक सोचता हूं।
और यह भी सच लगता है कि
दुनिया के रहस्य खुलते हैं
दो औरतों की बातचीत में..
जाने क्या खुला था
तुपकाडीह स्टेशन पर
उन दो किन्तु मानो एकमेव
स्थितिप्रज्ञ, अंतर्लीन औरतों के बीच
कि समय आज तक वहीं ठिठका खड़ा है..
- शिवदयाल
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